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दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2878
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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राम कथा पर आधारित उपन्यास...

डूंडी की पीड़ा में अहल्या ने उसे स्नेह दिया था, आज उसकी पीड़ा में डूंडी ने औषध लगाई थी। अहल्या का मन हुआ, वह डूंडी के गले लगकर जी भर रोए...।

वह बड़ी देर तक डूंडी से लगी खड़ी रही और उसका माथा और शरीर सहलाती रही; डूंडी उसी प्रकार प्यार से रंभाती रही, और उसका हाथ चाटने का प्रयत्न करती रही...।

सहसा उसे लगा काफी विलंब हो गया है। वह शत को अकेला छोड़कर आई थी। उसे अधिक देर नहीं करनी चाहिए।

उसने डूंडी को दाना डाला और भाजन लेकर दूध दुहा। एक-एक कर उसने सारे पशुओं को खूंटे से खोला, और बाहर हांक दिया।

लौटते हुए वह तेजी से अपनी कुटिया की ओर बढ़ रही थी। कदाचित् अब तक शत उठ गया होगा, और कुटिया में स्वयं को अकेला पाकर रो रहा होगा; संभव है, गौतम भी अब लौट आए हों...।

मार्ग में, अग्निशाला के पास से गुजरते हुए उसे लगा कि भीतर शायद, किसी व्यक्ति की छाया थी। उसके पग रूक गए-कौन हो सकता है। क्या अब भी आश्रम में उनके अतिरिक्त कोई व्यक्ति उपस्थित है?

अहल्या के पग उत्सुकतावश अग्निशाला के द्वार की और बढ़ गए। द्वार पर पहुंचकर वह रुक गई। एकं दीवार से कंधा टिका कर, गौतम एकटक, यज्ञकुंड की ओर देख रहे थे।

उनकी उस दृष्टि को देखकर, अहल्या की रीढ़ की हड्डी जैसे शीत से कांप उठी। उन आंखों का भयंकर शून्य, उजाड़ मरुभूमि...किन शब्दो में सोचे अहल्या? आत्मा के कंकाल के वर्णन के लिए भी शब्द होते हैं क्या?

अहल्या दबे पांव लौट पड़ी।

उसे स्वयं ही पता नहीं चला कि यह किस प्रकार लड़खड़ाती और अपने शरीर को धकेलती हुई, उसे अपनी कुटिया तक लाई...कुटिया से कुछ दूर ही उसने शत के जोर-जोर से रोने का स्वर सुन लिया था। वह कुछ चेत गई, और उसकी गति तेज हो गई।

कुटिया में शत अपने बिस्तर पर बैठा हुआ गला और मुंह फाड़कर अपनी पूरी शक्ति से रो रहा था। अहल्या ने आगे बढ़, उसे गोद में उठाकर प्यार किया, ''मत रो मेरे लाल!''

और अहल्या के अपने आंसू शत की पीठ पर जा गिरे।

''तुम दोनों मुझे अकेला छोड़कर, क्यों चले गए?'' शत रोता जा रहा था, ''मुझे अकेले भय लगता है।''

''अब छोड़कर नहीं जाऊंगी मेरे लाल!'' अहल्या ने शत को अपने वक्ष में भींच लिया, ''अब चुप हो जा शतू! मैं तेरे लिए दूध लाई हूं।''

शत का ज्वर रात में उतर गया लगता था। उसे अपने शरीर से चिपकाए हुए, अहल्या ने अनुभव किया, कदाचित् गौतम की दी हुई औषध ने कार्य किया था किंतु ज्वर उतर जाने के बाद की दुर्बलता उसमें थी, अभी दो-चार दिन वह चिड़चिड़ा भी रहेगा, मां-बाप से चिपका-चिपका भी रहेगा।...वैसे पांच वर्षों का शत, पूर्णतः स्वस्थ होने की स्थिति में भी, इतना बड़ा तो नहीं हो गया कि उसे कुटिया में अकेले छोड़कर, उसके माता-पिता विक्षिप्तों के समान इधर-उधर मारे-मारे फिरें, और बच्चा रोए भी नहीं। यदि उन दोनों की मनःस्थिति इसी प्रकार असंतुलित रही तो शत या तो रो-रोकर जान दे देगा, अथवा किसी प्रकार के मानसिक आघात के कारण किसी मानसिक विकृति से ग्रस्त हो जाएगा...।

''मेरे बच्चे!'' अहल्या ने शत को और भी जोर से भींच लिया।

दो-ढाई घंटों के बाद गौतम लौटे।

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    अनुक्रम

  1. प्रधम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. वारह
  24. तेरह

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