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महाभारत

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3026
आईएसबीएन :9788126718771

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महामुनि व्यास-कृत महाभारत की सरल संक्षिप्त प्रस्तुति-हिन्दी को निरालाजी का एक विशिष्ट और अत्यंत उपयोगी अवदान।

Mahabharat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

महामुनि व्यास-कृत महाभारत की सरल संक्षिप्त प्रस्तुति-हिन्दी को निरालाजी का एक विशिष्ट और अत्यंत उपयोगी अवदान। यह पुस्तक विशेष रूप से ऐसे लोगों के लिए लिखी गई है जो संस्कृत ज्ञान से वंचित हैं। सभी महत्वपूर्ण घटना प्रसंग इसमें समाविष्ट हैं, अपने संवादों में सारे प्रमुख पात्र भी पूरी तरह मुखर हैं ! अठारह सर्गों की क्रमबंद्ध कथा ऐसी सरस और प्रवाहमयी भाषा-शैली में प्रस्तुत की गई है कि मूल ग्रंथ को न पढ़ पाने के बावजूद उसके संपूर्ण घटनाक्रम और विशिष्ट भावना-लोक से पाठक का सहज ही गहरा रिश्ता बन जाता है।

 

भूमिका

 

यह संक्षिप्त महाभारत साधारणजनों, गृहदेवियों और बालकों के लिए लिखी गयी है। इससे उन्हें महाभारत की कथाओं का सारांश मालूम हो जायेगा। भाषा सरल है। भाव के ग्रहण में अड़चन न होगी। पुस्तक लिखते समय मैंने कई छोटी-छोटी पुस्तकों का आधार लिया है—संस्कृत, बाँगला और हिन्दी। मुझे विश्वास है, साधारणजन इस पुस्तक से लाभ उठाकर मुझे कृतज्ञ करेंगे।
इत शम्

 

लखनऊ
26-7-39
निराला

 

दो शब्द

 

 

प्रस्तुत पुस्तक नवीन साज-सज्जा के साथ पुनर्मुद्रित होकर निकल सकी, इसका श्रेय श्रमती शीलाजी सन्धू, संचालिका राजकमल-प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नयी दिल्ली को है, जिन्होंने पुस्तक को आधुनिकता का रंग-रूप देकर छापने में अपनी सुरुचि का परिचय दिया है। मैं उनके इस स्नेहपूर्ण सहयोग के प्रति आभार मानता हूँ।
विमोचित एवं पुनर्मुद्रित पुस्तक का नवसंस्करण हिन्दी के सुयोग्य पाठकों को सहर्ष समर्पित करते हुए आशा करता हूँ कि वे ‘निराला’’ की कृतियों को जिस रूचि और आदर-भाव से अपनाते रहे हैं, इसे भी अपनायेंगे।

 

रामकृष्ण त्रिपाठी
आत्मज,
महाकवि ‘‘निराला’’

 

आदिपर्व

 

 

वंश-परिचय
 

 

देव और दानवों में सदा युद्ध छिड़ा रहता था। दैत्य देवों से सहजोर पड़ते थे, क्योंकि वे देवों के बड़े भाई थे, पुनः उनमें प्राण-शक्ति अधिक थी, एक और भी कारण था। दैत्यों के पूज्य गुरु शंकराचार्य मुर्दे को जिला देनेवाला संजीवनी-मन्त्र जानते थे। यद्यिप देवता अमर थे, और बुद्धि में असुरों से श्रेष्ठ, फिर भी बारम्बार असुरों की मरी हुई सेना को पुनः जीवित होते देख घबरा गये थे।

देवों के गुरु बृहस्पति ने देवों को बचाने का एक उपाय सोचा। श्रद्धा, भक्ति तथा सेवा आदि गुणों से असुर-गुरु को प्रसन्न कर, उन्हें शिष्य-प्रीति द्वारा आकर्षित कर, उनसे संजीवन-मन्त्र का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्होंने अपने परम रूपवान सरल-स्वभाव, ब्रह्मचारी पुत्र कच को उनके पास भेजा। कच की सेवा, श्रद्धा और गुरु-भक्ति देखकर अमर-गुरु शुक्राचार्य द्रवित हो गये और उपयुक्त अधिकारी जान उसे संजीवन-मन्त्र सिखलाने का निश्चय कर लिया। आचार्य शुक्र की कन्या देवयानी कच के रूप और गुणों की दिव्य छटा देखकर उस पर मुग्ध हो गयी, और उसे हृदय से प्यार करने लगी, जब असुरों को यह मालूम हुआ कि बृहस्पति-पुत्र कच आचार्य के पास अध्ययन करने के लिए आये हुए हैं, उन्होंने स्वभावतः शंका हुई; कहीं ऐसा न हो जिस विद्या के बल पर हम लोग विजयी होते हैं, वह आचार्य की कृपा से इसे प्राप्त हो जाये। उन लोगों ने, शत्रु-पक्ष का होने के कारण, विद्यार्थी का प्राणान्त कर देने का निश्चय कर लिया। पर आचार्य से डरते थे, इसलिए छिप कर ऐसा करने का संकल्प लिया। और, एक दिन कच को उन्होंने मार भी डाला।

