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बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 2

युद्ध - भाग 2

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2901
आईएसबीएन :81-8143-197-9

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रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

"उसने बताया है कि जब राक्षस सेनाओं, व्यापारियों अथवा लंका के मछली पकड़ने वाले जलपोतों का आवागमन सागर में बहुत बढ़ जाता है और उसके यूथ के लिए अपनी डोंगियां सागर में ले जाना भी असंभव हो जाता है तो वे लोग यहां से कुछ योजन की दूरी पर छोटी पहाड़ियों, शिलाओं और घाटों से घिरे एक स्थान पर चले जाते हैं सागर का वह क्षेत्र ऐसा है, जहां आज तक किसी का कोई जलपोत अथवा बड़ी नौका नहीं पहुंची।"

"तो?"

"उसका कहना है कि उस क्षेत्र का जल शांत और सोया हुआ है। वहां जलमग्न शिलाएं भी बहुत हैं। उनका विचार है कि वस्तुतः वह क्षेत्र वास्तविक सागर न होकर खाड़ी का जल है, जो किसी समय सागर की उथल-पुथल के कारण उफन कर उधर चला आया है। उसे वे 'स्तिया' कहते हैं, जिसका अर्थ है अप्रवाही जल।"

राम की दृष्टि लक्ष्मण से हट कर नल की ओर चली गई। वह आंखें फाड़े तथा मुख खोले, लक्ष्मण के मुख से निकला हुआ एक-एक शब्द ऐसे सुन रहा था, जैसे बहुत महत्त्व का कोई असाधारण समाचार सुन रहा हो। इस व्यक्ति सागर-आकर्षण भी अद्भुत था...

"सागरदत्त का प्रस्ताव क्या है?" राम ने पूछा।

"उसका प्रस्ताव है कि उसके यूथ की डोंगियों की सहायता से, उस स्थान से हमारी सेना सागर-संतरण करें।"

"उसकी कल्पना में ही यह नहीं समा सकता कि हमारी सेना कितनी बड़ी है।" राम धीरे से बोले, "फिर जहां पानी गहरा नहीं है, जलमग्न शिलाएं हैं, अन्य लोगों द्वारा उसे असुरक्षित स्थान माना जा रहा है-वहां से अपनी सेना को सागर पार कराना उचित है क्या?"

"रक्षपति विभीषण!" नल ने पूछा, "क्या ऐसा कोई स्थान है?"

"मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता।" विभीषण बोले, "कि यह कौन-सा स्थान है और उसके विषय में सागरदत्त के ये निष्कर्ष कितने वास्तविक हैं; किंतु इतना अवश्य जानता हूं। कि ऐसे कुछ स्थान अवश्य हैं, जिन्हें राक्षस नाविकों ने परिवहन के सर्वथा अयोग्य माना है। वहां राक्षस सेना की न चौकियां हैं, न जलपत्तन। वहां आजीविका का कोई साधन नहीं है। इसी से वे क्षेत्र निर्जन हैं। संभव है कि सागरदत्त ऐसे ही किसी स्थान के विषय में कह रहा हो।"

"कहीं यह वही स्थान तो नहीं, जहां से मैंने सागर पार किया था?" हनुमान ने पूछा; और फिर स्वयं ही बोले, "यदि यह वही स्थान है तो इतना मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि उनमें जलमग्न पर्वत अवश्य थे, कहीं-कहीं जल उथला और ठहरा हुआ भी था; किंतु वह वास्तविक सागर था-वह सागर से उफनकर किसी स्थान पर ठहर जाने वाला अप्रवाही जल नहीं हो सकता।"

"आर्य राम!" नल बोला, "यदि आपकी अनुमति हो तो मैं, हनुमान और सागरदत्त उस स्थान का निरीक्षण कर लें।"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्ह्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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