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पौराणिक >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2878
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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राम कथा पर आधारित उपन्यास...

''प्रतीक्षा। अर्थात् कहानी के आगे बढ़ने की प्रतीक्षा।'' लक्ष्मण बोले।

''हां।'' गुरु ने सिर हिला दिया।

कथा के आगे बढ़ने की कोई संभावना न देख, लक्ष्मण की कथा संबंधी उत्सुकता शांत हो गई। उनका ध्यान अहल्या के प्रति हुए अत्याचार की ओर चला गया।

''एक दुष्ट और अनेक कायर।'' लक्ष्मण बोले।

लक्ष्मण को जोर की नींद आ चली थी; किंतु कथा के मोह में उन्होंने अपने संपूर्ण आत्मबल से उसे रोक रखा था। कथा के समाप्त होते ही नींद के विरुद्ध खड़ा किया गया प्रतिरोध समाप्त हो गया। निश्चिंत सो जाने में लक्ष्मण को दो क्षण भी नहीं लगे।

पर राम को नींद नहीं आई। उन्होंने कुछ सुखद आश्चर्य से लक्ष्मण को देखा : कैसे मस्त हैं लक्ष्मण। राम जानते हैं कि लक्ष्मण, अहल्या की पीड़ा से, उसके विरुद्ध हुए अत्याचार से कितने दुखी हुए होंगे। यदि कहीं इन्द्र उनके सम्मुख पड़ जाता, तो धनुष उठाकर उस पर बाण चला देते। पर वे ही लक्ष्मण इस समय निश्चिंत सो रहे हैं। यह आयु ही ऐसी है, या यह लक्ष्मण के स्वभाव की मस्ती है?...राम की न वह आयु है, और न वह स्वभाव। कथा का एक-एक अक्षर, उनके मन पर कीलित हो गया था। कैसे अहल्या के प्रति अत्याचार हुआ, कोई उसकी सहायता को नहीं आया। न ऋषिगण इन्द्र को रोक सके, न कोई आर्य सम्राट् अहल्या की सहायता के लिए, उसका पक्ष लेकर, इन्द्र को दंड दे सका। न उसे देवताओं ने समाज-बहिष्कृत किया। ऋषि दंपति ने अपने बल पर इन्द्र को दंडित किया। कितना हल्का था दंड-इन्द्र पूज्य नहीं रहा।...इतने से दंड से क्या होता है। पर, इससे अधिक लोग कर भी क्या सकते थे। इतने-भर के लिए ही उन्हें कितना मूल्य चुकाना पड़ा। पच्चीस वर्षों में एक बार छिपकर गौतम अहल्या से नहीं मिले-न शतानन्द ही वहां गए। जाते, तो समाज जान जाता कि गौतम ने अपनी पतित पत्नी को सचमुच त्यागा नहीं है। गौतम का सम्मान कम हो जाता। उनके शाप का पालन समाज नहीं करता...गौतम डरे हुए पच्चीस वर्षों से अपने आश्रम में बैठे हुए हैं।...

...सीरध्वज ने क्यों साहस नहीं किया? क्यों नहीं अहल्या को सामाजिक मर्यादा दी? इसलिए कि उन्हें अहल्या से कोई सहानुभूति नहीं थी? या वे स्वयं भी सामाजिक बहिष्कार से भयभीत थे? यदि राम तब उपस्थित होते, तो क्या करते?

राम प्रश्न के आमने-सामने खड़े थे।

क्या करते?

इसमें सोचना क्या है-दुष्ट की दुष्टता का प्रतिकार करने के लिए, शस्त्र का आश्रय लेते हैं। इन्द्र को मृत्यु-दंड देते और अहल्या को निष्कलंक घोषित कर सामाजिक मर्यादा देते। पर...पर ये घटनाएं पच्चीस वर्ष पूर्व घटित हुई हैं। राम के जन्म से पूर्व, या उनके जन्म के आस-पास। उन्हीं दिनों युद्ध में सम्राट् दशरथ भी इन्द्र की सहायता करने गए होंगे...

पर ऋषि विश्वामित्र ने कहा है कि कथा वहीं रुकी पड़ी है अर्थात् अहल्या आज भी आश्रम के भीतर बंदिनी है, गौतम और शतानन्द आश्रम के बाहर...अहल्या आज भी मुक्ति की प्रतीक्षा कर रही है...

राम को वे सारी युवतियां याद हो आईं, जो ताड़का-शिविर से मुक्त कराई गई थीं। उन्हें लगा, अहल्या भी उन्हीं बंदिनी युवतियों में से एक थी। यह दूसरी बात है कि वह राक्षसों द्वारा न बंदिनी हुई, न पीड़ित। पर क्या अंतर है राक्षसों और देवराज में? शक्ति और सत्ता के मद में क्या सब लोग एक ही जैसे नहीं हो जाते-चाहे राक्षस हों, चाहे देव? अहल्या देवराज द्वारा सताई गई और मानव समाज द्वारा, अपने ही आश्रम में बंदिनी बना दी गई।

राम की कल्पना में वनजा सजीव हो उठी। चलते हुए उसने पूछा था, ''मुझे किस के भरोसे छोड़कर जा रहे हैं प्रभु?'' और राम ने कहा था, ''मैं आऊंगा। जब भी मेरी आवश्यकता होगी, मैं आऊंगा।''

क्या भेद है वनजा और अहल्या में। राम अहल्या को भी ऐसा ही वचन क्यों नहीं दे सकते? क्या अहल्या उन्हें नहीं बुला रही? क्या उसकी रुकी हुई क्या को राम आगे नहीं बढ़ा सकते?...

राम एक निर्णय पर पहुंच रहे थे। उनका मानसिक तनाव कुछ कम हो रहा था। उन्हें नींद आ रही थी...

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    अनुक्रम

  1. प्रधम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. वारह
  24. तेरह

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