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मानसरोवर - भाग 1

प्रेमचंद

प्रकाशक : सुमित्र प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :215
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3108
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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प्रेमचन्द उपन्यास पर आधारित मानसरोवर की कहानियों का वर्णन....

Mansarovar--1

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रेमचन्द की कहानियों के विषय में....

जब हम एक बार लौटकर हिन्दी कहानी की यात्रा पर दृष्टि डालते हैं और पिछले सत्तर-अस्सी वर्षों के सामाजिक विकास की व्याख्या करते हैं, तो अगर कहना चाहे तो बहुत सुविधाजनक कह सकते हैं कि कहानी अब तक प्रेमचन्द से चलकर प्रेमचन्द तक ही पहुँची है। अर्थात सिर्फ प्रेमचन्द के भीतर ही हिन्दी कहानी के इस लम्बे समय का पूरा सामाजिक वृतान्त समाहित है। समय की अर्थवत्ता जो सामाजिक सन्दर्भों के विकास से बनती है, वह आज भी, बहुत साधारण परिवर्तनों के साथ जस की तस बनी हुई है। आप कहेंगे कि-क्या प्रेमचन्द के बाद समय जहाँ काम तहाँ टिका रह गया है ? क्या समय का यह कोई नया स्वाभाव है ? नहीं, ऐसा नहीं। फिर भी संन्दर्भों के विकास की प्रक्रिया जो सांस्थानिक परिवर्तनों में ही रेखांकित होती है और समय ही उसका कारक है- वह नहीं के बराबर हुई। आधारभूत सामाजिक बदलाव नहीं हुआ। इस लम्बे काल का नया समाज नहीं बन पाया। धार्मिक अन्धविश्वास और पारम्परिक कुंठाएँ जैसी की तैसी बनी रहीं। भूमि-सम्बन्ध नहीं बदले। अशिक्षा और सामाजिक कुरीतियों का अंधकार लगातार छाता रहा। यत्र-तत्र परस्थितियों और परिवेश के साथ ही सामान्य सामाजिक परवर्तन अथवा मनोवैज्ञानिक बारीकियों को छोड़ दे तो शिल्प के क्षेत्र में भी जहाँ सीधे-सादे वाचन में ‘पूस की रात’, ‘कफ़न’, ‘सदगति’ जैसी कहानियाँ वर्तमान हों, कोई परिवेश अथवा परिवर्तन की बारीक लक्षणा और चरित्रांकन की गहराई के लिए किसी दूसरी कहानी का नाम ले तो भी इन कहानियों को छोड़कर नहीं ले सकता। अपने समय और समाज का ऐतिहासिक सन्दर्भ तो जैसे प्रेमचन्द की समस्त भारतीय साहित्य में अमर बना देता है।

-मार्कण्डेय

अलग्योझा



भोला महतो ने पहली स्त्री के मर जाने के बाद दूसरी सगाई की तो उसके लड़के रग्घू के लिए बुरे दिन आ गये। रग्घू की उम्र उस समय केवल दस वर्ष की थी। चैन से गाँव में गुल्ली- डंडा खेलता फिरता था। माँ के आते ही चक्की में जुटना पड़ा। पन्ना रूपवती स्त्री थी और रूप और गर्व में चोली-दामन का नाता है। वह अपने हाथों से कोई मोटा काम न करती। गोबर रग्घू निकालता, बैलों को सानी रग्घू देता। रग्घू ही जूठे बरतन माँजता। भोला की आँखें कुछ ऐसी फिरीं कि उसे अब रग्घू में सब बुराइयाँ-ही-बुराइयाँ नजर आतीं। पन्ना की बातों को वह प्राचीन मर्यादानुसार आँखें बन्द जरा भी परवाह न करता।

