उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
तीन
प्रातः तू लक्ष्मण, मुखर, धर्मभृत्य तथा आश्रम के अनेक ब्रह्मचारी लकड़ियां काटने वन की ओर चले गए। राम और सीता ने, पीछे रह गए ब्रह्मचारियों के साथ आश्रम की सफाई की। पशुओं को दाना-पानी दिया। पौधों की सिंचाई की। तब शस्त्र-परिचालन के अभ्यास की बारी आई। राम और सीता ने ब्रह्मचारियों को भी शस्त्रों-संबंधी कुछ सैद्धांतिक बातें बताई। काठ के खड्ग से कुछ अभ्यास कराया और उन्हें स्वतंत्र रूप से अभ्यास करने के लिए मुक्त कर दिया। सीता ने आग जलाई। ब्रह्मचारी अन्न और शाक-भाजी ले आए। उन्हें धो-धाकर आग पर चढ़ा दिया गया। राम इस सारे समय में चुपचाप उन्हें देखते रहे।
"क्या बात है प्रिय?"
"कुछ नहीं।" राम ने अनमनापन झाड़कर अलग किया, "गुरु अगस्त्य के विषय में सोच रहा था। सारे क्षेत्र में, मुझे किसी भी आश्रम में शस्त्र-शिक्षा का आभास नहीं मिला? किंतु धर्मभृत्य ने उनके आश्रम में शस्त्र-प्रशिक्षण की बात कही है। मुझे उनकी योजना अच्छी लगी। चेतना,
आर्थिक उन्नति तथा आत्म-रक्षा। यदि ये तीन मंत्र जन-सामान्य तक पहुंच जाएं तो फिर उनका शोषण अजमद हो जाएगा।"
राम और सीता ने पलटकर देखा, वन गया हुआ आश्रम का दल लौट आया था; किंतु उनके साथ कुछ अपरिचित लोग भी थे, जिनके सिरों पर लकड़ियों के बड़े-बड़े गट्ठर थे, जो उनकी क्षमता के लिए बहुत भारी थे।
"यह क्या सौमित्र?" राम चकित थे।
"अभी बताता हूं।" लक्ष्मण बोले और उन अपरिचितों की ओर मुडे, "लकड़ियां उतार दो। उन्हें ठीक से संवारकर रख दो और स्वयं उधर धूप में खड़े हो जाओ।"
राम उन्हें देख रहे थे, वे लोग न तो खान-श्रमिक लगते थे, न साधारण ग्रामवासी या वनवासी। वे संपन्न नागरिक थे। ऐसे लोग इन वनों में कहां से आ गए? बहुमूल्य वस्त्र तथा स्वर्ण आभूषणों से सुसज्जित वे हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति, चेहरे के भावों से पिटे हुए लग रहे थे।
"ये कौन हैं, सौमित्र?" लक्ष्मण ने उन लोगों पर दृष्टि डाली, वे उनके आदेश के अनुसार धूप में खड़े पसीने पोंछ रहे थे।
"ये उस खान के स्वामी हैं, जिसके श्रमिक इस बस्ती में रहते हैं।" लक्ष्मण बोले, "हमने वन में लकड़ियां काटनी आरंभ की, तो इनमें से एक हमसे आ टकराया। उसने हमें अपना काम बंद करने का आदेश दिया। कारण पूछा, तो बोला कि वह वन का रक्षक है। हमने उसकी बात नहीं मानी, तो जाकर वन के स्वामी और अन्य रक्षकों को बुला लाया। उन्हें अपने खड्गों का बहुत भरोसा था। थोड़ा-सा युद्ध भी हुआ, किंतु अकेला मुखर ही इन पर भारी पड़ रहा था-मुझे अधिक कष्ट नहीं करना पड़ा। उन्हें बंदी किया। उनसे काम करवाया और यहां ले आए।...इनके साथ कुछ और बंदी भी हैं।"
'कौन?" राम अपनी सोच में से चौंके।"
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