लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
इंतज़ार
तीन अदद मजदूरिनें, किसी पेड़ की छाँह तले बैठी हुई, दोपहर का खाना खा रही थीं। खाना खाने के बाद उन्हें दबारा काम में उतरना पडेगा। वे लोग सबह आठ बजे आती थीं, शाम को छः बजे वापस लौटती थीं। वे लोग सिर पर आँचल नहीं ' रखती थीं; पाँचों वक्त नमाज़ भी नहीं पढ़ती थीं; रोजा भी नहीं रखती थीं, क्योंकि उन्हें काम करना पड़ता था; सिर पर सीमेंट बालू की टोकरी उठाए, राजमिस्त्री तक पहुँचाना होता था। कर्मठ लोगों के पास फिजूल आलस्य करने या धर्म-चर्चा की फुर्सत नहीं होती। दिनभर की मेहनत के बदले में उन्हें प्रति मजदूर पैंतीस रुपए मिलते , हैं। उन रुपयों से चावल-दाल खरीदकर, अपने नकारा या आलसी पति और बाल-बच्चों - का पेट भरती हैं! वे लोग पेट भर खाते हैं और सो जाते हैं! बेचारी मजदूरिनें आधा पेट खाती हैं और अगले दिन सुबह-सवेरे, दुबारा काम पर जाने के लिए तैयार हो जाती हैं।
खैर, यह तो नियम ही है! इंसान बनकर जन्म लिया है, तो कोई अलौकिक शक्ति तो उन्हें खिलाने पहनाने की जिम्मेदारी लेगी नहीं, अपना इंतज़ाम खुद करना पड़ता है। इस तीसरी दुनिया में दरिद्र-पीड़ित समाज में औरतें घर की शोभा बनी, घर में ही बैठी रहती हैं; तन बदन की चर्बी और आलस्य को प्रश्रय देकर, मर्द को तुष्ट और तृप्त करती हैं; बदले में उन औरतों को खाने के लिए आहार और पहनने के कपड़े नसीब होते हैं। जब चारों तरफ यही बदहाली है, तब जो औरतें अपना पसीना बहाकर, चिलचिलाती धूप में तपकर, बरखा में भीगकर, थोड़ी-बहुत कमाई करती हैं. उनके आगे सिर झकाकर श्रद्धा अर्पित करने को. भले और लोग राजी न हों, मैं तैयार हूँ! लेकिन उनको श्रद्धा अर्पित करते हुए, मेरी आँखें जो दृश्य देखती हैं, मैं उससे आहत होती हूँ। इतनी-इतनी विषमता देखकर मेरा दिल टुकड़े-टुकड़े हो जाता है। मजदूर एक जैसा ही काम करते हैं, बल्कि ज़रा ज़्यादा ही फुर्सत के बल जीते हैं, बार-बार बीड़ी फूंकने की छुट्टी लेते हैं, इसके बावजूद वे लोग पैंतीस रुपए से ज़्यादा की मजदूरी हथिया लेते हैं। बहरहाल, मजदूरिनों को इस पर भी खास क्षोभ नहीं होता, क्योंकि उन लोगों ने इस फर्क को कबूल कर लिया है। यह फर्क तो वे लोग जन्म से ही देखती आ रही हैं। जिस पति को अपने हाथों से निवाले तोड़-तोड़कर खिलाना होता है, उसके मुक्के-घूसे भी अपनी पीठ पर वरण करना होता है। जिन औरतों को यह विषमता हर दिन ही बर्दाश्त करना होती है उनके मन में यह शिकायत कभी नहीं जागती कि उन लोगों को कुल्लमकुल पैंतीस रुपए ही क्यों मिलते हैं और मर्द-मजदूरों को पचास रुपए क्यों मिलते हैं! जिस तरह वे लोग घर से, बेआवाज़ लात-झाड़ खाती हैं उसी तरह बाहर भी अपेक्षाकृत ज़्यादा मेहनत करते हुए, कम मजदूरी की मार खाती रहती हैं।
जो औरतें मिट्टी खोदती हैं, ईंट तोड़ती हैं, बोझा ढोती हैं-सिर्फ उन्हें ही कम मजदूरी मिलती है, ऐसी बात नहीं है, गार्मेंट्स में भी औरतों को मर्यों की तुलना में, कम ही पैसे मिलते हैं। दिन भर में दो सौ शर्ट सिलाई करने वाली औरत को पगार मिलता है, नौ सौ रुपए, जबकि मर्द को दिन भर में नब्बे शर्ट सीकर पूरे बारह सौ रुपए मिलते हैं! क्या लगता है, इस फर्क की आखिर क्या वजह हो सकती है? मर्द-मजदूर क्या ज़्यादा वक्त देते हैं या काम ज़्यादा करते हैं या उनका काम ज़्यादा 'हाइ स्टैंडर्ड' का होता है? अगर इनमें से कोई भी बात सच नहीं है तो यह