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उपन्यास >> संघर्ष की ओर

संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

"ऋषि को किसी एक चिंतन-क्षेत्र में सीमित करना भूल है शुभबुद्धि!" सीता बोलीं, "ऋषि ज्ञान-विज्ञान की प्रत्येक शाखा में प्रादुर्भूत होते हैं। और यदि हम 'ऋषि' की तुम्हारी परंपरावादी जड़ व्याख्या मान भी लें, तो मैं कहना चाहूंगी कि स्वयं भूखे मरने वाले ऋषि से, कई लोगों का पेट पालने वाला धातुकर्मी कहीं अधिक पूज्य है। शिक्षा का कोई एक सार्वभौम, सार्वकालिक रूप नहीं हो सकता। प्रत्येक देश-काल में हमें उसे अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप ढालना पड़ता है।" सीता रुकीं, "अब जैसे हमने खनिज के उत्पादन, शोधन तथा उससे अन्य वस्तुओं के निर्माण पर आधृत एक नवीन शिक्षा-प्रणाली का विकास किया, तो इस निर्धन तथा पिछड़े हुए क्षेत्र को उसके माध्यम से आत्मनिर्भर बनने में सहायता तो मिलेगी; किंतु उसमें कुछ समय लगेगा। अतः कुछ अल्पकालिक तथा शीघ्र परिणाम दिखाने वाले मार्ग भी खोजने होंगे। कुछ स्थानीय उद्योगों को प्रोत्साहित करना होगा जैसे मिट्टी के बर्तनों का उत्पादन, घास के आसन, काठ की वस्तुएं, वस्त्रोत्पादन के लिए करघा इत्यादि। ऐसी ही अनेक छोटी-बड़ी वस्तुएं हैं, जिन्हें स्त्रियां तथा पुरुष अपने अवकाश के समय तथा बालक-बालिकाएं खेल-खेल में ही बना सकते हैं। दूसरी ओर, साथ-ही-साथ कृषि की भी उचित शिक्षा दी जा सकती है।"

"पर दीदी! संगीत?" मुखर बोला।

"यहीं संगीत भी आएगा।" सीता अपने प्रवाह में बोलती गईं, "विकास के इस दीर्घ तथा कठिन समय में जीवन कठोर परिश्रम की स्थिति से निकलेगा। शरीर और मन थकेंगे और संभव है कि कठोर जीवन से भागकर विलास के पतनशील मार्ग की ओर मुड़ना चाहें। अतः आवश्यक होगा कि मस्तिष्क का उचित नियंत्रण रहे; वह नियंत्रण रस, प्रेरणा तथा ऊर्जा देता रहे। मस्तिष्क को तत्पर रखने के लिए साहित्य, संगीत, सामाजिक अध्ययन तथा मानव संस्कृति का अध्ययन इत्यादि महत्त्वपूर्ण उपकरण हैं। साहित्य होगा तो व्याकरण और काव्यशास्त्र की भी आवश्यकता होगी धर्मभृ्त्य!" सीता ने सहसा अपनी बात समाप्त की।

"आप शिक्षा को वहां समाप्त कर रही हैं, हम जहां से आरंभ करते हैं।" धर्मभृ्त्य भी हंसा।

"आदि और अंत नहीं। ये साथ-साथ चलें।" मुखर ने कहा।

"ठीक! एकदम साथ-साथ।"

"तो हम शिक्षा की सारी व्यवस्था आश्रम में न कर, उसे विकेन्द्रित कर दें।" धर्मभृ्त्य बोला, "थोड़ी-सी आश्रम में, थोड़ी धातुकर्मी की भट्ठी पर, थोड़ी खान की मिट्टी में, थोड़ी कुम्हार के चाक के पास, थोड़ी बुनकर के करघे...। कल से इस योजना पर कार्य आरंभ कर दें।"

"मैं तुमसे पूर्णतः सहमत हूं मित्र!" लक्ष्मण बोले।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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