लोगों की राय

सामाजिक >> डूब

डूब

वीरेन्द्र जैन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3068
आईएसबीएन :81-7055-219-2

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

79 पाठक हैं

बुंदेलखंड अंचल पर केन्द्रित पूरे भारत राष्ट्र-राज के सच और वर्तमान को उजागर करता उपन्यास

Doob

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मध्य प्रदेश साहित्य परिषद (प्रदेश की साहित्य अकादमी) विकास प्रक्रिया के तले दबे ग्रामीण जन की त्रासदी के सूक्ष्म और संवेदनशील विश्लेषण, व्यापक दृष्टि, स्वानुभवमूलक यथार्थ की सशक्त सर्जना, भाषिक सहजता और रचनात्मक श्रेष्ठता की दृष्टि से ‘डूब’ उपन्यास के लिए श्री वीरेन्द्र जैन को अखिल भारतीय वीरसिंह देव पुरस्कार से अलंकृत करता है

‘गोदान’ और  ‘मैला आँचल’ के बाद के भारतीय ग्रामीणजन के शासन और समाज द्वारा किये गये सुनियोजित दमन, शोषण और दस्तावेज है डूब, जिसे वाणी प्रकाशन द्वारा उपेक्षा का मर्मस्पर्शी संस्थापित और संचालित ‘प्रेमचन्द्र महेश सम्मान’ (89-90) में प्रतियोगी बनी पांडुलिपियों में सर्वश्रेष्ठ निर्णीत किया- सर्वश्री राजेन्द्र यादव, डॉ.निर्मल जैन और डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने।

विकाश योजनाओं के नाम पर विनाश को अभिशप्त पीढ़ियों की यह कथा बुंदेलखण्ड अंचल पर केन्द्रित होते हुए भी पूरे भारत राष्ट्र-राज के ‘सच’ और वर्तमान को उजागर कर जाती है। ग्रामीण जीवन का इतना सहज, जीवंत और मार्मिक चरित्र हिंदी कथा साहित्य में अद्वितीय है। शैली और भाषा की दृष्टि से यह एक बेजोड़ कृति है।

राजनीति, प्रशासन, अर्थतंत्र और धर्म-व्यवस्था सभी मिलकर किस तरह गाँव का जीवन-रस सोख रहे हैं, इसकी कहानी है ‘डूब’। यहाँ एक गाँव के वर्तमान के बहाने आजादी के बाद का समूचा ग्रामीण भारत अपनी विपन्नता के साथ खड़ा है।

 

एक

 

उपरली दाढ़ के पास वाले दो दाँतों के बीच आज एक सुपारी की टुकड़ी आ फँसी। माते पिछले तीन घंटे से उसे चुबलाने के सभी प्रयास कर चुके थे पर वह निकलने का नाम नहीं ले रही थी।

बत्तीस के बत्तीस दूध के दाँतों को उगते, गिरते, फिर नए दाँतों को उगते और असमय गिरते हुए देखने वाली जीभ ने, जो ता-उम्र इनकी हिफाजत में जुटी रही है, आज भी जब से सुपारी फँसी, कई बार उस तरफ जा-जाकर सुपारी को टटोला है और अपने दम पर बाहर खींच निकालने के लिए खुद को लहू-लुहान कर लिया।

मगर इन अहसान-फरामोश दाँतों ने उसके सद्प्रयासों के चलते जब ज़रा तकलीफ महसूस की, उसे अपने बीच चबा जाने की कुचेष्टा की है।

