बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 2 युद्ध - भाग 2नरेन्द्र कोहली
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रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....
सागरतट पर पड़ाव डालने के पहले ही दिन जो लोग सेना में सम्मिलित होने की इच्छा से आए थे, उन सहायक सैनिकों को भी संदेश भिजवा दिया गया था। वे लोग अपने गांव के गांव को लेकर अपने हथौड़ों और फावड़ों के साथ वानर-सेना की सहायता को आए थे। सेना का रूप युद्धक सेना का न रहकर श्रमिक सेना का हो गया था, जो अपना मार्ग बनाने के लिए अपने शस्त्रों से प्रकृति के विरुद्ध युद्ध कर रही थी।
अंधकार हो जाने पर भी काम रुका नहीं। स्थान-स्थान पर अग्निकाष्ठ और उल्काएं जला ली गईं। लोग बारी-बारी भोजन, विश्राम और काम कर रहे थे। इससे काम की गति अवश्य कुछ धीमी हो गई थी; किंतु न तो लोगों का उत्साह कम हुआ लगता था और न कार्य-शैथिल्य दिखाई पड़ता था। आधी रात के लगभग जब विभीषण लौटे तो शिलाओं, पत्थरों, वृक्षों की शाखाओं से लदे चार जलपोतों की पहली खेप लेकर जाने के लिए राम, लक्ष्मण, नल तथा सागरदत्त तैयार थे। हनुमान को भी साथ जाने की बहुत इच्छा थी, किंतु राम ने उन्हें पीछे की देख-भाल के काम सौंप दिए थे।
"आपका और सौमित्र का जाना भी आवश्यक नहीं है राम!" सुग्रीव कह रहे थे, "नल को सागरदत्त के साथ जाने दीजिए।"
"मैं तुम्हारी बात समझता हूं मित्र!" राम मुस्कराए, "किंतु जोखिम का काम दूसरों को सौंपकर मैं यहां सुरक्षित बैठा रहना नहीं चाहता। इससे मेरे साथियों पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा।"
"व्यापारियों के जलपोत हमारे जलपत्तन में आ गए हैं आर्य राम!" विभीषण ने सूचना दी।
"कितने हैं?"
"बीस।"
"ठीक!" राम चिंतन की मुद्रा में थे, "उन्होंने आपत्ति भी नहीं की?"
"आपत्तियां तो उन्हें बहुत थीं। अंत में बाध्य होकर जलपोत देने को तैयार हुए तो अपने मनोनुकूल शुल्क की मांग भी उन्होंने की। विभीषण हंसे, "किंतु राम के धनुष और बाणों की चर्चा ने उनके कस-वल ढीले कर दिए।"
"दूसरा कोई उपाय नहीं था।" राम बोले, "...अच्छा! अब तुम लोग पीछे का काम संभालो। मैं पहली खेप के साथ जा रहा हूं। मेरा विचार है कि सफलता अथवा असफलता का आभास इसी खेप के साथ मिल जाएगा।"
राम को इस प्रकार जाते देख, सुग्रीव और विभीषण दोनों का ही उत्साह कुछ मन्द होता लगा; किंतु राम को रोकना संभव नहीं था।
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