बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 2 युद्ध - भाग 2नरेन्द्र कोहली
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रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....
हनुमान रात्रि के तीसरे प्रहर में लौटे। उन्होंने लौटकर देखा, "उनके प्रस्थान से अब तक के बीच यथास्थिति बनी रही थी। उनकी अनुपस्थिति में राक्षसों का आक्रमण नहीं हुआ था। नए युद्ध का कोई प्रमाण वहां नहीं था; किंतु वानर योद्धा उसी प्रकार थके-हारे, टूटे और हताश मूर्च्छित राम और लक्ष्मण को घेरे हुए बैठे थे। उनके पीछे, समय जैसे रुका रहा था...हनुमान को लौटा हुआ देखकर जाम्बवान के चेहरे पर उल्लास की एक हल्की-सी रेखा उभरी, "कुछ मिला?"
हनुमान ने अपने हाथ में पकड़ा वनस्पति का गट्ठर उनके सामने रख दिया और एक ओर हट कर खड़े हो गए। उनके पीछे आए हुए वानरों की टोली ने भी अपने हाथों में पकड़े गट्ठर हनुमान के ही समान भूमि पर रख दिए।
"तुम तो औषधियों का पर्वत ही उठा लाए।" सुग्रीव बोले, "इतनी वनस्पति इतने कम समय में कैसे उखाड़ लाए?"
इस बीच हनुमान भूमि पर बैठ गए थे। उनका श्वास तेज-तेज चल रहा था। वे बहुत हांफ गए थे। निश्चय ही अपनी यात्रा का एक बड़ा भाग उन्होंने भागते हुए पूरा किया होगा। उनके पीछे बैठे उनके साथी भी बुरी तरह थके हुए लग रहे थे।
"किष्किंधा के बाहर के वनों में ही मुझे आर्य राम के जन-सैनिकों का शिविर मिल गया था।" हनुमान अपने श्वास को नियंत्रित करने का प्रयत्न कर रहे थे, "अनिन्द्य को यहां की स्थिति की सूचना दी तो शेष कार्य का प्रबन्ध उसने करवा दिया। ये साथी भी उसी ने दिए। इन औषधियों की खोज भी उसी ने की...। भागने-दौड़ने का बहुत सारा कार्य शिल्पी ने किया..." हनुमान कुछ रुककर बोले, "अनिन्द्य ने अपने सभी केन्द्र शिविरों और आश्रमों में सूचनाएं भिजवा दी हैं। सम्भव है, प्रातः से पहले ही यहां राम की कुछ जन-वाहिनियां पहुंचती रहेंगी..."
सुग्रीव ने स्नेहविह्वल दृष्टि से हनुमान को देखा, "तुमने तो हनुमान मृत सेना में प्राण डाल दिए।" उन्होंने आगे बढ़कर हनुमान को गले से लगा लिया, "तुम तो सचमुच मृत-संजीवनी लेकर आए हो।" विभीषण से भी नहीं रहा गया। वे भी आगे बढ़कर हनुमान से गले मिले।
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