लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
मैं इस मुल्क की एक अदद अति-मामूली नागरिक हूँ। न मैं कोई मंत्री हूँ, न सेक्रेटरी, न राजनीतिक न उद्योगपति। मैं तो नितांत नगण्य इंसान हूँ! पिछली तेईस जनवरी को कलकत्ता के आवृत्तिलोक द्वारा आयोजित, कविता-कार्यक्रम में हिस्सा लेने जा रही थी। वहाँ मेरे अनगिनत पाठक, मेरा इंतज़ार कर रहे थे। लेकिन एमिग्रेशन की तरफ से यह कहा गया कि मुझे जाने नहीं दिया जाएगा। मुझे क्यों नहीं जाने दिया जा रहा है? मुझे बाहर जाने की सरकारी अनुमति नहीं है। इसलिए! चलो, अच्छी बात है! मैंने सोचा, अब सरकारी अनुमति लेकर ही बाहर जाऊँगी। पिछली चौबीस जनवरी को ढाका मेडिकल कॉलेज के अधिकारियों से अनुमति पत्र लेकर, मैं स्वास्थ्य विभाग के महानिदेशक को दे आई। पूरा दिन गुज़र गया, महानिदेशक ने अनुमति नहीं दी। मुझे अनुमति क्यों नहीं दी, जब मैंने पता किया, तो जानकारी मिली कि उन्होंने मेरी फाइल पर इन्क़लाब की 'रिपोर्ट' चिपका दी है। यह फाइल वे किसी को भी छूने नहीं दे रहे हैं। कभी अपनी गोद में, कभी कांख में दबाए घूम रहे हैं। इन्कलाब की रिपोर्ट में, मेरा पासपोर्ट नकली बताया गया है। और अप्रासंगिक तौर पर मेरे लेखन से, कई-कई मिसालें देते हुए, यह लिखा गया है कि भविष्य में मुझे कोई न कोई सज़ा देना बेहद ज़रूरी है। पासपोर्ट के साथ मेरे लिखने का सरोकार, इस इन्कलाब गुट का आविष्कार है! जैसे उन लोगों ने बेहद रहस्यजनक तरीके से मेरे पासपोर्ट की तस्वीर आविष्कार करके अपने अखबार में छाप दी है।
मुझे छुट्टी बिताने के लिए बंगलादेश के बाहर जाने की मंजूरी क्यों नहीं मिलेगी, जब मैंने यह सवाल किया तो स्वास्थ्य विभाग की तरफ से यह सूचित किया गया कि चूँकि 'इन्कलाब' में इस बारे में काफी कछ लिखा जा रहा है. इसीलिए मंजरी नहीं मिल सकती! स्वास्थ्य विभाग पर 'इन्क़लाब' का इतना जबरदस्त असर देखकर, मैं सचमुच हैरान हूँ। अगर विभाग की नज़र में कोई कसूर किया भी है, तो मुझे सज़ा देने के बारे में मेरा विभाग यानी स्वास्थ्य विभाग निर्णय लेगा, इन्कलाब तो हरगिज नहीं! ‘इन्कलाब' मेरा निर्णायक नहीं हो सकता! लेकिन बंगलादेश के बाहर छुट्टियाँ बिताने के मामले में स्वास्थ्य मंत्रालय का आचरण और मेरी पर्सनल फाइल पर इन्क़लाव की रिपोर्ट चिपका हुआ देखकर लोग, यही राय कायम करेंगे कि इन्कलाब ही शायद स्वास्थ्य और गृह मंत्रालय का माँ-बाप है। गृह मंत्रालय इसलिए कहा, क्योंकि इन्कलाब की रिपोर्ट, पुलिस के खास विभाग में वरदान बनकर उतरी है! उन लोगों ने भी फाइल खोल ली है और इन्क़लाव जो भी कहता है, उसी मुताविक काम कर रही है। वे लोग भी मेरी किताबें पढ़ रहे हैं और लाल स्याही के निशान लगा रहे हैं।
जब मैं यह कॉलम लिख रही हूँ, तब तक मेरे पासपोर्ट पर कब्जा किए हुए, पूरे तीन महीने, ग्यारह दिन गुज़र चुके हैं! इन तीन महीने, ग्यारह दिनों के दौरान स्वास्थ्य और गृह मंत्रालय से मुझे कोई सूचना नहीं दी गई। चूंकि हवाई अड्डे के एमिग्रेशन की तरफ से मुझे यह हिदायत दी गई थी कि मैं अपना पासपोर्ट पुलिस के एस बी विभाग से वापस ले लूँ, मैं हर दिन वहाँ अपना आदमी भेजती रही, मगर निराश होना पड़ा। कट्टरवादी गुट का हर अख़बार, बड़े दंभ से यह प्रचार कर रहा है कि मेरा