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उपन्यास >> संघर्ष की ओर

संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

"मेरा विचार है कि उनको साफ-सुथरे घर बनाने की प्रेरणा देनी चाहिए।" मुखर बोला, "ऐसी गंदी झुग्गियां देखकर मुझे बहुत कष्ट होता है।"

"उनका तो सारा रहन-सहन ही वैसा है।" सीता बोली, "बच्चे तो नंग-धडंग हैं ही, स्त्रियों के पास भी वस्त्र नहीं हैं। उनका भोजन देखा नहीं, पर उसकी स्थिति भी अच्छी नहीं होगी।"

"आरंभ तो कही से भी हो सकता है।" धर्मभृत्य बोला, "बड़ों की चेतना, बच्चों की शिक्षा, घर, वस्त्र, अन्न, सफाई, रोगों का निदान-बात एक ही है। जब कभी इन अधिकारों की मांग की गई, स्वामियों से उन्हें दमन और अत्याचार ही मिला। मुझे लगता है, बस्ती वाले आपकी बात सुनेंगे ही नही।

"वे संघर्ष के लिए तैयार नहीं होंगे?" राम ने पूछा।

"नहीं।"

"तो हम उन्हें उस मार्ग से ले चले, जिसमें संघर्ष नहीं है।"

"जैसे?"

"मुखर की बात मान लेते है। हम कल से उनके लिए रहने का स्वच्छ स्थान बनाने का कार्य आरंभ कर देंगे। यदि हम बन से लकड़ियां काटकर, उनके लिए आश्रमों में बनाई जाने वाली कुटिया के समान कुटीर बना दें, तो उन्हें क्या आपत्ति हो सकती है?" राम ने पूछा।

'कुटीर-निर्माण?" लक्ष्मण की रुचि गहरी हो गई, "पूरी बस्ती के लिए कुटरि बनाने के लिए अनेक लोगों की आवश्यकता होगी।" "क्यों? धर्मभृत्य के ब्रह्मचारी यह कार्य नहीं करेंगे क्या?"

"ब्रह्मचारियों को क्या आपत्ति होगी?" धर्मभृत्य बोला, "पर अभी तक आश्रमों की ओर से ऐसा कार्य करने की बात कभी सोची नहीं गई।"

"यह एक दोष रहा है तुम्हारे आश्रमवासियों में।" लक्ष्मण बोले, "बुरा मत मानना मुनि धर्मभृत्य, किंतु मुझे लगता है कि ऋषियों-मुनियों के सारे कार्यक्रम, उनका सारा चिंतन अपने आश्रमों तक ही सीमित है। बुद्धिजीवियों का आंदोलन जनसामान्य को साथ लेकर न चले, तो वह आंदोलन किसके लिए है? तुम लोग अपने पृथक् सम्प्रदाय बनाते जा रहे हो।"

"सौमित्र तो एकदम ही रुष्ट हो गए।" धर्मभृत्य हंसा, "चलिए, कल से यही कार्य किया जाए। किंतु किसी प्रकार के विरोध की कोई संभावना तो नहीं है?"

'कैसा विरोध?" सीता ने आश्चर्य से पूछा, "कुछ को रहने के लिए अच्छा स्थान मिल जाए, इसमें क्या आपत्ति हो सकती है?"

"नहीं। यह बात नहीं है।" धर्मभृत्य कुछ संकुचित होकर बोला, "यहां रहकर मनःस्थिति ही कुछ ऐसी हो गई है कि प्रत्येक शुभ काम

में कोई-न-कोई विघ्न होगा, ऐसी आशंका बनी रहती है।"

"अब आशंकाएं छोड़ो।" राम हंसे, "बस्ती में सूचना भिजवा दो कि कल हम उनके लिए कुटीर बनाने का कार्य करेंगे। यथासंभववे थीं हमारी सहायता करें।"

"अभी भिजवा देता हूं।"

"किंतु," राम पुनः बोले, "शस्त्रागार की रक्षा के लिए आश्रम में कौन रहेगा?"

"मेरा विचार है कि आप और देवी वैदेही आश्रम में रहें।" अंत में धर्मभृत्य बोला, "शस्त्रागार की रक्षा भी हो जाएगी और भोजन भी...।"

"तुम लोगों ने मुझे ही सब से निकम्मा समझ रखा है?" राम मुस्कराए।

"आपको इतना बड़ा काम सौंप रहे हैं।" धर्मभृत्य ने जीभ दांतों में दबा ली, "और आप स्वयं को निकम्मा कह रहे हैं!"

"चलो। यही सही।" राम हंसे, "सीते, तुम्हें स्वीकार है?"

सीता ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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