अब इतनी देर से माते बार-बार उस हिस्से पर अँगुली ले जा रहे हैं पर सुपारी पकड़ में नहीं आ रही है।
बुरा हो साव के लड़के का जो उसने आज सवेरे ही ‘नेलकटर’ दिखाने के चाव में उसके नाखून भी काट दिए।
नाखून ने होने से अँगुलियों का भेद खुल गया। वे स्वभाव से मुलायम हैं। नाखूनों के रहने पर ही सख्त हो पाती हैं।
क्या करें ? माते यही नहीं सोच पा रहे हैं।
हारकर वे निढाल हो आए। मुँह से निकला, ‘‘सब करमन का फेर है, करम बड़े बलवान मोरे भाई, करम बड़े बलवान !’’
पिछले दो-एक साल से कई बातों पर माते यही बोल आम तौर पर कहने लगे हैं। यही बोल वह अकेले में भी घोकते रहते हैं। कई बार लगता है, हालात के आगे पलायन कर गए माते के मुँह से अपनी लाचारी फूट रही है और कभी लगता है, वे यों ही आदतन कह दिए गए हैं।
इस समय कहे गए बोल आदतन हैं या हालातजन्य, कह पाना कठिन है। यह सुपारी जो दाँतों के बीच आ फँसी है, यह इस बात को नहीं मानने देती कि माते हालात के आगे लाचार हो चुके हैं।
सुबह-सवेरे ही घूमा ने उनकी बाखर में आकर सूचना दी थी, ‘‘माते, आपको मालूम है क्या ? रघु साव गाँव से डेरा उठा रहे हैं !’’
सुनकर माते भीतर तक हिल गए थे—‘नहीं रे, यह कैसे हो सकता है ! अब अपना राज आया तो जे भग चले !’
यह भी उन्होंने घूमा से नहीं कहा था। वे तो खुद से ही बातें करते थे। फिर घूमा की तरफ देखने लगे, जैसे घूमा अभी आकर खड़ा ही हुआ हो और कुछ कहना चाहता हो।
घूमा बोला, ‘‘माते, हम झूठ थोड़ेई बोल रहे हैं। हम अपनी आखों से देखकर आए हैं, साव घर का सब सामान पुटइयों में बँधवा रहे थे।’’
‘‘हम ऐसा नहीं होने देंगे। चल रे तू मोरे साथ, चल। मैं साव को मना करता हूँ। समझाता हूँ चल के....’’ और बिना घूमा की कोई बात सुनने का अवसर लिये माते ओसारे में चले गए। खाट पर से अपनी कट्टी उठाकर कंधे पर डाली और तेजी से बाहर चल दिए। उनके चलते ही घूमा भी पीछे-पीछे चलने लगा।

बाखर के बाहर पहुँचकर माते ने मुड़कर देखा। घूमा को अपने पीछे आता हुआ देखकर बोले, ‘‘जा रे, तू जाकर बड़े साव, सरपंच, मुखिया, मास्साव, बड़े ठाकुर और बामन महाराज को खबर दे।’’
घूमा तेजी से मुड़ा। जैसे फौज का जवान फौरन हुक्म बजाने को तैयार रहता है। दो-चार तेज कदम चलने पर उसके चेहरे पर असंतोष झलक आया। माते से कुछ दूर पहुँचकर घूमा को लगा, पैरों में चमड़े की जूतियों के रहते वह दौड़ नहीं पाएगा। उसने जूतियाँ हाथ में लीं और फिर तेजी से धूल उड़ाता हुआ घटिया उतरने लगा।
घूमा ने आज कट्टी भी पहनी हुई थी। सिर्फ अंगोछे में होता तो शायद और तेज दौड़ लेता। अब रह-रहकर उसे कट्टी के मैले हो जाने का खयाल आ रहा था।
कल रात को रघु साव ने घूमा से कहा था कि वे कहीं बाहर जा रहे हैं इसलिए उसे बैलगाड़ी लेकर राजघाट तक चलना होगा। वहाँ से मोटर में बैठकर साव तो लतपुर और वहाँ से कहीं भी चले जाते। सो घूमा ने यह सोचकर कट्टी और पनैयाँ (जूतियाँ) पहन ली थीं कि वापसी में चंदैई तक होता आऊँगा। हो सकता है, वहाँ कोई साव मिल जाएँ। तब उन्हें या उनके सामान को गाँव तक पहुँचाने के बदले में दो पैसे बन जाएँ।
पर सुबह जो रघु साव के घर पहुँचने पर यह देखा कि वे तो मय पूरे कुनबे के जाने की तैयारी में जुटे हैं, सो वह दौड़ा-दौड़ा यह खबर ले जा पहुँचा था माते के पास।
मुखिया और बड़े साव की बाखर आमने-सामने है। बीच रास्ते पर रुककर घूमा ने आवाज दी, ‘‘मुखिया, ओ मुखिया। साव ओर बड़े साव। तुम्हें रघु साव के चौतरा पर माते ने बुलाया है।’’
अपना समाचार देकर, बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए, धूल में सना घूमा तेजी से आगे दौड़ गया। सरपंच के घर, ठाकुर जी की हवेली पर, बामन महाराज के घर और मस्साव के घर, सभी के घरों के बाहर वही वाक्य दोहराकर घूमा क्षण-भर को सुस्ताने के लिए थमा। फिर दूने उतावले पन के साथ उलटी दौड़ लगाई, रघु साव के चौंतरा पर जा पहुँचने के लिए।