 नतीजा यह हुआ कि रग्घू करके मान लेता था। रग्घू की शिकायतों की जरा भी परवाह न करता। नतीजा यह हुआ कि रग्घू ने शिकायत करना छोड़ दिया। किसके सामने रोये ? बाप ही नहीं, सारा गाँव उसका दुश्मन था। बड़ा जिद्दी लड़का है, पन्ना को तो कुछ समझता ही नहीं, बेचारी उसका दुलार करती है, खिलाती पिलाती है। यह उसी का फल है। दूसरी औरत होती, तो निबाह न होता। वह तो कहो, पन्ना इतनी सीधी-सादी है कि निबाह होता जाता है। सबल की शिकायतें सब सुनते हैं, निर्बल की फरियाद भी कोई नहीं सुनता। रग्घू का हृदय माँ की ओर से दिन-दिन फटता जाता था। यहाँ तक कि आठ साल गुजर गये। और एक दिन भोला के नाम मृत्यु का सन्देश आ पहुँचा।

पन्ना के चार बच्चे थे-तीन बेटे और एक बेटी। इतना बड़ा खर्च और कमानेवाला कोई नहीं। रग्घू अब क्यों बात पूछने लगा। यह मानी हुई बात थी। अपनी स्त्री लायेगा और अलग रहेगा। स्त्री आकर और भी आग लगायेगी। पन्ना के चारों ओर अंधेरा-ही-अंधेरा दिखाई देता था। पर कुछ भी हो, वह रग्घू की आसरैत बनकर घर में न रहेगी। जिस घर में उसने राज किया, उसमें अब लौंडी न बनेगी। जिस लौंडे को अपना गुलाम समझा, उसका मुँह न ताकेगी। वह सुन्दर थी, अवस्था भी कुछ ऐसी ज्यादा न थी। जवानी अपनी पूरी बाहर पर थी। क्या वह कोई दूसरा घर नहीं कर सकतीं ? यही न होगा लोग हँसेंगे। बला से ! उसकी विरादरी में क्या ऐसा होता नहीं। ब्राह्मण ठाकुर थोड़े ही थी कि नाक कट जायगी यह तो ऊँची जातों में होता है कि घर में चाहे जो कुछ करो, बाहर परदा ढका रहे। वह तो संसार को दिखाकर दूसरा घर कर सकती है। फिर वह रग्घू की दबैल बनकर क्यों रहे ?

भोला को मरे एक महीना गुजर चुका था। संध्या हो गई थी। पन्ना इसी चिन्ता में पड़ी हुई थी कि सहसा उसे खयाल आया, लड़के घर में नहीं हैं। यह बैलों की लौटने की बेला है, कहीं कोई लड़का उनके नीचे न आ जाय। अब द्वार पर कौन है, जो उनकी देखभाल करेगा। घर से बाहर निकली, तो देखा रग्घू सामने झोंपड़े में बैठा ऊख की गँडेरियाँ बना रहा है, तीनों लड़के उसे घेरे खड़े हैं और छोटी लड़की गर्दन में हाथ डाले उसकी पीठ पर सवार होने की चेष्टा कर रही है। पन्ना को अपनी आँखों पर विश्वास न आया। आज तो यह नई बात है ! शायद दुनिया को दिखाता है कि मैं अपने भाइयों को कितना चाहता हूँ और मन में छुरी रक्खी हुई है। घात मिले तो जान ही ले ले। काला साँप है, काला साँप। कठोर स्वर में बोली-तुम सब के सब वहाँ क्या करते हो ? घर में आओ, साँझ की बेला है, गोरू आते होंगे।
रग्घू ने विनीत नेत्रों से देखकर कहा-मैं तो हूँ ही काकी, डर किस बात का है ?
बड़ा लड़का केदार बोला-काकी रग्घू दादा ने हमारे लिए दो गाड़ियाँ बना दी हैं। यह देख, एक पर हम और खुन्नू बैठेंगे, दूसरी पर लछमन और झुनिया। दादा दोनों गाड़ियाँ खींचेंगे।

यह कहकर वह कोने से छोटी-छोटी गाड़ियाँ निकाल लाया, चार-चार पहिए लगे थे, बैठने के लिए तख्ते और रोक के लिए दोनों तरफ बाजू थे।
पन्ना ने आश्चर्य से पूछा-ये गाड़ियाँ किसने बनायीं ?
केदार ने चिढ़कर कहा-रग्घू दादा ने बनायी हैं, और किसने। भगत के घर से बसूला और रूखानी माँग लाये और झटपट बना दीं। खूब दौड़ती हैं काकी, बैठ खुन्नू, मैं खींचूँ।

