लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
रोटी कपड़ा और मकान-ये तीन शब्द एक साथ ही जुवान से निकलते हैं, क्योंकि शरीफ इंसान के लिए सबसे पहले यही तीनों चीजें ज़रूरी हैं। सिर्फ अन्न से काम नहीं चलता, सिर्फ मकान होने से भी बात नहीं बनती, कपड़ों की भी ज़रूरत होती है। इस देश में कुछेक लोग अपने शरीफ होने का दावा करते हैं जबकि उन्हीं के दरवाजे पर नंग-धडंग बच्चे-बच्चियों की भीड़ लगी रहती है। वे लोग बड़ी शान से अपने को सभ्य कहते हैं, हालाँकि उन्हीं लोगों की निगाहों के सामने शरणार्थी और उजड़े लोग, अँधेरा उतरते ही, रातों को सड़क-फुटपाथों पर सोए रहते हैं। जब वे लोग अपने-अपने घरों में तर माल-पकवान उड़ाते हैं, मुमकिन है, उनके आस-पास ही कोई मरगिल्ली किशोरी भूख से छटपटा रही हो। ऐसे में मैं क्या उन बदनसीवों को शरीफ कहूँ? उन लोगों को गऊ-ग्रास की तरह मुँह में हप्-हप् खाना ढूँसते देखकर, मारे लोभ के मुँह से लार टपकते देखकर, मुझे दुनिया के आदिम, असभ्य लोगों का ख्याल आता है। मेरी राय में वे लोग ही देश के सबसे असभ्य जंतु हैं, जो किलबिल करते हुए अन्न-वस्त्र घरहीन लोगों के फाँक-फोकर में, अकेले-अकेले पकवान हड़पते रहते हैं, बाद में और-और इमारतें खड़ी करते हैं।
इस मुसलामन देश में औरतों के लिखने-पढ़ने का नियम नहीं था। उन्हें तो बस, पहाड़े, सिफारा पढ़ाकर विदुषी (!) बना दिया जाता था। युग पर युग गुज़रते रहे, जितने-से के बिना काम न चले, बस, उतनी-सी खानापूर्ति कर दी जाती थी! ज़रा-बहत जूठन फेंक दिया, बस! आजकल लड़कियाँ पहाड़े और सिफारे के साथ-साथ बांग्ला और गणित भी पढ रही हैं। लेकिन इतना सब पढ़ने-सीखने से क्या लाभ, अगर उन लोगों को अंत में सिर्फ चूल्हा ही फूंकना पड़े। अगर अपनी विद्या को काम में लगाते हुए, रोक-टोक या बाधा का सामना करना पड़े; समाज का आगभभूखा तेवर झेलना पड़े, तो...? तो क्या यह ज़रूरी नहीं है कि वह अपने अमित साहस और शक्ति के साथ ये तमाम बाधाएँ लाँघकर आगे बढ़ जाए? अगर उसे मुँह के बल गिर जाना पड़े, तो धिक्कार है उसकी शिक्षा-दीक्षा! धिक्कार है उसके पढ़ने-लिखने की साधना! इस शहर में या सिर्फ इसी शहर में क्यों, देश के अनगिनत शहरों में, लड़कियाँ अपनी पढ़ाई-लिखाई पूरी करके, कामकाज में उतर पड़ती हैं। महीने के अंत में तनखाह लेती हैं। मगर अंत में आपना कामकाज जारी नहीं रख पातीं। फर्ज करें, जहाँ काम या नौकरी मिली है, वहाँ रहने लायक उसका अपना या किसी नाते रिश्तेदार का घर ही नहीं है। तो क्या वह नौकरी छोड़ दे? थक-हारकर अपने घर में बैठी-बैठी किसी लायक दूल्हे का इंतज़ार करे, जो आए और उसे अपने यहाँ चूल्हा फूंकने के लिए ले जाए? ऐसी घटनाएँ अक्सर हुई हैं, होती रहती हैं, जब औरत अपनी शिक्षा-दीक्षा और जागरूकता का सम्मान करते हुए आत्मनिर्भर होना चाहती है। मगर ठौर-ठिकाने के अभाव में, उन्हें कदम पीछे हटाना पड़ता है। वैसे बेली रोड में कामगर औरतों का एक हॉस्टल मौजूद है, मगर वहाँ तीन साल बाद, रहने नहीं देते। उन लोगों का कहना है कि नई-नई औरतों को भी मौका देना चाहिए। लेकिन. मेरा सवाल है, नई औरतों को मौका देने के लिए क्या पुरानी औरतों को खदेड़ देना ज़रूरी है? कोई और नियम नहीं बन सकता? क्या और-और हॉस्टल नहीं बनाए जा सकते? तीन साल बाद जिसे खदेड़ा जाता है, आखिर वह कहाँ जाए? हॉस्टलों में तो विवाह को ही एकमात्र गंतव्य मानकर, वहाँ रहने-सहने की प्रेरणा दी जाती है। कुंवारी लड़कियाँ अपनी नौकरी के साथ-साथ अपने व्याह का भी रास्ता ढूँढ़ लें। इसी तरह तलाकशुदा औरतें