तीन तरफ से पहाड़ों से घिरे और एक तरफ से नदी से छिके इस लड़ैई गाँव के अभी यह भी बहुत कम लोगों को मालूम है कि वे राजमाता से नहीं, अंग्रेजों से स्वतंत्र हुए हैं।

बहुत-से लोग बस यहाँ तक जानते हैं कि सन् 1857 में उनके पूर्वजों ने झाँसी की रानी की भरपूर मदद की थी। जब रानी युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुईं, उसके बाद पूरी रियासत में लूटपाट मची थी—रानी के जितने भी हितू थे, उन्हें उस गुस्ताखी का सबक सिखाने के लिए। सो इनके पूर्वज उस रियासत से भाग खड़े हुए थे और जंगल-जंगल भटकते हुए चंदैई महाराज की सीमा में आ बसे थे।

फिर कुछ ही समय बाद चंदैई पर भी लश्कर के राजा का शासन हो गया था। तब से वे उसी राजा के अधीन थे। और अब वे आजाद हो गए हैं।
आजादी की खुशी सबको हुई थी।
क्यों ?—यह कोई नहीं बता सकता।
इस गाँव में दो-तीन मुसलमान भी घटिया-ऊपर रहते थे। उन्हीं के बीचों-बीच रघु साव का मकान है।
आजादी की लहर में जब यह सुना कि मुसलमानों के रहते आजादी का कोई अर्थ नहीं, तब उन्हें भी मार डाला गया।
मरते-मरते मुसलमान भी अपने निकटतम पड़ोसी रघु साव का बंटाढार कर गए।
गाँव के मारे गए सभी मुसलमानों के शव पूरे धार्मिक अनुष्ठान और रीति-नीति के साथ दूर जंगल में गड्ढे खोदकर गाड़ दिए गए और उन पर बड़े-बड़े पत्थर रख दिए गए, जो आज ‘मुसलमानी पथरा’ के नाम से जाने जाते हैं।
इस तरह पूरी आजादी मिल जाने का बिगुल बजा दिया गया।

पर माते को सब मालूम हो गया कि आजादी क्या आई है और किससे आई है।
पिछले साल बड़े साव के लड़के के साथ माते जिला शहर गए थे। वहाँ उन्हें मालूम हो गया था कि अब अंग्रेज यहाँ नहीं रहे। महाराज के दरबारियों के साथ जो मेमें नंगी टाँगें लटकाए, घोड़ों पर सवार, कभी-कभी गाँव में आती थीं, वे अब नहीं आएँगी।

-कि गाँधी नाम का एक बड़ा महात्मा देश को आजाद करवाकर स्वर्ग सिधार गया है।
-कि अब पंडित जवाहरलाल नेहरू हमारे बिना राजा वाले देश के महामंत्री हैं।
अलबत्ता यह बात उन्हें जँची नहीं कि जब राजा ही नहीं है तो महामंत्री काहे का !
फिर भी उन्होंने मान लिया कि जब सब कहते हैं तो जरूर वे महामंत्री होंगे।
और जब कुछ समय बाद महारानी के दरबार से उनके लिए जीप आई, उन्हें ससम्मान बिठाकर राजमहल ले गई, वहाँ राजमाता के दर्शन किए, तब तो उन्हें और भी बातें बहुत-सी बातें मालूम हुईं।