मान लेना होगा कि मर्द के पास जो 'गुप्तांग' है, समाज में उसी का मोल सबसे ज़्यादा है! चूँकि उन लोगों के पास पुरुषांग मौजूद है, इसलिए औरत के बराबर या उससे कम मेहनत या काम के बावजूद उन लोगों को ज़्यादा भजदूरी मिलती है। पुरुषांग की पूजा करना, इंसान का पुराना स्वभाव है चूँकि आदमी अपना यह स्वभाव छोड़ नहीं पाता, शायद इसलिए वह तरह-तरह की चालाकी और मक्कारी से, मजदूरी में इतना लंबा-चौड़ा फर्क बहाल रखता है! यह भी तो एक किस्म की पूजा ही है।
औरत तो जिंदगी भर मार खाती आई है इसलिए वह घर की दहलीज से बाहर निकलकर दो पैसों का मुँह देखती है और सारा कुछ भुलाकर, जी भरकर हँसती-खिलखिलाती है। वे लोग जो लूटी जा रही हैं अपने प्राप्य से वंचित हैं यह जान-समझकर भी वे लोग जुबान नहीं खोलतीं। मानो यह संब कहने-सुनने की सख्त मनाही है। उन लोगों ने अगर ऐसी बात जुबान से निकाली, तो उन्हें दुबारा अंदर महल में धकेल दिया जाएगा और घर की चारदीवारी में कैद, अपष्टि झेलते-झेलते, किसी दिन वे लोग दम तोड़ देंगी। इसलिए वे औरतें जुबान पर ताला जड़े रहती हैं, विरोध का नाम तक नहीं लेतीं।
लेकिन यह सब अनाचार कितने दिनों तक चलता रहेगा? आखिर कितने दिनों समाज के धुरन्धर मर्द, औरतों से कमर-तोड़ मेहनत कराएँगी और उसका कोई मोल भी नहीं देंगे! समाज में तो उठने-बैठने लच्छेदार बातों की बरसात होती रहती है। राजनीतिक मंच पर साफ-सफेद कपड़े पहनकर लोग-बाग अच्छी-अच्छी बातों की फलझड़ियाँ बिखेरते रहते हैं; अखबार और पत्र-पत्रिकाओं, टी.वी. रेडियो में भली-भाँति बातें लिखी-कही जाती हैं-किस-किस तरह से इंसान का भला होगा? देश की उन्नति कैसे होगी? दिन पर दिन चिंतकों की माथे पर सलवटें पड़ी रहती हैं। लेकिन उन लोगों की आँखों के सामने ही, यह जो एक वर्ग को पैंतीस रुपए मिलते हैं, दूसरे वर्ग को पचास रुपए मिलते हैं, इस समस्या के बारे में किसी की भी जुबान नहीं फूटती। या यह कोई समस्या ही नहीं है? चूंकि यह औरतों की समस्या है। इसलिए इसे समस्या समझना ही नहीं चाहिए? सच तो यह है कि इस समाज में औरत की समस्या, समस्या ही नहीं समझी जाती। लोग-वाग तो यही सोचते हैं कि औरत सर्व-सहनशील माटी की तरह होती है, वे लोग सव कुछ सहन कर सकती हैं।
सब कुछ सह जाना संभव है, यह बात ठीक नहीं है। यही बात जब बर्दाश्त बाहर हो जाती है, तो कितनी ही औरतें जहर खा लेती है; फॉसी चढ़ जाती हैं। बदन पर किरासिन उँडेलकर आग लगा लेती हैं। लेकिन ऐसा भी तो हो सकता है कि बात जब बर्दाश्त-बाहर हो जाए. तो अपने को आग लगाने के बजाय कहीं और आग लगाकर, फॅक-ताप डालें। किसी विषमता या बेडियों को आग लगा दें। तब? तब क्या होगा?
तभी तो विषमता मिटेगी! जब हज़ारों-हजारों औरत की छाती में बारूद का ढेर भरा है, तो एक बार उकसाने भर की देर है! दुनिया में जब चढ़ती धूप का आलम है, तो एक बार तो अपने ताप-संताप में औरत की नींद टूटनी ही चाहिए। मैं उसी दिन के इंतजार में हूँ, जिस दिन औरत, इंसान-इंसान के बीच पैंतीस-पचास का फर्क मिटा देगी। हाँ, मैं उसी दिन की राह देख रही हूँ, जब औरत, किसी भी क्रूर-निष्ठुर मर्द को मन ही मन भी कभी माफ नहीं करेगी। मैं उस दिन की बाट जोह रही हूँ, जिस दिन औरत अपने हक की प्राप्ति का कौड़ी-कौड़ी हिसाब लेगी। वह किसी भी दरार या चकमे को कभी माफ नहीं करेगी। मेरे पाठको, वह दिन क्या बहुत दूर है?
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