लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
अधिकार-अनधिकार
(1)
सन् 1925 के भारतीय उत्तराधिकार कानून का 24-28 (अंश 4) और 29-49 (अंश-5) धाराएँ, बंगलादेश और भारत के ईसाइयों पर लागू हैं! वंश और पुरखों से आए हुए व्यक्ति, परस्पर सगोत्र होते हैं। सगोत्र में शामिल हैं-पिता, पितामह, प्रपितामह, प्रपितामह के पिता और दूसरी तरफ पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र! पिता की तरफ के भाई, भाई के बेटे। भाई के बेटे के बेटे! पितामह की तरफ के पिता के भाई यानी काका, पिता के काका, जेठू, चचेरे भाई-बहन, चचेरे भाई-बहनों के बेटे और पोते। प्रपितामह की तरफ से पितामह के भाई। पिता के चचेरे-जेठ के बेटे, पिता के चचेरे-जेठ के बेटे के बेटे। और प्रपितामह के पिता की तरफ के प्रपितामह के भाई, आपस में सगोत्र होते हैं। सगोत्र में औरत के लिए कोई जगह नहीं है। हाँ, काफी खोज-बीन की जाए, तो कुल्लमकुल, चचेरी बहन का उल्लेख मिल जाता है। वह भी काफी झीना-सा!
सन् 1956 के भारतीय संशोधित हिंदू उत्तराधिकार कानून की तहत, बंगलादेश का बौद्ध संप्रदाय भी आता है। हालाँकि यह कानून बंगलादेश के हिंदू उत्तराधिकार कानून में अभी भी गृहीत नहीं हुआ। बंगलादेश के मारुआ बौद्धों को छोड़कर, बंगलादेश के बौद्ध संप्रदाय का उत्तराधिकार दायभाग, हिंदू कानून के दायरे में शामिल है! ब्रह्मदेशीय बौद्ध और बंगला के मारुआ बौद्ध, ब्रह्मदेशीय उत्तराधिकार कानून मानते हैं। उनका क्रम निम्नलिखित है-1. पुत्र 2. पौत्र 3. प्रपौत्र 4. दत्तक पुत्र 5. सौतेली माँ का पुत्र 6. नाजायज संतान 7. नाजायज सौत की संतान 8. भाई-बहन 9. पिता के पिता-माता 10. दूर के रिश्तेदार (भाई का बेटा और बेटी, चाची-फूफी, भाई के बेटे के बेटे-बेटी, कज़िन, भाई के बेटे और बेटी के पौत्र-पौत्री, कज़िन की संतान, कज़िन के पौत्र की संतान, कज़िन की संतान के प्रपौत्र) इन सबको उत्तराधिकार मिलता है। कज़िन तक के पौत्र-प्रपौत्र तक को यह हक मिलता है। मगर अपनी सगी बेटी इस सूची में शामिल नहीं है।
वैसे यह बंगलादेश के बौद्धों का कानन नहीं है। सन् 1956 के हिंदू सक्शेसन एक्ट, ब्रह्मदेश के कानून की तुलना में काफी उन्नत है! बंगलादेश में बहाल हिंदू-मुस्लिम ईसाई लोगों के उत्तराधिकार कानून के मुकाबले भी कहीं ज़्यादा उन्नत है।
(2)
बहुत-से लोगों ने मुझसे कहा है कि मैं काफी मुश्किल विषय पर लिख रही हूँ! मुश्किल विषय यानी उत्तराधिकार कानून! 'यह मुश्किल विषय क्यों है?' -यह पूछने पर, कुछेक लड़कियों का जवाब मिला-'इन सबकी तो मुझे समझ-वमझ नहीं है-?'
मैंने हँसकर टहोका मारा, 'हाँ, इन सबकी समझ भला क्यों होने लगी? अगर समझतीं, तो तुम्हारे होठों पर ‘सब कुछ मिला है' की हँसी झूल रही होती? तुम्हारा मन इतना तृप्त होता भला?'
पता नहीं, उन लोगों को मेरा यह तिरस्कार भी समझ में आया या नहीं, लेकिन यह अनुरोध वे लोग ज़रूर कर गईं कि मैं यह रूखी-सूखी आलोचना छोड़कर, मर्दो की पिटाई कैसे की जाए, इस बारे में लिखू। उत्तराधिकार के झमेले में कोई नहीं पड़ना चाहता। यह झमेला नहीं, तो और क्या है? गज-इंच का फीता लेकर शतांश की माप-जोख और अपने भाइयों से छीन-झपट करना, सही और शोभन नहीं लगता। हज़ार हो, है तो अपना भाई, चलो, सारा कुछ ले लेने दो। वैसे भी, बाप की ज़मीन में अपना हिस्सा माँगना, लोग लालची कहेंगे। विवाह से पहले तक बाप ने ही तो खिलाया-पहनाया, अब पति खिला-पहना रहा है। इसमें कुछ असुविधा तो नहीं है। खामखाह असभ्य-बेअदब की तरह, बाप की दो छटाँक-ज़मीन पर दाँत गड़ाना क्यों जरूरी है? यही है हमारे यहाँ मध्यवित्त और उच्चवित्त औरतों की मानसिकता और निम्नवित्त के पास तो ज़मीन ही नहीं है। अगर छिटपुट जमीन हो भी और उसमें कोई हिस्सा माँगने आए, तो भाई उन्हें लतिया-जुतियाकर खदेड़ देते हैं!