-कि पिछले दो सौ बरस से हम पर सफेद मुँह वाले वे आदमी हुकूमत चला रहे थे जिन्हें हम अंग्रेज कहते हैं। जिनकी मेमें घोड़ों पर आती थीं। जिनकी गिटर-पिटरवाली बोली कभी किसी की समझ में नहीं आती थी।
मेमों का खयाल आते ही माते को बेइंतहा गुस्सा आया था।
आना ही था।
एक बार जब एक मेम उनके गाँव की सैर करके लौटी, तभी माते ने देखा कि उनकी पत्नी अपनी धोती घुटने तक ऊपर सरकाकर बड़े ध्यान से सुडौल पिंडली और टाँगें निहार रही थी।
माते ने तड़ाक से उसकी पीठ पर एक धौल जमाकर कहा था, ‘‘देखो तो इस कुलच्छिनी को, यह तो बहुत ही बेशरम हुई जा रही है !’’
माते ने उस घटना की याद आते ही भरे दरबार में थूककर अपने गुस्से का शमन करना चाहा था, मगर चारों तरफ बिछे कालीन और गलीचे को देखकर अपना थूक गटक गए थे।
उसी दिन उन्हें यह जानकारी मिली थी कि अब उनके गाँव में पंचायती राज होगा। गाँव के लोगों में से ही सरपंच और पंचों का चुनाव होगा। यानी जो सरपंच चुना जाएगा, उसी का राज। और चुनाव होगा वोटों के आधार पर।
पहले-पहल यह सुनकर माते को अपना ही खयाल आया था। पर यह जान लेने के बाद कि चुनाव क्या होता है, पार्टी क्या होती है, कितना रुपया-पैसा खर्च होता है—माते को अपना नाम पूछे जाने पर भी याद नहीं आया। अलबत्ता वे मोती साव का नाम राजमाता की पार्टी में सरपंची के लिए जरूर दर्ज करवा आए थे।
यह जान लेने के बाद कि राजमाता उन पर राज नहीं करती थीं, माते ने उनके प्रति विचार भी बदल लिये थे।
गाँव में आकर माते ने मोती साव को भी सब नफा-नुकसान समझा दिया। चुनाव न होने के बावजूद वे उन्हें ‘सरपंच’ कहने लगे और हर काम में अगुआ भी बनाने लगे थे।
पर राजकाज के काम एक अकेले माते के भरोसे तो चलने नहीं थे। कुछ ही दिनों बाद गाँव के ठाकुर देवीसिंह को राजमाता का फरमान मिला।

वे भी दरबार में हाजिर हुए। पर उन्हें दो-एक बात बहुत नागवार जान पड़ीं। एक तो यह कि जहाँ माते को लेने जीप आई थी, वहीं उन्हें कहने केवल एक पैदल सवार। दूसरे, वहाँ पहुँचने पर उनकी आवभगत मनमाफिक नहीं हुई। इसलिए सब-कुछ मालूम हो जाने के बाद भी उनके बुंदेला खून ने राजमाता की सरपरस्ती कबूल नहीं की।
अलबत्ता उन्हें दुसरी पार्टी ने हाथों-हाथ लिया, और कुछ ही दिनों बाद यह अफवाह फैल गई—कि ठाकुर देवीसिंह आजादी दिलाने वाली पार्टी के कर्मठ कार्यकर्ता हैं।
-कि उन्होंने आजादी की लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेकर देश की बहुत सेवा की है !
बात माते तक भी पहुँची। उन्हें अपने कानों से, वह भी तीसरे के मुँह से सुनकर, यकीन नहीं हुआ।
वे ठाकुर से मिले। उन्हें समझाया कि जिन्होंने तुम्हें ज्ञान दिया, तुम्हारा मान बढ़ाना चाहा, उनकी बजाय तुम दूसरे लोगों से मेलजोल मत बढ़ाओ। तुम्हें राजमाता को अपना सरपरस्त और गुरु मान लेना चाहिए। पर ठाकुर ने उनकी बात पर कान देना गैरजरूरी समझा।
माते ने सब तरह का वास्ता दिया, मगर ठाकुर तब भी टस से मस होते न दिखे, तो चलते-चलते उन्हें अपना गुरु मानकर इतना-भर पूछा, ‘‘ठाकुर, जा तो बताओ, तुम सब-कुछ जान लेने के बाद भी बच कैसे पाए ‘हाँ’ भरने से ?’’
ठाकुर को माते की बुद्धि पर तरस आ गया। उन्होंने बुंदेलखंडी कहावत का सहारा लेकर एक ही वाक्य में माते को समझा देना चाहा जो ठाकुर के मुताबिक मंदबुद्धि माते को लाख कोशिशों के बाद भी किसी तरह नहीं समझाया जा सकता था।
ठाकुर बोले, ‘‘माते, तुमने वो कहावत तो सुनी होगी और इसका मतलब भी जानते होओगे कि ‘बिलैया (बिल्ली) ने जनाउर (शेर) को सब-कछु सिखा दओ तो, अकेलें (लेकिन) रूख (पेड़) पर चढ़वो नहीं सिखाओ तो !’’
माते उनके यहाँ से चले आए। पर वे बिना सिखाए रूख पर चढ़ना सीखकर आए थे। उन्होंने यह बात गाँठ बाँध ली कि अकेले मोती साव के भरोसे नहीं बैठना है। जब तक चुनाव न हो जाएँ, ठाकुर भी ‘जै राम जी’ की करते रहने होगा। इसीलिए वे तभी से ठाकुर को भी हर काम में, हर मौके पर, टेर लगवाने लगे थे।

