बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 2 युद्ध - भाग 2नरेन्द्र कोहली
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रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....
"मैं भी यही चाह रहा था भद्र राम।" नल बीच में बोला।
"तुम्हारे ही प्रस्ताव से मेरे मन में यह योजना आई है मित्र।" राम का स्वर अपेक्षाकृत शान्त था, "किंतु तुम एक जलपोत डुबोना चाहते थे। मैं छः के छः डुबो रहा हूं। अब स्वयं को सुरक्षित रख युद्ध करने का समय नहीं रहा। अब पीछे हटने और लौटने की बात मन में मत रखो। राम इस सागर को पार करके ही रहेगा।"
राम ने अपनी दृष्टि उपस्थित लोगों पर डाली, "किसी को कोई आपत्ति हो तो कहे।"
लगा, राम की आंखों ने सबको बांध लिया है। उन आंखों की दृढ़ता ने सबमें आत्मबल जगा दिया है। असहमति का स्वर कहीं से नहीं उठा।
"आपत्ति की कोई बात नहीं है।" सबसे पहले हनुमान बोले, "और सत्य यह है कि अब लौटने का कोई अवकाश भी नहीं है।"
"लौटने की आवश्यकता भी नहीं है।" नल ने कहा, "मुझे पूरा विश्वास है कि हम अपने कार्य में सफल होंगे और सागर से अपने लिए मार्ग छीन लेंगे।"
नील की आंखें अपने भाई के चेहरे पर कुछ ढूंढ़ रही थीं : निश्चित रूप से नल के चेहरे पर ऐसा भाव उसने पहले कभी नहीं देखा था। नल के चेहरे पर दायित्व का बोझ नहीं था, चिंता नहीं थी, सफलता-असफलता का द्वंद्व नहीं था। उसे देखकर लगता था जैसे उसका जीवन भर का कोई स्वप्न पूरा हो रहा है। आज जैसे वह पूर्ण काम हो रहा था...। अवश्य ही उसके मन में कोई निश्चित योजना थी...
"यदि आप सब सहमत हैं," राम पुनः बोले, "तो इस योजना को पूर्णतः त्रुटिहीन बनाने के लिए एक कार्य और करना चाहता हूं।"
सबने राम की ओर देखा।
"लंकापति विभीषण!" राम का स्वर तेजपूर्ण और स्थिर था, "आप राक्षस-व्यापारियों की नगरी में जाकर अपने नाविकों की सहायता से उनके सारे जलपोत ले आइए। उनसे स्पष्ट कह दीजिए कि हम उनके जलपोतों में शिलाएं डालकर उन्हें सागर में डुबो देंगे। उनके सारे जलपोत नष्ट होंगे। इस युद्ध के लिए उन्हें यह मूल्य देना होगा। और यदि कोई आनाकानी करे..." राम के स्वर में वज्रपात की-सी कड़क थी, "तो उन्हें राम के धनुष का स्मरण करा दीजिएगा। उन्हें कह दीजिएगा कि राम धनुष ताने बैठा है। सागर-संतरण के मार्ग में रत्ती मात्र भी विघ्न उत्पन्न करने वाले पर राम का बाण, मृत्यु का दूत बनकर टूटेगा।"
विभीषण ने स्तब्ध दृष्टि से राम को देखा : निश्चित रूप से राम जो कह रहे थे, उसे पूरा करने में तनिक भी पीछे नहीं हटेंगे।
"आपकी इच्छा पूर्ण हो राम!" विभीषण ने कहा और तत्काल अपने मंत्रियों के साथ प्रस्थान किया।
बात की बात में आदेश प्रचारित हो गए। सेना का स्वरूप बदल गया। यूथपतियों के अधीन रक्षक तथा प्रहरी टुकड़ियों के सिवाय, सारी सेना पहाड़ियों, शिलाओं तथा वृक्षों से युद्ध करने को तत्पर हो गईं। मार्ग प्रशस्त करने वाली टुकड़ियों के हथौड़े, कुल्हाड़े, फावड़े, सब्बल, गहंते तथा आरे-बाणों और खड्गों के समान चलने लगे। उपकरण उतनी संख्या में नहीं थे, जितनी संख्या में उनकी आवश्यकता थी। इसीलिए एक एक उपकरण पर चार-चार व्यक्ति काम कर रहे थे। एक, हथौड़ा चलाता तो शेष तीन पत्थरों को ढोने का काम करते हैं। जब हथौड़ा चलाने वाला थक जाता, तो दूसरा व्यक्ति हथौड़ा पकड़ लेता और पहला व्यक्ति पत्थर ढोने का कार्य करने लगता...।
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