उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
"संगीत..."
"ठहरो मुखर।" सीता बोलीं, "एक बार भली प्रकार विचार क्यों न कर लें कि बच्चों को किस-किस विषय की शिक्षा देनी है।"
"वह तो ठीक है दीदी।" मुखर स्वयं को रोक नहीं पाया, "यह कहना कि संगीत में समय और ऊर्जा नष्ट होती है...।"
आवेश के कारण मुखर पूरी बात नहीं कह पाया।
"कुछ मैं भी कह सकता हूं?" लक्ष्मण ने पूछा।
"नहीं!" राम बोले, "यह शिक्षा-समिति का विषय है। बीच में मत बोलो। मैं भी चुप ही हूं।" लक्ष्मण हंसकर चुप रह गए।
"मैं तुम्हारी बात समझती हूं मुखर।" सीता बोलीं, "संगीत में समय और ऊर्जा नष्ट नहीं होते। बात मात्र संगीत की ही नहीं, समस्त विद्याओं तथा उपविद्याओं की है। मान यह लिया जाता है कि ऐसी सौंदर्य-प्रधान विद्याएं, खाली समय का मानसिक विलास हैं, जबकि ऐसा है नहीं। दूसरी ओर मुनि धर्मभृत्य का कदाचित् यह विचार है कि हम असामान्य स्थिति में जी रहे हैं, इसलिए थोड़े समय के लिए युद्ध तथा युद्ध-प्रशिक्षण के सिवाय सब-कुछ अप्रासंगिक हो जाता है।"
"यही!" धर्मभृत्य बोला, "मैं यही कहना चाह रहा था।"
"बात यह है मुनिवर!" सीता मुस्कराईं, "कि यदि राक्षसों से आपका मुक्ति-युद्ध दो दिनों में समाप्त होने वाला हो, फिर तो कोई बात नहीं, आप युद्ध के सिवाय शेष सारी गतिविधियों को स्थगित कर दीजिए।...पर जहां तक मैं समझती हूं, यह मुक्ति-युद्ध इतना अल्पकालीन नहीं है। आज आपने एक मुक्तक्षेत्र स्थापित किया है, कल राक्षस सेनाओं का आक्रमण होगा और यह नष्ट हो जाएगा। आप पुनः स्थापना करेंगे, और वे पुनः नष्ट करेंगे। यह तब तक चलेगा, जब तक आप लंका की राक्षसी शक्ति को ही नष्ट न कर दें। इसलिए लोगों को एक ऐसा वातावरण देना होगा, जिसमें वे लंबे समय तक जी सकें। आपको अल्पकालिक तक आपातस्थिति के स्थान पर, दीर्घकालीन युद्ध के बीच जीने वाली एक जीवन-पद्धति का विकास करना होगा..."
"मेरा संगीत से कोई विरोध नहीं है दीदी।" धर्मभृत्य संकुचित स्वर में बोला, "जो कह गया, अपने अज्ञान में कह गया। मेरा अल्पवय देख मुझे क्षमा करें तथा 'मुनिवर' संबोधित कर, सौमित्र के समान मेरा परिहास न करें...।"
"मेरा प्रसंग आ गया है।" लक्ष्मण बोले, "भाभी! अब तो मेरा बोलना अप्रासंगिक नहीं होगा?"
"वस्तुतः तुम्हारा चुप रहना अप्रासंगिक होता है...।" राम मुस्कराए।
"दो-दो आरोप।" लक्ष्मण ने विरोध का अभिनय किया, "मुझे कोई भी ठीक-ठीक नहीं समझता। मेरे मैत्रीपूर्ण संशोधन को मित्र धर्मभृत्य ने परिहास समझा और मेरी वाकविदग्धता को भैया ने मेरा प्रलाप...ओह! लक्ष्मण! हतभागा!" लक्ष्मण सीता की ओर मुड़े, "भाभी! यह कविता हुई कि नहीं।"
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