पासपोर्ट नकली था। वैसे पासपोर्ट पर मेरा ही नाम है। मेरे अब्बू का भी नाम दर्ज़ है! मेरे ही घर का पता दर्ज़ है! मेरे ही क़द, बाईं आँख पर काले तिल का हवाला दिया गया है। चूंकि मैं अख़वारों में कॉलम भी लिखती हूँ, इसलिए पेशे के तौर पर 'पत्रकारिता' लिखा हुआ है। चूंकि मुझे पत्रकारिता का काम पसंद है, इसलिए मैंने अपना पेशा ‘पत्रकारिता' लिखा था। इसकी जगह मैं कवि या लेखिका भी लिख सकती थी। दूसरी तरफ मैं डॉक्टर भी थी! खैर, मेरे अनगिनत कामकाज हो सकते हैं और बहुत मुमकिन है कि उनमें से कोई एक पेशा मुझे पसंद हो। अनगिनत कामकाज में से सिर्फ एक का उल्लेख और देश से बाहर जाने के लिए सरकारी अनुमति न लेना यह नितांत तकनीकी भूल हो सकती है! महज इतनी सी भूल की वजह से पासपोर्ट ले लेना और लगभग साढ़े तीन महीने तक पासपोर्ट वापस न देना हरगिज सही नहीं है!
स्वास्थ्य विभाग ने जब मझे बंगलादेश के बाहर जाने की अनुमति नहीं दी मैंने अपनी मर्जी से खुद ही सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। हैरत है कि मेरा इस्तीफा मंजूर करने की भी, ऊपरवाले कोई जरूरत महसूस नहीं कर रहे हैं। जहाँ कहीं, जो भी दरख्वास्त दिया, सब अचल पड़ा रहा! मैंने स्वास्थ्य-सचिव को भी दरख्यास्त भेजा कि या तो मुझे बंगलादेश जाने की मंजूरी दी जाए या मेरा इस्तीफा कबूल किया जाए। इसका भी कोई जवाब नहीं आया। इसके बाद मैंने तय किया कि मैं स्वास्थ्य और गृहमंत्री से सीधे-सीधे बात करूँगी। लेकिन मैंने गौर किया उनसे मुलाकात करने में बहुत सारी रुकावटें आ रही हैं। मुझे अंदाज़ा हो गया कि वे लोग मुझसे भेंट नहीं करेंगे। लेकिन यह अशोभन असहयोग क्यों? किसी इंसान का नागरिक अधिकार छीनकर यूँ ख़ामोश, बेआवाज़ वैठे रहने का आखिर क्या मतलब है? क्या इसी का नाम लोकतंत्र है? हमारी चाहत का लोकतंत्र?
सरकारी अनुमति लेकर, देश के बाहर जाने का, किसी भी सभ्य देश का नियम नहीं है। लेकिन यह नियम जैसे-तैसे इसी देश में बचा रह गया है! जैसे-तैसे इसलिए कहा क्योंकि इस देश के निन्यानवे प्रतिशत सरकारी कर्मचारी या अधिकारी, सरकारी अनुमति के बिना ही आराम से देश के बाहर आते-जाते रहते हैं और इस बात की हमारे गृह मंत्रालय को भी बखूबी जानकारी है। मैं जो परिचय लेकर, कलकत्ता जा रही थी, वह किसी डॉक्टर का नहीं, कवि के परिचय समेत, कविता पढ़ने जा रही थी। वहाँ पत्रकारिता संबंधी मेरी किताब 'निर्वाचित कलाम' के पाठक, मेरी राह देख रहे थे। अपने पत्रकार होने का परिचय देना या सरकारी अनुमति न लेना, गृह मंत्रालय ने अगर मेरा गुनाह मान लिया हो तो अब तक मुझे इसके लिए सज़ा क्यों नहीं दी? मुझे नहीं लगता कि मैंने कोई गुनाह किया है। कवि या पत्रकार के तौर पर देश से बाहर किसी कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए जाने में सरकारी अनुमति जरूरी होती है, मुझे तो यह भी नहीं मालूम था। अब मेरा कसूर खोदकर निकालें और जो सज़ा देनी हो, मुझे दे डालें। लेकिन इससे पहले, मेहरबानी करके, मेरा जायज पासपोर्ट तो मुझे वापस कर दें, माननीय गृहमंत्री! मेरा नागरिक अधिकार तो मुझे वापस कर दें! मेरा पासपोर्ट मुझे कब वापस मिलेगा। यह जानने का तो हक़ मुझे है या नहीं है?
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