खुन्नू गाड़ी में बैठ गया। केदार खींचने लगा। चर-चर का शोर हुआ, मानो गाड़ी भी इस खेल में लड़के के साथ शरीक है।
लछमन ने दूसरी गाड़ी पर बैठकर कहा-दादा खींचो।
रग्घू ने झुनिया को भी गाड़ी में बैठा दिया और गाड़ी खींचता हुआ दौड़ा। तीनों लड़के तालियाँ बजाने लगे। पन्ना चकित नेत्रों से यह दृश्य देख रही थी और सोच रही थी कि यह वही रग्घू है या और।
थोड़े देर के बाद दोनों गाड़ियाँ लौटी; लड़के घर में आकर इस यान-यात्रा के अनुभव बयान करने लगे। कितने खुश थे सब, मानों हवाई जहाज पर बैठ आये हों।
खुन्नू ने कहा-काकी सच, पेड़ दौड़ रहे थे।
लछमन-और बछिया कैसी भागीं सब-की-सब दौड़ीं।
केदार-काकी, रग्घू दादा दोनों गाड़ियाँ एक साथ खींच ले जाते हैं।
झुनिया सबसे छोटी थी। उसका व्यंजनाशक्ति उछल-कूद और नेत्रों तक परमित थी-तालियाँ बजा बजाकर नाच रही थी।
खुन्नू-अब हमारे घर गाय भी आ जायेगी काकी। रग्घू दादा ने गिरधारी से कहा है कि हमें गाय ला दो। गिरधारी बोला-कल लाऊँगा।

केदार-तीन सेर दूध देती है काकी। खूब दूध पीयेंगे।
इतने में रग्घू भी अन्दर आ गया। पन्ना ने अवहेलना की दृष्टि से देखकर पूछा-क्यों रग्घू तुमने गिरधारी से कोई गाय माँगी है ?
रग्घू ने क्षमा प्रार्थना के भाव से कहा-हाँ माँगी तो है, कल लावेगा। पन्ना रुपये किसके घर से आयेंगे ? यह भी सोचा है।
रग्घू-सब सोच लिया है काकी। मेरी यह मुहर नहीं है। इसके पच्चीस रुपये मिल रहे है पाँच रुपये बछिया के मुजरा दे दूँगा। बस गाय अपनी हो जायेगी।
पन्ना सन्नाटे में आ गयी। अब उसका अविश्वासी मन भी रग्घू के प्रेम और सज्जनता को अस्वीकार न कर सका। बोली-मुहर को क्यों बेचे देते हो। गाय की अभी कौन जल्दी है। हाथ में पैसे हो जायँ। तो ले लेना। सूना-सूना गला अच्छा न लगेगा। इतने दिनों गाय नहीं रही तो क्या लड़के नहीं जिये ?

रग्घू दार्शनिक भाव से बोला-बच्चों के खाने-पीने के यही दिन हैं काकी। इस उम्र में न खाया, तो फिर क्या खायेंगे। मुहर पहनना मुझे अच्छा भी नहीं मालूम होता, लोग समझते होंगे कि बाप तो मर गया, इसे मुहर पहनने की सूझी है।
भोला महतो तो गाय की चिन्ता ही में चल बसे, न रुपये आये और न गाय मिली, मजबूर थे। रग्घू ने वह समस्या कितनी सुगमता से हल कर दी। आज जीवन में पहली बार, पन्ना को रग्घू पर विश्वास आया, बोली-जब गहना ही बेचना है, तो अपनी मुहर क्यों बेचोगे। मेरी हँसली ले लेना।

रग्घू-नहीं काकी ! वह तुम्हारे गले में बहुत अच्छी लगती है। मर्दों को क्या मुहर पहने या न पहने।
पन्ना-चल, मैं बूढ़ी हुई। मुझे अब हँसली पहनकर क्या करना है। तू अभी लड़का है, तेरा सूना गला अच्छा न लगेगा।
रग्घू मुस्करा कर बोला-तुम अभी से कैसे बूढ़ी हो गयी ? गाँव में, कौन तुम्हारे बराबर है ?
रग्घू की सरल आलोचना ने पन्ना को लज्जित कर दिया। उसके रुखे मुरझाये मुख पर प्रसन्नता की लाली दौड़ गयी।


