उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
चार
भूलर आश्रम में बैठा, अपनी टोली के साथ अक्षर-ज्ञान प्राप्त कर रहा था। धर्मभृत्य का शिष्य ब्रह्मचारी शुभबुद्धि उन्हें बार-बार अक्षरों की बनावट समझा रहा था। जब चौथी बार भी भूलर का अक्षर ठीक नहीं बना और शुभबुद्धि ने उसे सुधारने के लिए कहा तो वह उठ खड़ा हुआ, "मुझे क्या करना है, तुम्हारे अक्षरों को सीखकर। मुझे कुदाल चलाना है खान में-उसमें मुझे क्या लाभ होगा, तुम्हारे अक्षरों से।" फिर जैसे कुछ सोचकर उसने अपना अंतिम निर्णय सुना दिया, "मैं तो अपने बच्चों को भी पढ़ने से रोक दूंगा। या तो वह मेरे समान अक्षर सीख नहीं पाएगा, या फिर सीख गया तो खान में काम करने नहीं जाएगा। तुम्हारे समान ब्रह्मचारी बनकर किसी आश्रम में बैठ जाएगा। मुझे यह एकदम पसन्द नहीं है।"
भूलर चल पड़ा। शुभबुद्धि ने देखा, शेष लोगों का मन भी चंचल हो रहा था, कदाचित् वे लोग भी अक्षरों की बनावट से उलझते-उलझते थक चुके थे और भागने का बहाना सोच रहे थे।
शुभबुद्धि ने आगे बढ़कर भूलर का मार्ग रोक लिया, "कहां जा रहे हो?"
"घर जा रहा हूं। मुझे पढ़ना नहीं है।"
"क्यों? तुम्हें पढ़ना चाहिए। पढ़ोगे नहीं तो ज्ञान कहां से पाओगे?"
"नहीं चाहिए मुझे तुम्हारा ज्ञान।" भूलर बोला, "मुझे जाने दो। मैं नहीं चाहता तो तुम मुझे बलात् पढ़ाओगे क्या?"
"तुम्हें ज्ञान चाहिए।" शुभबुद्धि ने उसे समझाया।
"क्यों?"
भूलर हंसा, "पहले हम काम करते थे, क्योंकि उग्राग्नि चाहता था। अब काम करें, क्योंकि राम चाहते हैं। हम मुक्त कैसे हुए? हमारे जीवन में क्या अंतर आया? पहले एक था, अब दूसरा है। हमारे सिर पर तो कोई-न-कोई आरूढ़ ही है।..."
भूलर चल दिया। शुभबुद्धि ने हत्प्रभ-सी असहाय दृष्टि से उसे
देखा। कुछ नहीं सूझा, तो वह भागता हुआ, कुछ दूरी पर वृक्षों की छाया में स्त्रियों को शस्त्रों के विषय में बताती हुई सीता के पास जा पहुंचा।
"दीदी! भूलर और उसके साथी पढ़ना नहीं चाहते। वे जा रहे हैं।" वह हांफता हुआ जल्दी-जल्दी बोला। सीता ने देखा, भूलर सचमुच जा रहा था और अन्य लोग भी जाने के लिए उठ खड़े हुए थे।
"सुधा! इन्हें अभ्यास कराओ।" सीता बोलीं, "मैं आती हूं।"
सीता ने मार्ग में ही भूलर को रोक लिया, "क्या बात है भूलर! कहां जा रहे हो?"
भूलर हंसा, "एक खान-श्रमिक पढ़-लिखकर क्या करेगा? घर जा रहा हूं।"
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