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छोटे छोटे दुःख

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :254
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2906
आईएसबीएन :9788181432803

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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....

यह कैसा बंधन?


'जाय-जाय दिन' के संपादक, शफीक रहमान, अपने अख़बार में किसी भी रचना या विवाद-प्रतियोगिता में औरतों की भागीदारी निषिद्ध करने की सोच रहे हैं! पाठक ज़रूर ताज्जुब कर रहे होंगे कि औरत मर्द की समता में विश्वासी कोई आधुनिक शख्स, इस किस्म का बर्बर फैसला ले सकता है।

मुझे भी ताज्जुब हुआ!

मैंने रूढ़ आवाज़ में जवाब तलब किया, “ऐसा फैसला लेने की वजह?"

उन्होंने जवाब दिया, "जिस पुरस्कृत प्रतियोगी को आज मिस्र रवाना होना चाहिए था, उसका जाना नहीं हो पाया। वह इसलिए नहीं जा रही है, क्योंकि उसे जाने नहीं दिया जा रहा है।"

पाठक भूले नहीं होंगे कि पिछली दिसम्बर में 'जाय-जाय दिन' ने एक अंतर्राष्ट्रीय मुकाबला आयोजित किया था। मिस्र सरकार की एक संस्था ने अपने देश में ढाई हज़ार साल के लोकतंत्र पूर्ति समारोह के उपलक्ष्य में 'कमिटि फॉर डेमोक्रेसी 2500' के नाम से दुनिया के पंद्रह अख़बारों के जरिए 'लोकतंत्र लाये हैं, कायम रखेंगे।' शीर्षक प्रतियोगिता का आयोजन किया था! उसमें विजेता को मिस्र जाने-आने का टिकट और बारह दिन मिस्र की सैर का पुरस्कार देने का ऐलान किया गया था। बेशक, यह पुरस्कार बेहद आकर्षक था। मिस्र का राष्ट्रीय मेहमान बनने का सम्मान फट् से नसीब नहीं होता। 'जाय-जाय दिन' अख़बार के माध्यम से इस मुकाबले का नतीजा घोषित किया गया। अस्मिता अफसर नामक एक औरत विजयिनी हुई थी। थ्री चीयर्स फॉर अस्मिता!

लेकिन अस्मिता थ्री चीयर्स का मान नहीं रख पाई। यह उसके वश की बात नहीं थी या इसका मान उसे रखने नहीं दिया गया। आज पहली जुलाई को उसे मिस्र रवाना हो जाना चाहिए था। लेकिन वह नहीं जा रही है! वह नहीं जा रही है, यह इत्तला भी नहीं दे पा रही है! 'जाय-जाय दिन' की तरफ से उसे खत भेजा गया कि वह आकर टिकट ले जाए। अस्मिता ने उस ख़त का कोई जवाब नहीं दिया जवाब दे ही नहीं सकी। उसके घर आदमी भेजा गया। इसके बावजूद अस्मिता ने संपर्क नहीं किया! संपर्क करना उसके लिए संभव ही नहीं हुआ। बार-बार ख़बर भेजने के बावजूद अस्मिता निरुत्तर! जिस औरत ने मुकाबले में हिस्सा लिया, उसकी ऐसी मंशा कतई नहीं थी कि वह मिस्र नहीं जाएगी। वह भला क्यों नहीं जाना चाहेगी? उसने अपनी प्रतिभा के दम पर मिस्र का सरकारी आमंत्रण हासिल किया है। किसी ने उस पर दया करके वहाँ की टिकट नहीं दी। उसके न जाने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए थी।

