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पौराणिक >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2878
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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राम कथा पर आधारित उपन्यास...

''गुरुदेव!'' लक्ष्मण बहुत उत्तेजित हो उठे थे, ''आपको मैं बता नहीं सकता कि हमारे भैया से प्रजा को कितना प्रेम है। प्रजागण जानते हैं कि उनके दुख-सुख में, संघर्ष तथा आपत्तियों में केवल राम ही उनके साथ हैं। बाहरी आक्रमणों से भी राम ही उन्हें बचाते हैं। सम्राट् अब युद्ध-यात्राएं नहीं करते, बारात लेकर विवाह-यात्रा चाहे वह कर लें। प्रजा के अधिकारों की रक्षा के लिए न्याय-स्थापना भी राजकुमार राम ही करते हैं, सम्राट् को तो अन्तःपुर के झगड़ों से ही अवकाश नहीं है। प्रजा की जिह्वा पर अब केवल राम का नाम है। मेरी माता कहती हैं कि पिछले दस-ग्यारह वर्षों से कोसल का राज्य भैया राम चला रहे हैं, पर फिर भी उनका अभी तक युवराज्याभिषेक तक नहीं हुआ है। होगा भी या नहीं, कहा नहीं जा सकता। पर हमारे भैया दूसरों के अधिकारों की रक्षा करते हुए भी अपने लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। वे कहते हैं...''।

''लक्ष्मण!'' राम ने टोका।

''ठहरो राम!'' गुरु बोले, ''हां लक्ष्मण! तुम्हारे भैया क्या कहते हैं?''

लक्ष्मण राम की ओर देखकर चंचलता से मुस्कराए, ''हमारे भैया कहते हैं, दूसरों के अधिकारों की रक्षा करना न्याय है; और अपने अधिकारों के लिए लड़ना स्वार्थ है। पर मेरी माता को राम की अपनी ओर से उदासीनता पसंद नहीं है। माता कौसल्या भी अपनी ओर से इसी प्रकार उदासीन थीं, इसीलिए वे सदा दुख उठाती रहीं। यदि कहीं सम्राट् ने ऐसा व्यव्हार माता सुमित्रा से किया होता, तो वे सम्राट् को अवश्य ही उचित मार्ग दिखा देतीं। मेरी...''

''लक्ष्मण!'' राम ने स्नेहमिश्रित अधिकार से डांटा।

लक्ष्मण ने तिरछी दृष्टि से राम को देखा और मुस्कराकर पुनः बोले, ''गुरुदेव! मेरी माता कहती हैं कि यदि भैया ने अपने लिए कुछ नहीं किया तो मुझे बड़े होकर भैया को उनका अधिकार दिलाना है। वे कहती हैं कि राम का पक्ष न्याय का पक्ष है और राम से उदासीन होना न्याय से उदासीन होना है। वे चाहती हैं कि मैं बहुत वीर बनूं और राम के मार्ग के प्रत्येक कंटक को समूल उखाड़ फेंकूं। वे कहती हैं...''

गुरु ने दृष्टि उठाकर कुछ कहने के लिए आए खड़े पुनर्वसु की ओर देखी।

''भोजन तैयार है गुरुदेव!'' पुनर्वसु ने कहा।

''आओ वत्स, पहले भोजन कर लें।'' गुरु अपने आसन से उठ खड़े हुए।

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    अनुक्रम

  1. प्रधम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. वारह
  24. तेरह

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