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युद्ध - भाग 2

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2901
आईएसबीएन :81-8143-197-9

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रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

"मुझे तुम्हारी सागर; रुचि पर विस्मय होता है नल!" राम मुस्कराए, "निरीक्षण में मुझे क्या आपत्ति हो सकती है; किंतु यदि स्थितियां वे ही निकलीं, जो सागरदत्त कह रहा है, तो वहां से अपनी सेना के सागर-संतरण के पक्ष में मैं नहीं हूं।"

नल और हनुमान सागरदत्त के साथ निरीक्षण के लिए विदा हो गए तो सुग्रीव पहली बार बोले, "द्रुमकुल्यों अथवा वैसे भी जलदस्युओं के विषय में क्या सोचा है राम?"

"सोचना क्या है मित्र!" राम का स्वर शांत था, जो युद्ध करने आएगा, उससे युद्ध किया जाएगा। उन जलदस्युओं को भी रावण की सेना का ही अंग मान लिया जाए।" राम तनिक रुककर बोले, "सागर के निकटतम शिविरों में धनुर्धरों की टोलियां अवश्य रख लो और उन्हें सावधान कर दो।"

सुग्रीव चले गए तो उदास मन विभीषण ने भी विदा ली। अपने शिविर में राम और लक्ष्मण अकेले रह गए। राम ने स्निग्ध दृष्टि से लक्षण की ओर देखा : लक्ष्मण के चांचल्य और वाक्-पटुता का भी सीता-अपहरण के साथ ही हरण हो गया था। इस सारे युद्ध-उद्यम ने जैसे लक्ष्मण को अपने वय से बड़ा कर दिया था-उनकी प्रकृति को पहले से अधिक गंभीर और जुझारू बना दिया था। उनके जीवन का रस जैसे सूख गया था; आग ही आग रह गई थी...चेहरे पर पहले जैसी खेलती ललित मुस्कान का स्थान एक प्रकार की गंभीर रूक्षता ने ले लिया था।

"क्या सोचा है भैया?"

"किस विषय में सौमित्र?"

"सागर-संतरण के विषय में।"

राम की चिंता पुनः उभर आई, "आज दूसरा दिन व्यतीत हो रहा है, सागर तट पर भटकते हुए। कोई मार्ग नहीं मिल रहा। वस्तुतः ऋष्यमूक से प्रस्थान के समय कदाचित् मेरे मन में भी सागर की विराटता का रूप स्पष्ट नहीं था। जैसे-जैसे सागर तट पर भटकता फिरा हूं-यह समस्या और जटिल होती जा रही हे। सोचा था, शायद विभीषण के पास इसका कोई समाधान हो; किंतु वे भी पूर्णतः निरुपाय हो गए दीखते हैं।' राम ने रुककर लक्ष्मण को देखा, "वस्तुतः इसमें दोष किसी का नहीं है सौमित्र! हम क्यों यह मानकर चले आये कि हमारी सेना को सागरपार उतारने के लिए राक्षस अपने जलपोत हमें दे जाएंगे?...संभवतः कोई और हमारी सहायता कर भी देता, यदि कुछ ही लोगों को पार जाना होता। जब इतनी बड़ी सेना को इतने विस्तृत सागर से पार उतारना है तो उसके लिए उतना ही महान् उपक्रम भी करना होगा। वह उपक्रम कैसा हो-अभी सोच नहीं पाता हूं, किंतु साधारण ढंग से यह कार्य नहीं होगा, इतना जानता हूं।"

लक्ष्मण चुपचाप बैठै, राम के चेहरे को पढ़ने का प्रयत्न करते रहे। फिर धीरे से बोले, "आप निराश तो नहीं हो रहे?"

राम हंस पड़े, "तुम्हें निराश दिखता हूं?"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्ह्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

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