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उपन्यास >> संघर्ष की ओर

संघर्ष की ओर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2866
आईएसबीएन :81-8143-189-8

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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...

राम और उनके साथी, अपने खेतों में पहुंचकर अपने काम में लग गए। अभी थोड़े-से क्षेत्र की खुदाई शेष थी फिर ढेले तोड़ने थे। पत्थर निकालने थे। कहीं-कहीं तो भूमि कुछ अधिक ही पथरीली थी। क्यारियां बनानी थीं...फिर सैनिकों को कृषि-कर्म के लिए पूरा समय भी नहीं मिल पाता था। काम के बीच में से सहसा दृष्टि उठाकर राम ने देखा, कोई व्यक्ति उनकी ओर आ रहा था। राम ने कुदाल रोक लिया। सीधे खड़े होकर ध्यान से देखा : दूर से तो वह भीखन ही लग रहा था; किंतु कैसा बदला हुआ-सा था। कुछ निकट आने पर पुष्टि हो गई। वह भीखन ही था। उसके चेहरे के भाव इतने बदपे हुए थे कि उसे पहचानना भी कठिन हो रहा था।

"क्या बात है भीखन?" भीखन चुपचाप, मार खाई हुई-सी दृष्टि से राम की ओर देखता रहा। लगता था, जैसे अभी राब देगा।

"क्या हुआ? तुम इतने दुखी क्यों हो भाई?"

राम ने कुदाल वहीं भूमि पर छोड़ दिया। भीखन को उसकी बांह से पकड़ा और खेत के किनारे पेड़ की छाया में ले आए। जब दोनों छाया में बैठ गए तो राम ने पुनः भीखन की ओर देखा।

"आपको याद होगा राम!" भीखन बड़े मरियल स्वर में बोला, "जब पिछली बार मैं आपको लेने आया था और आप हमारे गांव गए थे, तब मैंने कहा था कि राक्षस अपनी किसी सहायक सेना की प्रतीक्षा में हैं।"

"याद है।" राम बोले।

"वह सेना कल रात हमारे गांव में पहुंची थी..."

"क्या?" राम चौंक पड़े।

"हां राम! रात को उन्होंने आक्रमण...नहीं, उसे आक्रमण नहीं कहना चाहिए। लोग छिपकर चोरी से आए, और सारे युद्ध-बंदियों को छुड़ाकर ले गए। और..."

"और क्या?"

"आपको वह वृद्ध भी याद होगा, जिसने भूधर की हत्या की थी; वे लोग उसे अपने साथ ले गए हैं। निश्चय ही, वे उसे बहुत यातनापूर्ण मृत्यु-दंड देंगे..." राम गहरी चिंता में पड़ गए, इसका अर्थ यह है कि उन्होंने कुछ उतावली दिखाई थी। न तो आनन्द सागर के आश्रम में और न ही भीखन के ग्राम में ऐसा संगठन बन पाया था कि वे लोग अपनी रक्षा में समर्थ हो पाते, किंतु उन्हें छोड़कर चले आए।

"और कोई क्षति तो नहीं हुई?"

"रात के दो प्रहरी गंभीर रूप से घायल हुए हैं।" भीखन बोला, "मुझे खेद है राम!..."

"किस बात का?"

"मैंने तो कह दिया कि हम अपनी रक्षा कर लेंगे; किंतु कर नहीं पाए।"

"ओह!" राम अपनी गंभीरता के बीच मुस्कराए, "उसके लिए तुम्हें कोई दोषी नहीं ठहराएगा। हममें से दोषी कोई नहीं है किंतु असावधानी हुई है, और वह मुझसे हुई है।"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह

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