पिछली बारह अप्रैल को अस्मिता का विवाह हो गया। विवाह होने के बाद उसने मिस्र के प्रसंग में जुबान ही नहीं खोली? हमारा अंदाज़ा है कि उसके पति ने उसे रोक लिया है। इसके अलावा, मिस्र सफर का आमंत्रण उछाल फेंकने की और क्या वजह हो सकती है? इसके अलावा और कौन-सी भयंकर घटना उसके जीवन में घट सकती है कि अपनी मुट्ठी में आया हुआ इनाम, वह कूड़ेदान में फेंक दे? हम औरतें समझती हैं। हम लोग जो इस देश के पुरुषतांत्रिक समाज व्यवस्था की शिकार हैं, यह अंदाज़ा बखूबी लगा सकती हैं कि अस्मिता के पति ने अस्मिता को घर में कैद कर रखा है। यह कहकर कि तुम मेरे खींचे हुए दायरे के बाहर नहीं जा सकतीं-यह कहकर वह अपने पति होने का रौब जमा रहा है। अस्मिता अपने पति के ऑर्डर का पालन कर रही है। सुना है, उसका पति जैसोर जिला का सब-जज है! अगर वह अपनी बीवी को घर से बाहर न निकलने दे, तो किसकी मजाल है कि उसे बाहर निकाल पाए? वे अपनी बीवी को कमरे में बंद करके मारे-पीटे, किसकी मजाल है कि उसमें रुकावट डाले? अस्मिता की मजाल नहीं है कि वह मिस्र जाए। उसमें इतनी हिम्मत नहीं है कि वह पति-परमेश्वर के हुक्म की उपेक्षा करके, अपना अर्जित पुरस्कार ग्रहण करने चल पड़े, क्योंकि समाज में टिके रहने के लिए उसे 'शरीफ औरत' बनना होगा! शरीफ औरतें पति की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करतीं। पति जो कहता है वही सुनती हैं। पति जो हाथ उठाकर देता है वही खाती हैं। नाते-रिश्तेदार भी यही सीख देते हैं कि पति की आज्ञा मानो, पड़ोसी शिक्षा देते हैं कि पति की बात सुनो। पति के अलावा कोई भी गति नहीं; पति के अलावा औरत का और कोई आश्रय नहीं है। अस्मिता को भी मिस्र जाने की तुलना में पति का आश्रय ज़रूरी लगा। फिलहाल यही हमारी व्याख्या है।

पति के हाथों रची हुई चारदीवारी पत्नी आखिर क्यों कबूल करे? अस्मिता एक ग्रेजुएट लड़की है। उसे चारदीवारी में कैद होकर क्यों मरना पड़ेगा? जिस लड़की ने निबंध लिखा- 'लोकतंत्र लाए हैं, कायम रखेंगे' और उसने पहला स्थान प्राप्त किया, वह लड़की दुनिया की यह मनमानी आखिर क्यों कबूल करे? वह औरत समाज के अ-गणतांत्रिक आचार आखिर क्यों मंजूर करे? सुना है, इस लड़की ने और भी कई सारे निबंध लिखे हैं और इनाम भी जीते हैं; वाद-विवाद प्रतियोगिता भी जीती है, लेकिन यह सब विवाह के पहले की बात है। विवाह के बाद ज़रूर उसका लिखना-लिखाना संभव नहीं होगा। अब वह वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भी हिस्सा नहीं ले सकेगी। जिस जुबान पर इतने-इतने तर्क हुआ करते थे, वही जुबान अचल क्यों हो जाएगी, मेरा यही सवाल है! अगर वह पति के असभ्य आचरण का विरोध करे, तो क्या होगा? गृहस्थी नहीं टिकेगी, यही न? जो शख्स किसी प्रतिभावान लडकी के सपने अपने पतित्व की आग में जलाकर फूंक सकता है, जो शख्स किसी संभावना का चरम अपमान कर सकता है, उसके साथ अपनी गृहस्थी टिकाये रखकर, अस्मिता को आखिर क्या फायदा होगा? स्वस्थ-शिक्षित औरतें ऐसी गृहस्थी क्यों टिकाये रखना चाहती हैं?

अस्मिता के लिए मुझे अफसोस होता है। घर से निकल न पाने वाली उस अभागी औरत पर मुझे तरस आ रहा है। मुझे मालूम है अकेली अस्मिता ही नहीं, ऐसी सैकड़ों-हजारों अस्मिताएँ घर-घर में कैद हैं। वे लोग अपनी समूची मेधा, प्रतिभा, पति की हिंसा के जल में विसर्जित करके, 'लक्ष्मी-बहू' सजी होती हैं। पुरुष का आदेश मानकर, उनका गुलाम होने से क्या फायदा? औरतें क्या जातियों की जात है?

वही सब-जज साहब अपनी बीवी की यात्रा भंग करके इस वक्त कैसी क्रूर हँसी हँस रहा होगा। पाठक अंदाज़ा लगा सकते हैं। अगर अपनी बीवी की आज़ादी के प्रति उसकी यह नाइन्साफी है, तो उसे अन्य लोगों के इंसाफ की जिम्मेदारी वह भी अदालत में, भला कैसे मिल गई है? उसके जरिए यह देश क्या किसी समानता की उम्मीद कर सकता है?

