लोगों की राय

उपन्यास >> मर्यादा पुरुषोत्तम

मर्यादा पुरुषोत्तम

नागार्जुन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3006
आईएसबीएन :9789350721063

Like this Hindi book 13 पाठकों को प्रिय

221 पाठक हैं

मर्यादा पुरुषोत्तम....

Maryada purushottam

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पूर्व कथा

पुराने जमाने में हमारे यहाँ राजपूतों के खानदान बहुत प्रसिद्ध थे। एक चन्द्र वंश, दूसरा सूर्य वंश राम सूर्य वंशी थे।
सूर्य वंशी राजाओं का इतिहास कई पुराणों में मिलता है। अयोध्या उनकी राजधनी थी। देश का नाम कोशल था, जिसे आजकल अवध कहते हैं। यह अयोध्या सरयू नदी के तट अब भी एक तीर्थ में विद्यमान है। इसको बसाने का श्रेय राजा युवनाश्व को है। वह मान्धाता के पुत्र थे। राजा युवनाश्व के कोई पुत्र नहीं था। पुत्र प्राप्ति के लिए उन्होंने यज्ञ किया।
एक दिन यज्ञ मंडप में ही राजा को नींद आ गई। कुछ काल बाद बड़े जोर की प्यास लगी, किन्तु पानी कहीं नहीं मिला। लाचार हो राजा ने मंडप में ही रखा हुआ अभिमन्त्रित जल पी लिया और फिर सो गए। सवेरे पुरोहित ब्राह्मणों ने पूछताछ की कि मंडप में रखा हुआ अभिमंत्रित जल का क्या हुआ ? राजा ने बताया, जोर की प्यास लगी थी, वह पानी मैं पी गया। पुरोहितों ने कहा महाराज बड़ा अनर्थ किया आपने। वह जल अभिमन्त्रित था। उसमें गर्भ की शक्ति थी। वह जल रानी के लिए था।
  अब आपके ही गर्भ रहेगा। आपके ही पेट से सन्तान उत्पन्न होगी। राजा बहुत घबराए, किन्तु उपाय ही क्या था ? समय आने पर राजा ने गर्भ धारण किया। अन्त में राजा का पेट चीरा गया और उसमें से मान्धाता का जन्म हुआ। राजा को इतना कष्ट हुआ कि उनके प्राण पखेरू उड़ गये।

मान्धाता बड़े प्रतापी राजा हुए। आगे चलकर इन्हीं राजा के कुल में सगर का जन्म हुआ। सगर के साठ हजार लड़के हुए। भागीरथ इन्हीं महाराज सगर के प्रपोत्र थे। उन्होंने कई हजार वर्ष तपस्या की और गंगाजी को धरती पर उतारा। कपिल मुनि के शाप से सगर के साठों हजार लड़के जलकर भस्म हो गये थे। गंगाजी ने उन सबका उद्धार कर दिया। भगीरथ द्वारा धरती पर उतरने के कारण गंगा का नाम भागीरथी पड़ गया। राजा हरिश्चन्द्र भी इसी सूर्यवंश में हो गए हैं। आगे चल-कर राजाओं के इस खानदान में हम दिलीप को पाते हैं।

राजा दिलीप के, बड़े उम्र हो जाने पर भी, जब कोई सन्तान न हुई तो रानी के साथ वह अपने कुलगुरु वशिष्ठ के आश्रम में पहुँचे। अपनी चिंता का कारण बताकर राजा ने मुनि से कहा-महाराज, सूर्यवंश का दीपक क्या यों ही बुझ जाएगा ?
मुनि ने कहा जल्दी-जल्दी आते हुए तुमने कामधेनु की परिक्रमा नहीं की। वह तुम पर रुष्ट है। अब कामधेनु की लड़की की सेवा करके तुम उसे प्रसन्न करो, तभी सन्तान होगी।

कामधेनु की लड़की का नाम था नन्दिनी। उसे लेकर राजा और रानी अयोध्या आए। अगले ही दिन दिलीप ने गाय की सेवा आरम्भ कर दी। वह उसे जंगलों में ले गये। नदियों के कछार, तराई के जंगल, हिमालय की तलहटी, जहाँ कहीं भी अच्छी घास मिलने की सम्भावना थी, राजा गाय को चराने लगते थे।
एक दिन ऐसा हुआ कि गाय नई-नई मुलायम दूब चरने के लिए पहाड़ की खोह में घुसी। दिलीप ने उधर ध्यान नहीं दिया। गाय की रक्षा के सम्बन्ध मे राजा दिलीप निश्चिन्त थे। उनका ख्याल था कि महामुनि वशिष्ठ के प्रभाव से कोई भी जंगली जानवर नन्दिनी के पास फटक नहीं सकता था।

अकस्मात् गाय जोर से डकार उठी। राजा ने इधर-उधर देखा, वह कहीं दिखाई नहीं पड़ी। जरा आगे बढ़कर दिलीप ने देखा कि एक सिंह नन्दिनी को दबोचे हुए है। उन्हें बड़ा गुस्सा आया जल्दी-जल्दी उन्होंने धनुष पर डोरी चढ़ाई। किन्तु यह क्या, तरकश से हाथ क्यों चिपक गया ?

