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युद्ध - भाग 2

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2901
आईएसबीएन :81-8143-197-9

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रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

"कैसा उद्यम?" सुग्रीव ने बड़े कष्ट से अपनी गर्दन घुमाई।

"कल सुषेण कह रहे थे कि हमें मृत संजीवनी, विषल्यकर्णी, सुवर्णकर्णी तथा संधानी नामक औषधियां मंगा लेनी चाहिए।" जाम्बवान धीरे स्वर में बोले, "यदि तुम ये औषधियां यत्किंचित मात्रा में ही सूर्योदय से पूर्व ला सको तो कदाचित् इनके साथ-साथ अन्य योद्धाओं के प्राण भी बच जाएं।"

"पर..।" हनुमान के चेहरे पर चिंता थी।

"पर क्या?" सुग्रीव ने हनुमान को देखा, "और कोई व्यक्ति इस समय सक्षम नहीं है नहीं तो मैं, अंगद या नील में से कोई चला जाता...और संदेश भेजकर दूसरों पर छोड़, अनिश्चित काल तक प्रतीक्षा..." सुग्रीव रुकते-रुकते बोले, "और तुम तो कभी कार्य करने में आनाकानी नहीं करते केसरी कुमार।"

हनुमान के अधरों पर एक उदास मुसकान उभरी, "आनाकानी न कर रख हूं सम्राट...। एक तो यह सोच रहा हूं कि इस अवस्था में आप लोगों को छोड़कर चला जाऊं और पीछे से राक्षसों का आक्रमण हो गया तो? बहुत सम्भव है कि वे इस स्थिति में आक्रमण कर, सरल विजय प्राप्त करना चाहें और...?"

"और क्या?"

'जुन औषधियों की पहचान मुझे नहीं है। फिर कहां खोजूं मैं उन्हें?"

"पीछे की चिंता आप न करें तात हनुमान!" सागदरत्त, विश्वासपूर्ण स्वर में बोला, "हम लोग सैनिक अथवा सेनापति नहीं हैं। हमारे पास शस्त्र भी नहीं हैं। हम राक्षसों से युद्ध नहीं कर सकते; किंतु हम उनके आक्रमण से वानर-योद्धाओं की रक्षा का कवच आपको देते हैं।"

"केसे?" अंगद चकित थे, "कैसे करोगे वानर योद्धाओं की रक्षा?"

"तेजधर के मार्ग पर चलकर!" सागरदत्त गम्भीर स्वर में बोल, "हम राक्षसों के प्राण न ले सकें, तो भी हमें अपने प्राण देने से कोई नहीं रोक सकता। मैंने तेजधर के सहायक सैनिकों को राम तथा लक्ष्मण के शरीर की रक्षा के लिए अपने प्राण देते देखा है। यदि राक्षस आए तो आप विश्वास कीजिए कि आपकी यह वानर प्रजा सहस्रों की संख्या में, पत्थरों और वृक्षों की शाखाओं से लड़ेगी। नखों और दांतों से लड़ेगी। एक-एक जन अपने प्राण देकर भी वानर-योद्धाओं की रक्षा करेगा। आज ये वानर-योद्धा सारी मानवता के लिए एकमात्र आशा के प्रतीक हैं...।"

"तुम इस युवक की बात का भरोसा कर सकते हो हनुमान।" जाम्बवान बोले, "अब तुम शीघ्र जाओ और औषधियां ले आओ। लंका और किष्किंधा के बीच के वनों में तुम्हें ये औषधियां मिल जाएंगी। लक्षण तुम्हें मैं बता देता हूं।"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्ह्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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