उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
छः
प्रातः के शस्त्राभ्यास के पश्चात् मुखर, आश्रम के कुछ ब्रह्मचारियों के साथ खान में काम करने के लिए जा चुका था। सीता भी उन स्त्रियों की शिक्षा तथा शस्त्राभ्यास के लिए बस्ती में चली गई थीं, जो अपने छोटे बच्चों अथवा किसी अन्य बाध्यता के कारण आश्रम में नहीं आ सकती थीं। लक्ष्मण उन श्रमिकों को शस्त्राभ्यास करवा रहे थे, जिन्हें आज खान से छुट्टी थी। किंतु उनके व्यवहार की उतावली स्पष्ट कर रही थी कि उनके मन में अपना अलग कार्यक्रम इतना प्रबल हो उठा था कि वे इस शस्त्राभ्यास को शीघ्र पूर्ण करना चाह रहे थे।
राम धीरे-धीरे चलते हुए लक्ष्मण के पास आए, "सौमित्र! अभ्यास कुछ समय तक चलेगा क्या?"
"अधिक नहीं!" लक्ष्मण अपनी उतावली से जूझते हुए बोले, "अन्न-भंडारी ने सूचना दी है अन्न का भंडार कम हो रहा है। मुझे निकट के कुछ ग्रामों में जाना है। खनिज के विनिमय से कुछ अन्न का प्रबंध करना होगा।"
"ओह!" राम कुछ सोचते हुए बोले, "मेरी खेत-श्रमपाली का समय हो गया है। यहां शस्त्रागार के पहरे का प्रबंध भी देखना होगा।"
"आप जाइए।" लक्ष्मण बोले, "मैं मुखर अथवा भाभी के आ जाने के पश्चात् ही जाऊंगा।"
राम की जनसेना प्रातः अपना शस्त्राभ्यास कर चुकी थी। अब सैनिक अच्छी प्रकार खड्ग चला लेते थे, शूल का प्रहार कर लेते थे, और धनुर्विद्या का अभ्यास आरंभ कर चुके थे। इस समय बीस सैनिक चार टुकड़ियों में बंटकर अलग-अलग कार्यों के लिए जा रहे थे। राम अपनी टुकड़ी के साथ खेतों पर जा रहे थे, अनिन्द्य अपनी टुकड़ी को धातुकर्मी की भट्ठी पर ले गया था, भूलर को इस समय कुंभकार के चाक पर होना था और कृतसंकल्प को बुनकर के करघे के पास।
कुछ काम तो सुचारु ढंग से चल रहे थे-राम सोच रहे थे-बस्ती में साफ-सुथरे, सुंदर कुटीर बन जाने से यद्यपि उन्हें प्रासाद नहीं मिले थे, किंतु खुले हवादार घर अवश्य मिल गए थे। करघे के प्रशिक्षण से आर्थिक स्थिति भी पहले से पर्याप्त सुधर गई थी। छोटे बच्चे नग्न घूमने के स्थान पर छोटी-छोटी धोतियों मे दिखाई पड़ते थे। कुंभकार के बर्तनों का रूप भी बदल गया था और प्रायः घरों में सुंदर बर्तनों का प्रचलन हो गया था।...किंतु अन्त!...राम के चिंतन में विघ्न उपस्थित हुआ-अन्न
की समस्या का पूर्ण समाधान नहीं हो पाया था। लक्ष्मण बता ही रहे थे कि अन्न का भंडार कम हो रहा था। उसका एक कारण तो निकट के कुछ पुरवों-टोलों तथा आश्रमों में सहायतार्थ अन्न भिजवाने की बाध्यता भी हो सकती है-किंतु साथ ही अन्न के उत्पादन की पद्धति भी उसके लिए उत्तरदायी थी। सिंचाई के उचित साधनों का भी अभाव था, अभी तक कृषि-कर्म मानव-श्रम पर ही टिका हुआ था। उसमें पशुओं की सहायता अभी नहीं ली गई थी। केवल कुदाल से मनुष्य भूमि को कितना उपजाऊ बनाएगा और उसके लिए कितना श्रम करेगा?...हल तो उन्होंने धातुकर्मी से कहकर तैयार करवा लिया है, किंतु बैल? बस्ती में न गाय है, न बैल। इन खान श्रमिकों को जीवन के दबाव ने कभी यह भी नहीं सोचने दिया कि यदि उन्हें नहीं, तो उनके बच्चों को गाय के दूध की आवश्यकता है। जिन्हें दो समय का भोजन कठिनाई से मिलता था-वे दूध की बात कहां से सोचते? किंतु अब दूध के विषय में सोचना होगा। आश्रम में पशु-पालन का कार्य भी प्रारंभ करना होगा और पशुओं का प्रबंध? कदाचित् पशुओं को दूर से मंगवाना पड़ेगा...भारद्वाज के आश्रम से...या...
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