राजा को बड़ा ही क्षोभ हुआ। ऐसा कभी नहीं हुआ था  कि दुश्मन सामने हो और तरकश से तीर न निकले। राजा इसी पेसोपेश में पड़े थे कि सिंह ने मनुष्य की बोली में कहा, ‘‘महाराज ! तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। मैं शंकर भगवान का सेवक हूँ। मुझे मारने की कोशिश न करो। इस पहाड़ में जो भी पशु मेरी निगाह में पड़ जाता है, उन्हीं में से अपना निर्वाह करता हूँ।’’

राजा ने प्रर्थना की ‘‘अभी यह गाय मेरी निगरानी में है। इसकी रक्षा का भार महामुनि वशिष्ठ ने मुझे सौंपा है। फिर यह कैसे हो सकता है कि गाय को मैं आपका आहार बनने दूँ। मुझसे आप अपनी भूख मिटाएँ, परन्तु इस गाय को छोड़ दें।’’
सिंह ने राजा को बहुत समझाया, बहुत बुझाया। परन्तु राजा ने एक न मानी। तरकश और कमान एक ओर रखकर दिलीप सिंह के आगे झुककर बैठ गए कि इतने में राजा के कानों में ममता भरी आवाज सुनाई दी। ‘‘उठो बेटा ! तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए ही मैंने यह सब किया था। उठो, मैं तुम पर प्रसन्न हूँ जो चाहोंगे वही वरदान दूँगी।’’
राजा दिलीप देह की धूल झाड़ते हुए खड़े हो गये और प्रसन्नतापूर्वक अयोध्या लौटे। आगे-आगे गाय, पीछे-पीछे राजा।  
थोड़े दिनों के बाद कामधेनु की कृपा से महारानी सुदक्षिणा ने राजकुमार रघु को जन्म दिया।
रघु बड़े प्रतापी राजा हुए। उनका लोहा देवराज इन्द्र तक मानते थे। भूमंडल के सभी देशों को जीतकर बहुत-सा धन उन्होंने इकट्ठा किया और सारा यज्ञ में दान कर दिया। अपने यहां धातु के जो भी पात्र थे सब ब्राह्मणों को दे दिए। स्वयं मिट्टी के बर्तनों से अपना काम चलाने लगे।

रघु से अज और अज से दशरथ हुए। दशरथ की आयु बड़ी लम्बी थी। उनका शासन दूर तक चलता था। उनके तीन रानियाँ थीं। पर सन्तान एक भी नहीं थी।
एक बार शिकार खेलने के लिए राजा दशरथ जंगलों में गए। भटकते-भटकते रात हो गई। अनुचर परिचर इधर-उधर छूट गए। रात के समय कहाँ टिके ? समझ में नहीं आ रहा था कि इतने में पानी से एक विचित्र प्रकार की आवाज आई। राजा को लगा कि जंगली हाथी पानी में अपनी सूँड़ डुबोकर गुड़गुड़ा रहा है। बस, फिर क्या था ? तरकश से तीर निकालकर उन्होंने शब्द वेधी बाण चला दिया।

बाप रे बाप ! किसी के गिरने की और कराहने की आवाज आई तो राजा को अपनी भूल मालूम हुई और वह दौड़े। यह श्रवण कुमार थे, जिनको पानी भरते समय राजा ने तीर से घायल कर दिया था। वह अपने बूढ़े माँ-बाप को कन्धे पर बहंगी के सहारे टोकरों में बिठाकर तीर्थों का दर्शन कराते फिर रहे थे। उन माँ-बाप को एक पेड़ के नीचे बैठाकर श्रवण कुमार उनके लिए पानी लेने आए। घड़े में पानी भरते समय गुड़गुड़ की जो आवाज हुई, उसी ने राजा को  भ्रम में डाल दिया।
अब क्या हो ? श्रवण कुमार को तीर तो लग ही चुका था। कराहते हुए तरुण तपश्वी ने परिचय पाकर कहा, ‘‘महाराज पहले आप मेरे माता-पिता को पानी पिला आओ। वे बहुत प्यासे हैं।’’

बात मालूम होने पर उन अन्धे बूढ़ों ने राजा को शाप दिया...‘तुम भी हमारी ही भाँति बेटे के वियोग में मरोगे।’
राजा दशरथ ने उन तीनों का अन्तिम संस्कार किया और प्रातःकाल अयोध्या आए। वृद्धों के उस शाप का राजा ने मन ही मन स्वागत ही किया; क्योंकि पहले बेटा हो लेगा तब न बिछोह होगा।

 

राम जन्म

 

 

कश्यप और अदिति ने बड़ी कठोर तपस्या की। ब्रह्मा, विष्णु, और शिवजी ने उन्हें वर देना चाहा, पर वे डटे रहे। ‘ओउम् नमो भगवते वासुदेवाय’.....यही मन्त्र था जिसका जप वे कर रहे थे।
तपस्या करते-करते बहुत समय बीत गया। सौ नहीं, हजारों साल। आखिर नारायण का आसन डोला। प्रकट होकर उन्होंने कहा- ‘आपकी इस साधना से मैं प्रसन्न हूँ। जो चाहिए वर माँग लीजिए ।’
कश्यप ने झुककर कहा-जन्म-जन्म तक आपके चरणों में मेरा मन रमा रहे।
भगवान ने कहा-बस इतना ही ? अरे, कुछ और माँगो। इस पर कश्यप को बड़ा संकोच हुआ। वह बोले-आप ही के समान तेजस्वी पुत्र चाहता हूँ।

भगवान ने कहा- एवमस्तु। मगर मैं अपनी तरह दूसरी सन्तान भला कहाँ ढूँढूँगा ? स्वयं ही मैं जब-जब जन्म लूँगा तो आपके यहाँ ही अवतार लूँगा। त्रेतायुग में अन्त में जब आप सूर्यवंशी राजा होकर जन्म लेंगे तब मैं भी आपका पुत्र होऊँगा।
इसके बाद भगवाम ने अदिति से पूछा तो उन्होंने कहा- जो वर आपने उनको दिया, मेरे लिए वही काफी है।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai