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उपन्यास >> संघर्ष की ओर

संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

कदाचित् इसी भावना से प्रेरित होकर उसे अपने पिता के रचे गीत याद आ रहे थे। गीत उसके मस्तिष्क में मचलते थे और फिर हृदय की पीड़ा में डूबकर कंठ से फूट पड़ते थे। वह जानता था, उनमें शास्त्रीयता नहीं थी, ऊंचे ज्ञान अथवा असाधारणता का उनमें कोई आभास नहीं था-उनमें पीड़ा थी और ओज था। एक सरल मन की पीड़ा, और एक सच्चे व्यक्ति का ओज। उसके पिता का प्रिय गीत था...।

"तुम न्याय की बात मत करो। तुम नहीं जानते कि न्याय क्या है। तुमने अपनी सुविधा के लिए, दूसरों को वंचित करने के उद्देश्य से कुछ नियम बनाकर प्रचारित कर दिए हैं...अब उनकी अनुकूलता न्याय हो गई है और प्रतिकूलता विद्रोह!...तुम न्याय की बात के अधिकारी नहीं हो।...लाखों लोगों के मन की अनासक्त कामना न्याय है या विवेकहीन होकर स्वार्थवश गढ़े गए नियमों से जुड़े रहने की जड़ राक्षसी भावना? तुम न्याय की बात मत करो। तुम नहीं जानते कि न्याय क्या है।..."

अपने जीवन के पिछले संदर्भों से जुड़ा, मुखर का मन बार-बार भर आता था और उसके कंठ में संगीत घुल जाता था। आस-पास अनेक लोग संगीतशाला में एकत्र हो गए और तन्मय होकर मुखर के गीतों को सुन रहे थे। मुखर के पश्चात् अनेक ब्रह्मचारियों ने भी गीत सुनाए और श्रमिकों ने भी। और अंत में सबने मिलकर मुखर का गीत गाया, "तुम न्याय की बात मत करो। तुम नहीं जानते कि न्याय क्या है।"

सभा के बाद कुछ विचार-विमर्श भी हुआ। कुछ लोग स्वयं संगीत सीखना चाहते थे; और कुछ उत्सुक थे कि उनके बच्चे संगीत सीखें। बस्ती में गाने वाले अनेक थे, किंतु अभी तक कभी किसी ने सोचा नहीं था कि एक संगीतशाला भी बनाई जा सकती है, जहां बैठकर लोग संगीत का आनंद ले सकते हैं, सीख सकते हैं और सिखा सकते हैं...किंतु मुखर अभी बहुत व्यस्त था। वह प्रतिदिन समय नहीं दे सकता था। वैसे भी वह शस्त्र-प्रशिक्षण के साथ-साथ संगीत-प्रशिक्षण का काम करना चाहता था; शस्त्र छोड़, संगीत को अधिक समय देना उसके मनोनुकूल नहीं था। फिर भी उसने आश्वासन दिया कि शिक्षा-समिति के सामने वह संगीत- प्रशिक्षण की बात अवश्य रखेगा और प्रयत्न करेगा कि कोई-न-कोई व्यवस्था अवश्य हो जाए।

रात के भोजन के पश्चात्, सब लोग विचार-विमर्श के लिए बैठे तो मुखर ने संगीत-शिक्षा की बात चलाई। धर्मभृत्य ने कुछ असहायता से मुखर की ओर देखा और बोला, "संगीत से किसी को कोई विरोध नहीं हो सकता, किंतु पहली बात तो यह है कि हमारे पास संगीत सिखाने वाला कोई व्यक्ति नहीं है। आप पर पहले ही इतने दायित्व हैं। यदि संगीत सिखाने जाएंगे, तो या तो आप अपने अन्य दायित्व पूर्णतः निभा नहीं पाएंगे या फिर संगीत-शिक्षा ही शिथिल रह जाएगी। आप बाहर से कोई व्यक्ति बुलाना चाहें तो वाल्मीकि आश्रम से इधर शायद ही आपको कोई अच्छा शिक्षक मिले। इधर तो सदा ही राक्षसों का ऊधम चलता रहा है, इसलिए संगीत की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया है।" और फिर, धर्मभृत्य ने एक विचित्र दृष्टि से मुखर को देखा, "जिस वातावरण में हम जी रहे है...क्या अच्छा नहीं है कि जब तक हम राक्षसों से पूर्णतः निबट नहीं लेते, संगीत जैसी वस्तुओं में अपना समय और ऊर्जा नष्ट करने की बात न सोचें।"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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