लेकिन, ऐसी-ऐसी घटनाएँ, आखिर कितने दिनों तक घटती रहेंगी? आखिर कब तक हमारी निरीह, निर्बोध, प्रताड़ित औरतें यही सोचती रहेंगी, कि पिता की ज़मीन-जायदाद सिर्फ बेटों के लिए है, बेटियों के लिए बिल्कुल नहीं है और अगर कुछ है भी, तो निहायत छिटपुट ! यह इंतज़ाम, सिर झुकाकर वे क्यों कबूल करें? आखिर उन्हें कब यह ख्याल आएगा कि पिता की जायदाद में बेटे और बेटी का बराबर-बराबर हक़ होना चाहिए? आखिर बेटी भी तो मुकम्मल इंसान है! बेटों की तुलना में वह कोई 'कम-संतान नहीं है। कुछ 'कम-मूल्यवान' नहीं है; कुछ 'कम-मेधावी' नहीं है! जिस दिन औरतों में यह अहसास जागेगा, वे लोग खुद ही अपने माँ-बाप के हाथों में 'उत्तराधिकार कानून' का इंची-टेप थमा देंगी और कहेंगी 'मेरा जो कुछ भी, जितना भी प्राप्य है, सब मुझे सौंप दो! मुझे कौड़ी-कौड़ी हिसाब चाहिए।' मैं इस दुनिया में इसलिए नहीं आई कि अपने हक़ का सारा कुछ दान-दक्षिणा में लुटा दूँ। जो कुछ भी मेरा है, शत-प्रतिशत मुझे चाहिए। पुत्र की रचना में जहाँ एक 'स्पर्म' और एक ‘ओवम' की ज़रूरत होती है, वहाँ लड़की की रचना में आधा 'स्पर्म' और आधा ‘ओवम' नहीं लगता। तब जायदाद के संदर्भ में ही उसे आधा-अधूरा क्यों मिले?
पुरुष प्रगतिवादी, तरह-तरह के आंदोलन छेड़ते रहते हैं। लेकिन उत्तराधिकार के बारे में वे लोग कभी चूं तक नहीं करते। इस बारे में रत्ती भर भी छेड़छाड़ उन्हें सख्त नापसंद है! मैं ऐसे ढेरों विप्लवी, समाजसेवी लोगों को जानती हूँ, जिन लोगों ने नाप-जोखकर, अपनी बहनों से आधी जमीन वसूल की है यानी बहन को ठग लिया है। देश-व्यवस्था में कोई भी हेर-फेर नजर आया नहीं कि वे लोग उत्तेजित हो उठते हैं। लेकिन, ज़मीन के बँटवारे में ज़रा भी हेर-फेर या विषमता देखकर, वे लोग अतिशय शांत बने रहते हैं यानी ज़रा भी उत्तेजित नहीं होते। यानी शरियत कानून माफिक और कुछ भले न चले, उत्तराधिकार कानून जैसा चल रहा है, चलता रहे। विवाह-व्यवस्था भी पहले की तरह ही चलती रहे, क्योंकि इसमें बहु-विवाह की सुविधा जो है!
ऐसे में जो भी करना है, औरत.को ही करना होगा। औरत के लिए सुयोग-सुविधा खुद औरत को ही रचना-गढ़ना होगा। तमाम प्रतिबंध उसे खुद ही मिटाना होगा। अपनी राह आसान करने की जिम्मेदारी, खुद उसी की है! हमारे समाज में 'गुलाम आयम' तो आसानी से पैदा हो जाते हैं, लेकिन 'ईश्वरचंद्र विद्यासागर' जन्म नहीं लेते। इसलिए तो 'बहु-विवाह' भी दूर नहीं होता, संपत्ति में बराबरी का अधिकार भी नहीं जुटता।
इसलिए हर औरत को ‘जोन ऑफ आर्क' बनना होगा, मेरी वेल्स्टोनक्रॉफ्ट, प्रीतिलता, लीला नाग, बेगम रुकैया बनना होगा। औरत को पानी के समान अपने शीतल मन में, सैकड़ों बारूद की आग धधकाना होगी। आज इसकी बेहद ज़रूरत है!
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- आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
- मर्द का लीला-खेल
- सेवक की अपूर्व सेवा
- मुनीर, खूकू और अन्यान्य
- केबिन क्रू के बारे में
- तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
- उत्तराधिकार-1
- उत्तराधिकार-2
- अधिकार-अनधिकार
- औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
- मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
- कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
- इंतज़ार
- यह कैसा बंधन?
- औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
- बलात्कार की सजा उम्र-कैद
- जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
- औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
- कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
- आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
- फतवाबाज़ों का गिरोह
- विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
- इधर-उधर की बात
- यह देश गुलाम आयम का देश है
- धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
- औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
- सतीत्व पर पहरा
- मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
- अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
- एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
- विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
- इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
- फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
- फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
- कंजेनिटल एनोमॅली
- समालोचना के आमने-सामने
- लज्जा और अन्यान्य
- अवज्ञा
- थोड़ा-बहुत
- मेरी दुखियारी वर्णमाला
- मनी, मिसाइल, मीडिया
- मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
- संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
- कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
- सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
- 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
- मिचलाहट
- मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
- यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
- मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
- पश्चिम का प्रेम
- पूर्व का प्रेम
- पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
- और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
- जिसका खो गया सारा घर-द्वार