लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
गृहवधुओं की तनखाह कितनी होगी, इस बारे में 'वीतता-गुज़रता दिन' काफी चिंतित और परेशान है। चंद गृहवधुओं ने गृहस्थी में अपने काम-काज का हिसाब करके, घर के बाकी नौकर-चाकरों की तरह, अपने लिए भी एक निश्चित तनखाह तय कर ली है यानी वे लोग भी, घर के नौकरों की तरह ही, महीने-महीने तनखाह लिया करेंगी। औरतों को लेकर, मसखरी करने में, एक किस्म का सुख मिलता है। शायद इसीलिए समूचे देश में मसखरी की 'हुक्की' पड़ गई है। यह देश तो और कोई सुख जुटा नहीं सकता, इसलिए औरत जुटाकर ही उसे किसी तरह अपनी लाज बचाना पड़ती है। गृहवधू क्या अपने पति की तनख़ाहयाफ्ता कर्मचारी है? खाना पकाने, कपड़े-लत्ते धोने, घर की साफ-सफाई करना, बच्चे पढ़ाना, रात को पति को अंग-संग देना वगैरह कामों के लिए उन्हें पारिश्रमिक चाहिए और पारिश्रमिक के इन रुपयों से गृहवधुएँ करेंगी क्या? पति के लिए शर्ट, अपने लिए साड़ी, बच्चे के लिए खिलोने-गाड़ी, घर-सजावट की सामग्रियाँ, रसोई के लिए मसाला-पाती-इन सबके बाहर, उसका और कोई खर्च भी क्या है? पिंजरे में कैद 'जीव' पिंजरे को ही नए सिरे से जगाएगी। पति के रुपए, जब तनखाह के तौर पर पत्नी के हाथों में आएँगे तब पत्नी की क्या मजाल कि ये रुपए वह पिंजरे यानी गृहस्थी के बाहर कहीं और खर्च करे? नहीं, उसकी ऐसी मजाल हरगिज़ नहीं हो सकती क्योंकि वह अपनी नौकरानी-तुल्य पत्नी को मुमकिन है, तनखाह देते रहें, मगर यह भी ज़रूर पूछेगे या हिसाब माँगेंगे कि उनके रुपए, उनकी पत्नी ने कहाँ ख़र्च किए। पत्नी ने अगर वे रुपए, अपने माँ-बाप, भाई-बहन को दिए हों, तो पति वर्ग इतने उदार नहीं होते कि वे मूड ख़राब न करें। उन्हें यह ख्याल न आए कि उनकी पत्नी का मोह-प्यार सिर्फ अपने पीहर के लिए है, पति या ससुराल के प्रति नहीं है। पत्नी अगर अपनी सखी-सहेलियों के साथ ज़रा मौज-मजा करे और रुपए खाने-पीने और सैर-तफरीह में उडा दे, तो यह मंतव्य जडा जाएगा कि बीवी अतिशय उग्र. गहस्थी के प्रति उदासीन. स्वेच्छाचारिणी, अशुभ-मनहूस और बदचलन है.। बीवी अगर ये रुपए, सिर्फ अपने पर ख़र्च करे, तो कहा जाएगा, बीवी बेहद स्वार्थी है। अगर वह रुपए जमा करती रहे, तो कहा जाएगा कि वह बेतरह कंजूस है। यानी औरत का किसी तरह भी निस्तार नहीं है। पति की दी हुई तनखाह उसे अपनी गृहस्थी में पति के रुपयों की तरह ही खर्च करना होगी। सारे रुपए उसे पति की गृहस्थी में ही उँडेलने होंगे। फिर तनख़ाह के रूप में चंद रुपए, एक हाथ से दूसरे हाथ में देने की ज़रूरत क्या है? इस मामले में नौकर-चाकरों को तो थोडी-बहत आजादी है। नौकर-चाकर ने अपनी तनखाह किस पर खर्च की, यह पूछने वाला कोई नहीं होता। नौकर अपने रुपए. अगर पानी में भी फेंक आए, तो इस पर एतराज करनेवाला कोई नहीं होता, लेकिन बीवी अगर वे रुपए पानी में बहा दे, तो उसे निरंतर आहत होना होगा कि वे रुपए पानी में क्यों फेंके गए? क्यों नहीं इन-उन रुपयों से उसने यह-बह काम निपटा डाला?