जिला-शहर के दस-बारह चक्कर वे बिना बड़े साव के लड़के को साथ लिये भी लगा आए थे। कारज ही कुछ ऐसे थे। अब माते को गाँव को सभी घरों का ब्यौरा जुबान पर रटा हुआ था। बीस घर बानियों (साव) के, पचपन घर अहीरों के, तीन घर कछियों के, पाँच घर ठाकुरों के, दो घर गड़रियों के, बारह घर चमारों के, एक घर बसोर का, एक घर ढीमर का, चार बामनों के, तीन लुहारों के, एक सुनार का, एक चौकीदार का, दो घर सलैयों के, एक धोबी का, तीन घर खवासों के, एक घर बढ़ई का—कुल 115 घर। वोट देने के हकदार सात सौ तीन आदमी।
उन पत्थरों के पास गुजरते हुए माते को बहुत अफसोस होता था। अब वे सोचते थे कि—काश ये ‘मुसलमानी पथरा’ न गड़े होते तो गाँव में तेरह वोट और थे।

आसपास के पाँच गावों पर एक पंचायत बननी थी। बाकी गाँव छोटे-छोटे हैं और उन सभी में राउत (भील) बसते हैं। वे सब ठाकुर के दबदबे में हैं, इसलिए माते उनकी गिनती कभी नहीं करते।
आज घूमा की बात सुनकर माते को यही खयाल पहले-पहल आया कि गाँव से तीन वोट उठकर चले जा रहे हैं। रघु साव और उनके दोनों लड़कों के वोट माते को ही मिलते।
इसलिए उन्हें चिंतित होना पड़ा। आजादी के वलवले में इस घर के जो तीन वोट, रघु और उनके दोनों बेटों की पत्नियों के रूप में स्वाहा हो गए, माते अभी तक उन्हीं परसोस करते रहे हैं और इधर हाथ से तीन वोट और निकले चले जा रहे हैं !
भला माते ऐसा अंधेर कैसे होने दे सकते थे !
वे तुरंत इस अनहोनी घटना को रोकना चाहते हैं....

घूमा के पहुँचने तक बड़े साव, मुखिया, सरपंच और बामन महाराज आ पहुँचे थे। माते और वे सब मिलकर रघु साव को समझा रहे थे। पर न रघु, न उनके लड़के, कोई भी गाँव में बने रहने पर राजी नहीं हो रहा था।
वे गाँव में रहकर करते भी क्या ? उनके पास गाँव में जमीन-जायदाद तो थी नहीं। जो गुजर-बसर का टीम-टाम परचून की दुकान की थी, उसे मुसलमान उजाड़, आग लगाकर राख कर गए थे। तीनों को रंडुआ बना गए थे। दो छोटे-छोटे बच्चों को भी जान से मार गए थे।
ये तीनों तब गाँव में नहीं थे सो बच गए, या कहिए, सो तबाह हो गए। अब इनका इस गाँव में मन लगे तो लगे कैसे ?
ठाकुर देवीसिंह जब वहाँ पहुँचे तो उन्हें हालात अच्छे नजर आए। ठाकुर को रघु साव से कोई उम्मीद नहीं थी। इसीलिए सबके समझाने पर भी जब दोनों के बेटे पवन और चिप्पू नहीं माने तो ठाकुर ने हिकारत के साथ कहा, ‘‘तो जाओ न फिर, जहाँ सींग समाएँ वहीं जा रहो। यहाँ काहे को ठसक दिखा रहे हो ?’’

ठाकुर ने और भी कई व्यंग्यबाण छोड़े। ठाकुर की लताड़ ने अपना असर दिखाया। अब तक थोड़े-बहुत असमंजस में खड़ा पवन यकायक आवेश में आ गया और दोनों हाथों से सामान उठाकर बैलगाड़ी में रखने लगा।
ठाकुर को धाराप्रवाह बोलता देखकर माते चुप लगा गए थे। उन्होंने ठाकुर को ज्यादा-से-ज्यादा बोलने का मौका देना चाहा, ताकि इनके गाँव छोड़कर जाने का सारा दोष ठाकुर के सिर मढ़ सकें।
इसीलिए माते ने इत्मीनान से चौंतरा पर बैठकर कट्टी के खलीते में से तंबाकू-सुपारी की थाली निकाली। सरौते से सुपारी के कई टुकड़े किए। तंबाकू हाथ पर रगड़ी। उसमें सुपारी मिलाई। पूरी क्रिया उन्होंने गर्दन झुकाए-झुकाए आत्मलीन होकर निबटाई।
वे ठाकुर की तरफ देखना तक नहीं चाहते थे। कहीं ऐसा न हो कि ठाकुर से उनकी आँखें मिलते ही ठाकुर चुप लगा जाएँ।
अचानक खटर-पटर की आवाज सुनकर उन्होंने गर्दन उठाई। पवन दोनों हाथों से कनस्तर उठाकर बैलगाड़ी की तरफ जा रहा था।