और धन्य है अस्मिता! धन्य हैं हमारी पढ़ी-लिखी लड़कियाँ, जो बिना समझे-बूझे, पुरुष के पुरुषत्व की हुंकार क्यों कबूल कर लेती हैं? (मुझे पिशाच के हुंकार से कहीं ज़्यादा मर्द का हुंकार भयंकर लगता है)

मुझे उन मर्दो से सख्त नफरत है, जो औरत को धर्म और रीति-रिवाज का वास्ता देकर, उन पर जुल्म करते हैं; पैरों में बेड़ियाँ पहनाते हैं लेकिन मैं उन नकारा-अपाहिज औरतों से भी कम नफरत नहीं करती, जो अपनी जिंदगी में मर्दो की बर्बरता कबूल कर लेती हैं, अपने पैरों में पड़ी बेड़ियों को ही अपना कल्याण मान लेती हैं। वही औरत सबसे ज़्यादा अपनी इन्सानियत का अपमान करती हैं, जो अपना सम्मान, दूसरों के पास रेहन रख देती हैं या बेच देती हैं।

अस्मिता से नफरत करने को लाचार हूँ मैं! जो पति मिस्र जाने की उसकी टिकट फाड़ सकता है, जो औरत उस पति का निकाहनामा फाड़कर नहीं फेंक सकती, उससे नफरत करने में मुझे ज़रा भी झिझक नहीं है। जो औरत इस तुच्छ निकाहनामे के आगे अपनी हार कबूल करती है, वह अपना तो सर्वनाश करती ही है। दूसरी-दूसरी हजारों औरतों का भी सर्वनाश करती है। पाठको, मिस्र की टिकट कोई बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है आज़ादी! मूल बात है, अपनी आज़ादी, अपने अधिकार की रक्षा!

मुझे मालूम है, औरत कतई सुरक्षित नहीं है। मुँह बाए अजगर, उसके पाँवों से लिपटे होते हैं। लेकिन इन्हीं सबमें उसे राह निकालना होगी; इन्ही स दंश सहकर भी आगे बढ़ना होगा...सामने बढ़ना होगा। अँधेरा पार कर लेने के बाद, कौन कहता है कि सामने अबाध रोशनी से जगमगाती दुनिया नहीं होगी? उस दुनिया को पाने के लिए तमाम अस्मिताएँ अगर आज भी तैयार न हों, तो कब तैयार होंगी? दिन क्या किसी की उम्मीद में बैठा रहता है? औरत के पैरों में बेड़ियाँ पहनाना जितना आसान है, वक्त के पाँवों में जंजीर पहनाना, उतना आसान नहीं है। इसलिए जितना-जितना वक्त गुजरता जा रहा है, जज-सव-जज मर्दो के हाथों अपने को बंधक न रखकर अभी भी वक्त है, तमाम अस्मिताओं को अभी भी बेड़ियाँ तोड़कर निकल आना चाहिए।

पाठको आइए, निर्बोध अस्मिताओं के लिए हम अपने भरोसे के हाथ उनकी तरफ बढ़ा दें।



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    अनुक्रम

  1. आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
  2. मर्द का लीला-खेल
  3. सेवक की अपूर्व सेवा
  4. मुनीर, खूकू और अन्यान्य
  5. केबिन क्रू के बारे में
  6. तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
  7. उत्तराधिकार-1
  8. उत्तराधिकार-2
  9. अधिकार-अनधिकार
  10. औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
  11. मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
  12. कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
  13. इंतज़ार
  14. यह कैसा बंधन?
  15. औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
  16. बलात्कार की सजा उम्र-कैद
  17. जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
  18. औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
  19. कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
  20. आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
  21. फतवाबाज़ों का गिरोह
  22. विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
  23. इधर-उधर की बात
  24. यह देश गुलाम आयम का देश है
  25. धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
  26. औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
  27. सतीत्व पर पहरा
  28. मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
  29. अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
  30. एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
  31. विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
  32. इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
  33. फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
  34. फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
  35. कंजेनिटल एनोमॅली
  36. समालोचना के आमने-सामने
  37. लज्जा और अन्यान्य
  38. अवज्ञा
  39. थोड़ा-बहुत
  40. मेरी दुखियारी वर्णमाला
  41. मनी, मिसाइल, मीडिया
  42. मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
  43. संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
  44. कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
  45. सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
  46. 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
  47. मिचलाहट
  48. मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
  49. यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
  50. मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
  51. पश्चिम का प्रेम
  52. पूर्व का प्रेम
  53. पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
  54. और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
  55. जिसका खो गया सारा घर-द्वार

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