इसका मतलब यह है कि उन्हें आजादी तो दी गई, लेकिन तुम्हारे इर्द-गिर्द एक दायरा खींच दिया गया है और तुम इस घेरे के बाहर कदम नहीं रख सकतीं। तुम्हारी हथेली पर ये चंद रुपए तो टिका दिए गए, लेकिन इशारे-इशारे में यह भी समझा दिया गया है कि इन रुपयों से तुम यह-यह करना। जैसे विभिन्न उत्सव-पों पर बच्चों के हाथ पर बख्शीश के तौर पर रुपए तो टिका दिए जाते हैं, मगर बच्चे वे रुपए अपने अभिभावक की हिदायत मुताबिक खर्च करने को लाचार होते हैं। जैसे, इन रुपयों से आइसक्रीम नहीं खरीदोगे; बाँसुरी नहीं खरीदोगे; तारा-बत्ती भी नहीं! हाँ इन रुपयों से कोई ड्रेस या एक जोड़ा जूते खरीदे जा सकते हैं। असल में उनको बहलाने के लिए, रुपए उनकी हथेली पर धर दिए जाते हैं, ताकि उन्हें हाथ में लेने की खशी में वे मगन रहें। रुपए उन बच्चों के हाथ में तो होते नहीं. इसलिए रुपयों का परस देकर, उन्हें खुश किया जाता है। काफी कुछ खेल में जीते हए. सोने के कप जैसा? जरा देर के बाद, कप हटा लिया जाता है। वैसे ही औरत भी अगर रुपयों को छूकर, ज़रा खुश होती है, तो छू ले। झूठ का कटोरा, अमल आनंद से भरा रहे।
गृहवधुओं के पैरों में बेड़ी पड़ी रहती है मन में जंजीर! इतनी ज्यादा बेड़ियाँ पहने इंसान रुपयों का आखिर करेगा क्या? औरत को नियम के बाहर, दीवार के बाहर तो कोई निकलने नहीं देगा। 'उम्र कैद' की सजा झेलते हुए मुजरिम के लिए गड्डी-गड्डी रुपयों का आखिर मोल ही क्या है? सच तो यह है कि गृहवधू के हाथों में टिकाए गए रुपए, उसके अपने रुपए नहीं होते। उसे यह हक कतई नहीं है कि वह अपनी मर्जी-मुताबिक रुपए खर्च करे। उसे तो चलने-फिरने बोलने दौड़ने या रुपए खर्च करने का हक, अभी तक नहीं मिला है। स्वेच्छाचार, उसके लिए संभव नहीं है, स्वेच्छाचार का मतलब है-अपनी इच्छा मुताबिक आचार-! औरत के लिए यह संभव नहीं है। क्योंकि समाज में ऐसा परिवेश फिलहाल तैयार ही नहीं हुआ है! अगर ऐसा नहीं है, औरत अगर स्वावलंबी नहीं है, आज़ाद नहीं है, तो उसे गुलामी की जंजीरों में जकड़कर, चाहे जितना भी दूध-भात खिलाया जाए, रहेगी वह गुलाम ही! बैल के बदन पर चाहे जितना भी तेल चुपड़ा जाए? वह बैल ही कहलाएगा, उसे कोल्हू का बैल बने रहकर, तेल पेरने के काम में ही जुटे रहना होता है।
इस मामले में औरत इंसान ही समझी जाती है। हालाँकि उससे बैल का ही काम लिया जाता है! उससे धोबी, बावर्ची, नौकरानी, पतिता, माली, चौकीदार-सभी तरह के काम कराए जाते हैं, क्योंकि औरत जब एक ही साथ बहु-प्रतिमा की मूरत हो, तभी वह सार्थक, गुणवंती बहू कहलाती है। आजकल कुछेक मर्दो को शायद यह शौक चर्राया है कि वे लोग गृहवधुओं को अपने कर्मचारी के तौर पर देखेंगे, इसलिए उसे भी एक प्रतिमा मानकर उन लोगों ने प्रस्ताव दिया है कि अब से अपने इस पालतू जीव को भी वे रुपए-पैसे देंगे। जैसे पालतू मैना के प्रति उन लोगों के मन में अतिरिक्त दर्द उथला पड़ता है, उसी तरह इन मर्दो के मन में भी औरत के प्रति ज़रा ज़्यादा कृपा बरसने लगी है।
सच पूछे, तो पति को दोस्त होना चाहिए, प्रभु या मालिक नहीं! औरत उसकी वेतनयाफ्ता कर्मचारी नहीं होती। औरत को शिक्षित होना है, स्वावलंबी होना है, हर क्षेत्र में स्वाधीनता अर्जित करना है! उनकी गृहस्थी, दोनों के ही प्यार और विश्वास का आँगन हो। इनमें से एक अगर दूसरे पर कुछ लाद दे या थोप दे, तो गृहस्थी नहीं चल सकती। वह तो विषमताओं की माँद बन जाएगा। विषमताओं के उस माँद में अगर रुपयों का लेन-देन भी हो, तो इस वजह से विषमताओं में कभी हेर-फेर नहीं होता। पहले ये विषमताएँ मिटाने के लिए संघर्ष करना होगा। इसमें गृहवधुओं की भी हिस्सेदारी ज़रूरी है। उनकी लड़ाई गृहवधुओं के तौर पर नहीं होगी। बल्कि औरत के तौर पर होगी। उनकी लड़ाई, अपने पति से तनखाह पाने के लिए: नहीं होगी, अपने को इंसान के तौर पर दुनिया, समाज में प्रतिष्ठित करने के लिए होगी। उन लोगों को इस लड़ाई में कूद पड़ना होगा और अपने इंसान होने का पूरा-पूरा हक़ वसूल करना होगा। ये पति तनख़ाह के तौर पर भले कुछ दे दें, मगर उन्हें इंसान नहीं बनने देंगे बल्कि सिर्फ आधुनिकता की चटनी परोसते रहेंगे (जिसे चाटकर पेट नहीं भरेगा, सिर्फ जुबान तृप्त होगी) खैर, यह भी तो एक किस्म की नई हथकड़ी-बेड़ी है।
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