जब यह हाल देवयानी को मालूम हुआ, उसने पिता से कह मन्त्र-शक्ति द्वारा कच को पुनः जीवित करा लिया। असुरों ने फिर भी कई बार कच के प्राण लिये, पर देवयानी के प्रेम तथा शुक्राचार्य के संजीवन-मन्त्र के प्रताप से वह प्रति बार बचता रहा। यथा समय कच ने वह मन्त्र-शक्ति भी आचार्य से प्राप्त कर ली। अध्ययन समाप्त हो चुका था। गुरु की आज्ञा तथा पद-धूलि ग्रहण कर बिदा होते समय कच देवयानी से भी मिलने गया। देवयानी को कच के विछोह से बड़ी व्याकुलता हुई, और उस समय लाज के परदे में ढंका हुआ कच के प्रति अपना अपार प्रेम प्रकट किया। परन्तु गुरु-कन्या जानकर कच ने उस प्रेम का प्रत्याख्यान किया। इससे देवयानी को क्रोध हुआ। कच को प्राण-दान अब तक उसी ने दिया था—एक बार नहीं, अनेक बार, अतः उसके प्राणों की वह अधिकारणी हो चुकी थी, पर कच अपने प्राणों की बाजी लगाकर एक उद्देश्य की सिद्धि के लिए वहाँ गया था, पुनश्चः देवयानी उसके गुरु की कन्या थी जिसे सदा ही वह धर्म-बहन समझता आ रहा था; इसलिए धर्म तथा उद्देश्य को ही उसने प्रधान माना। देवयानी ने कच के दिल की कचाई देखकर प्रेम के उन्माद में श्राप दे दिया, उसकी सीखी हुई विद्या निष्फल हो जाये। कच ने भी उद्देश्य की दृढ़ता पर अटल रहकर शाप दिया कि उसका यह अवैध प्रेम विवाह की हीनता को प्राप्त हो—उसे ब्राह्मण जाति का कोई पुरुष पत्नी-रूप में स्वीकार न करे। अमरावती पहुँचकर कच ने वह विद्या दूसरे को सिखा दी, और देवताओं का मनोरथ सफल किया।

दैत्यों के महाराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से देवयानी की गहरी मित्रता थी। पर स्पर्धा-भाव दोनों में प्रबल था। देवयानी एक तो गुरु पुत्री और ब्राह्मण-कन्या होने के कारण अपने को श्रेष्ठ समझती थी; दूसरे, स्वभाव से भी उसकी सिर उठाकर चलनेवाली वृत्ति थी। महाराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मनिष्ठा राजकुमारी ही थी, इसलिए उसमें बड़पप्न का भाव रहना स्वाभाविक था। एक दिन दोनों में तकरार हुई। शर्मिष्ठा ने देवयानी को कुएँ में धकेल दिया। दैव-योग से महाराज ययाति वहां मृगया के लिए आये थे, उन्होंने देवयानी को कुएँ से बाहर निकाला। कालान्तर में उन्हीं के साथ देवयानी का विवाह हो गया।

बदले का उग्र भाव देवयानी में था ही। उसने हठ किया कि राजकुमारी शर्मिष्ठा को अपनी दासियों के साथ में सेवा के लिए महाराज वृषपर्वा भेज दें। इस खबर से दैत्य-वंश में बड़ी खलबली मच गयी। दैत्यराज वृषपर्वा भी घबराये। उन्हें यह चिन्ता हुई कि गुरु-कन्या की आज्ञा का उल्लंघन किया गया, तो सम्भव है, गुरु रुष्ठ हो जायें। पिता को बड़े सोच में देख राज्य तथा जाति के कल्याण के विचार से शर्मिष्ठा ने स्वंय पिता से आज्ञा लेकर देवयानी की सेवा स्वीकार कर ली। शर्मिष्ठा के रूप, यौवन, शील और सेवा-भाव से महाराज ययाति मुग्ध हो गए और देवयानी की आँख बचाकर उससे विवाह कर लिया। इस गुप्त विवाह का कारण यह था, वह शुक्राचार्य को वचन दे चुके थे कि शर्मिष्ठा से विवाह न करेंगे। परन्तु विवाह का भेद कुछ ही दिनों तक छिपाया जा सकता है। एक दिन यह परदा देवयानी की आँखों के सामने से उठ गया। पति की इस कुचेष्टा से क्रोधित होकर उसने पिता से सारा हाल कहा। महर्षि शुक्राचार्य ने महाराज ययाति को इन्द्रिय-श्लथ तथा वृद्ध हो जाने का शाप दिया। यद्यपि ययाति के तब तक कई पुत्र हो चुके थे, तथापि उनकी भोगेच्छा का उपशम न हुआ था।

 उन्होंने नम्रतापूर्वक शुक्राचार्य से क्षमा-याचना करते हुए शाप मुक्त होने का उपाय पूछा। शुक्राचार्य ने कहा यदि उनका कोई पुत्र उन्हें अपना यौवन देकर व्याधि अपने शरीर पर धारण करे, तो वह पुनः गत यौवन प्राप्त कर सकते हैं। महाराज ययाति ने अपने पुत्रों को बुलाकर उनसे यौवन की याचना की, परन्तु एक-एक कर सबने इन्कार कर दिया। शर्मिष्ठा के गर्भ से पैदा हुए पुरु ने पिता की इच्छा पूर्ण की। महाराज ययाति ने तब पुरु को सिंहासन का उत्तराधिकारी घोषित किया। पुरु के वंश में महाराजा दुष्यन्त, शकुन्तला-पुत्र भरत और कुरु आदि तेजस्वी राजा हुए। इन्हीं कुरु के वंशज ही बाद में कौरव कहलाये। महाराज ययाति के पुत्र यदु से यदुवंशियों की शाखा चली।

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