भी, उम्र रहते, किसी न किसी के गले में झूल जाती हैं! उन लोगों को बार-बार समझा दिया जाता है कि उनका वहाँ रहना-सहना, बस, कुछ ही दिनों का है। लेकिन क्यों? अगर कोई औरत यह तय करे कि यही उनका गंतव्य है, वह किसी के भी गले में नहीं झूलेगी, किसी का चूल्हा भी नहीं फँकेगी-वह झंझट-झमेलामुक्त जिंदगी गुजारेगी, माँ-बाप, भाई-बहन की गृहस्थी में बोझ बनने का भी उसका कतई, कोई इरादा नहीं है, फिर? उसे अपना सपना सार्थक करने का क्या कोई हक़ नहीं है? उसे आज़ाद जिंदगी गुज़ारने का क्या कोई अधिकार नहीं है? बहुत-से लोग यह कहेंगे कि वह कोई घर किराए पर ले ले। मुझे इसमें भी कोई आपत्ति नहीं है, बशर्ते कोई मकान-मालिक बेझिझक उसे घर किराए पर दे दे। अगर किसी एक औरत के लिए पूरा मकान किराए पर लेना संभव न हो, तो कई औरतें मिलकर, अनायास ही एक मकान किराए पर ले सकती हैं। लेकिन मकान मालिक भी किसी औरत को घर किराए पर नहीं देता! वे लोग यह तर्क देते हैं कि फालतू छोकरे-वोकरे घर में भीड़ लगाएँगे। तो ऐसी होती है-औरत! उसे पाकर भी लोग झमेला करते हैं और न पाने पर भी झमेला करते हैं। औरत को अगर इस देश का नागरिक माना जाए (कम से कम कागज-पत्तर में तो माना ही जाता है) तो क्या उसे यह हक है कि वह बिना किसी संगी के, अकेली ही कहीं घर किराए पर ले सके। मर्द तो मेस में भी रह लेते हैं। औरतें भी इस किस्म का कोई 'मेस' बना सकती हैं। अनगिनत प्रतिभावान औरतों को, घर की मोहताजी में, शहर की नौकरी छोड़कर जाना पड़ा है या किसी गाँव-कस्बे के किसी घर में बैठे-बैठे, बेकार-सी जिंदगी बिता रही हैं। (बेरोजगार औरतों के घर में बैठे रहने को 'बेकार' नहीं कहते, क्योंकि बेकार तो लड़के भी होते हैं)! मुमकिन है, किसी-किसी औरत ने हताश होकर, देह का धंधा ही चुन लिया हो या सिर्फ सिर छिपाने भर की ठाँव पाने के लिए किसी नालायक पति के हाथों अपनी जिंदगी सौंप दी हो।
यह जो चरम स्वप्न-भंग की स्थिति है। इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? देश अगर औरत को शिक्षित तो करे, लेकिन नौकरी न दे, समाज अगर औरत को नौकरी, तो दे, मगर रहने को घर न दे। तो फाँकीबाज़ी तो साफ़-साफ पकड़ में आ जाती है। औरत को मोल चुकाने के नाम पर यह तो एक किस्म की धोखाधड़ी है? मक्कारी है! मानो मैंने तुम्हें बोलना तो सिखाया, मगर भाषा छीन ली; तुम्हारे पाँवों की बेड़ियाँ तो उन्मुक्त कर दीं, मगर राह भी बस, नाप कर दी।
समूचे देश में कामगार औरतों के लिए हॉस्टल की संख्या बढ़ाना होगी? चाहे सरकारी हॉस्टल हो या गैर-सरकारी! औरतों को बिना किसी बाधा-दुविधा के, निश्चित मन से घर किराए पर देना होगा। अब एक भी औरत बेकार, बेरोजगार न रहे। देश का कोई भी प्रतिष्ठान औरत की नियुक्ति वर्जित न करे! वात दरअसल यह है कि औरत को अगर दूसरों पर निर्भर बना दिया जाए, तो उस पर मनमाने तौर पर लात-मुक्के बरसाए जा सकते हैं? लतियाने-जुतियाने का यह मज़ा हाथ से कहीं फिसल न जाए, इस इरादे से जो लोग देश और समाज की कल-काठी घुमाते-फिराते हैं, वे लोग ऐसी कोई व्यवस्था हरगिज नहीं करना चाहते, जिसके जरिए औरत इंसान नज़र आए; औरत शान से सिर उठाकर चल सके; पूरे दमखम से बात करे; ज़रूरत पड़ने पर डाँट-डपट सकें इस-उसकी परवाह न करे; अगर कोई उसके गाल पर तमाचा जड़े, तो वह भी पलटकर तमाचा जड़ सके-ऐसा कोई इंतज़ाम करना ही होगा। घूघू हमेशा ही सारा धान खा जाए, यह क्या कबूल किया जा सकता है? किसी न किसी दिन घूघू खदेड़ने का भी इंतज़ाम करना ही होगा।
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