माते ने एक मुट्टी में सुपारी-तंबाकू चाँपी और चौंतरा से उठकर पवन को डपटते हुए बोले, ‘‘क्यों बेटा, सुनते नहीं हो क्या ? इतने बड़े-बड़े लोगबाग लगे हैं तोहे समझाने ?’’
अपनी बात पूरी करने के साथ ही माते ने पवन को कनस्तर जमीन पर रखने का संकेत दिया। पवन क्षण-भर असमंजस में पड़ गया। क्या करे, क्या न करे !
पवन को थिर होता देख माते आश्वस्त हो गए। चेहरे पर यकायक हल्की-सी विजयी मुस्कान तैर आने को हुई। माते ने ठाकुर की तरफ देखा और मुट्ठी में बंद सुपारी-तंबाकू का फाका बनाकर मुँह में धप्प से फेंका।
तभी अचानक पवन ने धप्प से जमीन पर कनस्तर पटके और अपने दोनों हाथ आकाश की ओर उठाए। बेध्यानी में उसका एक हाथ सीधा माते की ठोड़ी पर लगा।
पवन तो तुरंत सँभल गया, मगर इस जरा सी गफलत में सुपारी का एक टुकड़ा माते के बचे-खुचे दाँतों में से दाँतों के बीच की दरार में फँस गया।

माते दाँत कुरेदते जा रहे थे और आज का घटनाचक्र उन्हें बहुत-कुछ सोचने पर विवश कर रहा था। माते आपनी सब कोशिशों के बाद भी रघु साव को गाँव में रोके रखने में समर्थ नहीं हो पाए थे। पर उन्हें इस बात का संतोष अवश्य था कि चार लोगों को उन्होंने यह बात उजागर दिखा दी है कि ठाकुर की नजर में गाँव की कोई कद्र नहीं। कोई गाँव छोड़कर जाए या मरे, उन्हें अपनी ठकरास दिखानी ही दिखानी है।
ठाकुर के वहाँ से टल जाने के बाद जब बड़े साव, बामन महाराज, मुखिया, मास्साव और ढेर सारे किसान बचे रह गए, तब माते ने कहा था कि वे एक बार यही बात अपने मुँह से भी कह दें कि अगर ठाकुर को बीच-बचौवल के लिए न बुलाया गया होता तो रघु साव शर्तियाँ गाँव छोड़कर नहीं जाते।

पर माते ऐसा नहीं कह सके। इसी घटना के दौरान एक और ब्रह्म सत्य का भी आभास जो हुआ था माते को। वह यह कि मोती साव सरपंची के योग्य नहीं हैं।
माते के इतना उकसाने पर भी मोती साव की दुबान से रघु साव के सामने दो बोल तक नहीं फूटे। न तसल्ली के, न झिड़क के। सो माते अपना मन मारकर रह गए थे।
अब पिछले तीन घंटे से वे यही सोच रहे थे कि मोती को सरपंची के लिए नामजद करवाकर उन्होंने कोई भूल तो नहीं की न ?
माते अपने भाग्य को फिर कोसने लगे, ‘‘सब करमन को फेर है, करम बड़े बलवान भाई, करम बड़े बलवान !’’
पर करमों को कोसने का समय तो नहीं है माते के पास। दिन ही कितने रह गए हैं लोकसभा, विधानसभा, पंचायतसभा के चुनाव के !

माते कुछ सजग हो आए। तीन घंटे से जिस आसन पर बैठकर दाँतों की थाह लेने की दुश्चेषटा कर रहे थे, उसे वहीं तिलांजलि दी और कट्टी कंधे पर डालकर उठ खड़े हुए।
फिर स्वतः ही बोले, ‘‘दाँतन में जा सुपारी तो मोती साव की नाईं मो से चैंट गई है !’’



प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book