उपन्यास >> संघर्ष की ओर संघर्ष की ओरनरेन्द्र कोहली
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राम की कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास...
"हां!" राम ने सीता की ओर देखा, "कदाचित् ग्लानि का भाव उदासी बनकर मन पर छा गया है।"
"कैसी ग्लानि?"
"भीखन के ग्राम की घटना को लेकर।"
"उसमें ग्लानि की क्या बात है?"
"मैं उस रात लौट न आया होता तो कदाचित् भीखन के ग्राम में वह दुर्घटना न हुई होती।"
"किंतु आपको क्या पता था कि ऐसा होगा।"
राम उदास मन से मुस्कराए, "मेरा मन रखने की बात न करो सीते। शत्रु को छोड़कर, असावधान हो जाना, क्या सेनापति की योग्यता का प्रमाण है? और मेरे मन में तो बात योग्यता-अयोग्यता की भी नहीं है। यह तो प्रमाद ही हुआ।...और वह भी किस कारण? इसलिए कि मैं अपनी प्रिया से कुछ समय के लिए अलग नहीं रहना चाहता था? तुम इसे प्रमाद नहीं कहोगी?"
"मैं इसे ठीक-ठीक प्रमाद नहीं कहूंगी।" सीता ने अपांग से राम को देखा, "मैं इसे प्यार कहूंगी।"
"किंतु प्यार को जनहित के विपरीत नहीं जाना चाहिए," सीता के अपांग से अप्रभावित राम बोले, "एक बार चित्रकूट में भरत के आने पर मैं अपने परिवार के प्यार में घिरकर वनवासियों से दूर हो गया था और राक्षसों ने उन्हें अनेक कष्ट दिए थे। अब अपनी प्रिया के प्यार में बंधकर उनसे दूर हो गया...।"
"प्रिय!" सीता भी गंभीर हो गईं, "श्रृंगार को जीवन में अतिरिक्त महत्त्व न दो, किंतु उसको अपने जीवन से काटकर फेंका भी तो नहीं जा सकता। यदि राम भी अपनी भूलों पर पश्चाताप करते रहेंगे, तो भूलों से शिक्षा ग्रहण करने की प्रक्रिया किस पर लागू होगी..." सीता रुककर मुस्कराईं, "और राम से ऐसी भूलें नहीं होंगी, तो सीता अपने प्रिय की प्रेम-भावना पर रीझेगी कैसे?" सीता खिलखिलाकर हंस पड़ीं।
"ठीक कहती हो प्रिये!" राम बोले, "राम को अपनी भूलों से शिक्षा ग्रहण करनी होगी-सुधार करना होगा, रणनीति में भी, और प्रेमाभिव्यक्ति की इस दूषित पद्धति में भी।...सोचता हूं अब हमें शीघ्र ही आनन्द सागर आश्रम के लिए प्रस्थान करना चाहिए।"
"यहां का संगठन-कार्य पूर्ण हो गया?"
"सर्वथा पूर्ण तो नहीं हुआ; किंतु अब वहां हमारी उपस्थिति अधिक आवश्यक है।" राम बोले, "वैसे संचार-व्यवस्था स्थापित कर लेने पर वहां अथवा यहां कहीं भी रहा जा सकता है..." सहसा राम रुके, "क्या बात है, अभी सौमित्र नहीं आए?"
"संभवतः कहीं प्रेमाभिव्यक्ति की संचार-व्यवस्था स्थापित कर रहे हों।" सीता पुनः खिलखिलाकर हंस पड़ीं।
"ऐसी कोई सूचना मिली है क्या?" राम गंभीर थे।
"नहीं, आप सच मान गए। मैंने तो परिहास में कहा था।"
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