उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
अकेले होते ही राम के चिंतन और आत्मविश्लेषण की प्रक्रिया चल पड़ी।...उन्होंने आनन्द सागर आश्रम से लौटने में इतनी जल्दी क्यों की? वहां रुककर उसकी रक्षा का समुचित प्रबंध क्यों नहीं किया? यह क्यों नहीं सोचा कि एक उत्साहित भीड़ तथा एक प्रशिक्षित सेना में पर्याप्त अंतर होता है। भीड़ न तो सावधान हो सकती है, न समर्थ!...राम क्यों नहीं रुके?...क्या वे यह सोचकर गए थे कि उनका कार्य एक बाहरी सहायक का-सा है...जितना करने को उनसे कहा गया, उतना उन्होंने कर दिया तो उसके पश्चात् उनका कोई दायित्व नहीं रह जाता, या परिणाम में उनकी कोई रुचि नहीं है...किंतु बाहरी सहायक का क्या अर्थ? इस संघर्ष से पृथक् उनका अपना क्या है? वे इस संघर्ष से एकाकार नहीं हैं क्या? तो फिर क्यों चले आए वे? क्या उन्होंने शत्रु को बहुत नगण्य मान लिया था? शत्रु की शक्ति की उपेक्षा राम ने कभी नहीं की। वे बहुत स्पष्ट रूप से जानते हैं कि युद्ध में शत्रु की शक्ति को कम आंकने की प्रवृत्ति, अपनी पराजय का मार्ग प्रशस्त करने का सरल और सीधा रास्ता है।
क्या उन्हें आश्रम में लौट आने की जल्दी थी? किंतु क्यों? क्या अंधकार हो जाने के पश्चात् उन्हें वन-मार्ग की यात्रा संकटपूर्ण लगती है? नहीं। यदि वे वन-मार्ग के संकटों से इतने ही भयभीत थे, तो उन्हें वन में आने की आवश्यकता ही क्या थी? इन चुनौतियों से जूझने ही तो वे वन में आए थे। और अंधकार से क्या डरना? चारों ओर फैले इस राक्षसी आतंक, अन्याय और अत्याचार के अंधकार के विरुद्ध ही तो उनका अभियान है। ऐसे में सामान्य प्राकृतिक अंधकार से घबराकर, वे एक आश्रम और एक ग्राम को राक्षसों का ग्रास बनने के लिए असुरक्षित छोड़ आएंगे? आश्रम में रखे शस्त्रागार की सुरक्षा की चिंता उन्हें अवश्य रहती है, जिसके कारण वे अधिक देर तक बाहर नहीं रहते। किंतु, उस दिन आश्रम में न केवल लक्ष्मण, सीता, मुखर तथा अन्य लोग थे-वरन् आश्रम और बस्ती के सब लोग सजग तथा सन्नद्ध थे। फिर शस्त्रागार की सुरक्षा की कौन-सी चिंता थी?...क्या सीता की सुरक्षा की चिंता थी?...हां! यह संभव है। यदि वे रात-भर आनन्द सागर आश्रम में रुक जाते तो कदाचित् अब तक के वनवासी जीवन में, सीता से अलग रहने की पहली रात होती।...
राम का मस्तिष्क कुछ देर के लिए शून्य हो गया-विचारों का प्रवाह ही बाधित नहीं हुआ, विचार समाप्त ही हो गए। किंतु शून्य की स्थिति अधिक देर तक नहीं चली। शून्य का वाष्प जैसे ठंडा होकर तरल में परिवर्तित हो गया और प्रवाह से बह निकला।
...बात सीता की सुरक्षा की थी, या सीता से अलग रहने की? सीता स्वयं भी समर्थ हैं, उनकी रक्षा के लिए लक्ष्मण वहां थे, मुखर था-आश्रम तथा बस्ती के सारे लोग थे। यदि पीछे राक्षसों का आक्रमण होता तो सीता की सुरक्षा का ही सबसे अधिक ध्यान रखा जाता।...तो फिर? क्या राम स्वयं ही, कुछ घंटों के लिए सीता से दूर नहीं रह सकते? अयोध्या में तो अनेक बार सीता को छोड़ छोटी-छोटी यात्राओं पर चले जाते थे; किंतु वनवास के इन कुछ वर्षों में निरंतर साथ रहने और कभी भी अलग न रहने के कारण वे अपने मन से इतने बंध गए हैं कि सीता के वियोग की संभावना के जन्मते ही वे अचेतन रूप से ही भाग खड़े होते हैं...
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