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पौराणिक >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2878
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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राम कथा पर आधारित उपन्यास...

दिन-भर गौतम और अहल्या अपने-अपने कामों में लगे रहे और शत इधर-उधर खेलता रहा। आश्रमभंग के बाद, गौतम और अहल्या, दोनों के लिए दैनिक आवश्यकताओं के घरेलू कार्यों का महत्व, पहले से काफी बढ़ गया था। व्यस्तता तो पहले भी बहुत थी, पूरे आश्रम की व्यवस्था और निजी कार्यों को करने के बाद, समय एकदम नहीं बचता था; किंतु उन कार्यों की प्रकृति और थी। अब जो कार्य वे कर रहे थे, उनकी प्रकृति नई थी।

ये कार्य उन्हें एक-दूसरे से विशेष दूर भी नहीं ले गए थे। कुटिया के आस-पास की संक्षिप्त सीमाओं में रहने पर भी उनमें, दिन-भर में अधिक बातचीत नहीं हुई; दोनों ही एक-दूसरे को बचा रहे थे। कहीं ऐसा न हो कि बात आरंभ होकर, अनायाय ही उस क्षेत्र में प्रविष्ट हो जाए, जिसकी ये लोग सायास उपेक्षा कर रहे थे। गौतम उस विषय में बात करना ही नहीं चाहते थे; और अहल्या बातचीत के लिए उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा में थी।

संध्या के भोजन के पश्चात् अहल्या ने शत को सुला दिया।

वे दोनों कुटिया में थे और बीच में तीसरा व्यक्ति कोई नहीं था। इस समय, किसी भी व्याज से, न तो बाहर जाया जा सकता था, न एक-दूसरे को टाला जा सका था। आमना-सामना अनिवार्य था।

"स्वामि, आपने, क्या सोचा?''

"किस विषय में?"

"जनकपुर जाने के विषय में।

गौतम अपनी अवस्था को और नहीं छिपा पाए। खुल पड़े, "प्रिये! ऐसा अत्याचार करने के लिए, तुम कैसे कह सकती हो? मैं अपने स्वार्थ के लिए, यशस्वी होने के लिए अपनी निर्दोष कांता को लांछित कर दूं?। उसका त्याग कर दूं? उसे दुर्बुद्धि, क्रूर समाज के प्रहारों के सम्मुख असहाय और अरक्षित छोड़ दूं? इतना अत्याचार करवाना चाहती हो तुम? तुमने कभी सोचा भी है कि मेरे जाने के पश्चात् तुम्हारी क्या स्थिति होगी?"

अहल्या की आंखें गीली हो गईं, ''गुझे गलत न समझो, गौतम! मैं अत्याचार करने के लिए नहीं कह रही। मैं जानती हूं कि आप मुझे दोषी नहीं मानते। मेरे लिए यही पर्याप्त है। आपने मुझ पर यदि तनिक-सा भी संदेह प्रकट किया होता तो मैं कब की आत्मघात कर चुकी होती।...पर मैं देख रही हूं कि परिस्थितियां ही कुछ ऐसी आ गई हैं कि मुझे अपनी बलि देनी ही होगी। मैं जानती हूं कि आपके और शत के बिना रहना मेरे लिए कितना कठिन होगा। शारीरिक असुरक्षा, असुविधा, मानसिक यातना, भावनात्मक क्लेश-और जाने क्या-क्या सहना पड़े। किंतु स्वयं को इन कष्टों से बचाने के लिए मैं अपने पति और पुत्र का भविष्य तो नष्ट नहीं कर सकती। मुझे इतनी स्वार्थिनी न बनाओ स्वामि! और...और" अहल्या की आंखों में जल के साथ ज्वाला उतरी, ''और गौतम! उस दुष्ट इन्द्र से प्रतिशोध लेने का एक यही मार्ग है...''

''अहल्या।''

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    अनुक्रम

  1. प्रधम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. वारह
  24. तेरह

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