2


पाँच साल गुजरे गये। रग्घू का- सा मेहनती ईमानदार बात का धनी दूसरा किसान गाँव में न था। पन्ना की इच्छा के बिना कोई काम न करता। उसकी उम्र अब 23 साल की हो गयी थी। पन्ना बार-बार कहती भइया बहू को बिदा करा लाओ। कब तक नैहर में पड़ी रहेगी। सब लोग मुझी को बदनाम करते हैं कि यही बहू को नहीं आने देती, मगर रग्घु टाल देता था। कहता था कि अभी जल्दी क्या है। उसे अपनी स्त्री के रंग-ढंग का कुछ परिचय दूसरों से मिल चुका था। ऐसी औरत को घर में लाकर वह अपनी शान्ति में बाधा नहीं डालना चाहता था।
आखिर एक दिन पन्ना ने जिद करके कहा-तो तुम न लाओगे ?

‘कह दिया कि अभी कोई जल्दी नहीं है।’
‘तुम्हारे लिए जल्दी न होगी, मेरे लिए जल्दी है। मैं आज आदमी भेजती हूँ।’
‘पछताओगी काकी उसका मिजाज अच्छा नहीं है।’
‘तुम्हारी बला से। जब मैं उससे बोलूगी ही नहीं तो क्या हवा से लड़ेगी। रोटियाँ तो बना लेगी। मुझसे भीतर बाहर का सारा काम नहीं होता, मैं आज बुलाये लेती हूँ ?’
‘बुलाना चाहती हो, बुला लो; मगर फिर यह न कहना कि यह मेहरिया को ठीक नहीं करता उसका गुलाम हो गया।’
‘न कहूँगी, जाकर दो साड़ियाँ और मिठाई ले आ।’

तीसरे दिन मुलिया मैके से आ गई। दरवाजे पर नगाड़े बजे। शहनाइयों की मधुर ध्वनि आकाश में गूँजने लगी। मुँह दिखावे की रस्म अदा हुई। वह इस मरुभूमि में निर्मल जल- धरा थी। गेहुँआ रंग था, बड़ी-बड़ी नोकीली पलकें, कपोलों पर हल्की सुर्खी, आँखों में प्रबल आकर्षण रग्घू उसे देखते ही मन्त्र- मुग्ध हो गया।
प्रातःकाल पानी का घड़ा लेकर चलती, तब उसका गेहुँआ रंग प्रभात की सुनहली किरणों से कुन्दन हो जाता, मानो उषा अपनी सारी सुगन्ध सारा विकास और सारा उन्माद लिए मुसकराती चली जाती हो।


3


मुलिया मैके से ही जली भुनी आयी थी, मेरा शौहर छाती फाड़कर काम करे और पन्ना रानी बनी बैठी रहे, उसके लड़के रईसजादे बने घूमें। मुलिया से यह बरदाश्त न होगा। वह किसी की गुलामी न करेगी। अपने लड़के तो अपने ही होते ही नहीं, भाई किसके होते हैं। जब तक पर नहीं निकलते हैं, रग्घू को घेरे हुए हैं। ज्योंही जरा सयाने हुये, पर झाड़कर निकल जायँगे। बात भी न पूछेंगे।
उस दिन उसने रग्घू से कहा-तुम्हें इस तरह गुलामी करनी हो तो करो मुझसे न होगी।
रग्घू तो फिर क्या करूँ, तू ही बता ? लड़के तो अभी घर का काम करने लायक भी नहीं है।

मुलिया-लड़के रावत के हैं, कुछ तुम्हारे नहीं हैं। यही पन्ना है, जो तुम्हें दाने-दाने को तरसाती थी। सब सुन चुकी हूँ। मैं लौंडी बनकर न रहूँगी। रुपये पैसे का मुझे कुछ हिसाब नहीं मिलता। न जाने तुम क्या लाते हो ? और वह क्या करती है। तुम समझते हो रुपए घर ही में तो हैं; मगर देख लेना, तुम्हें जो एक फूटी कौड़ी भी मिले।
रग्घू- रुपए- पैसे तेरे हाथ में देने लगूँ, तो दुनिया क्या कहेगी यह तो सोच।
मुलिया- दुनिया जो चाहे कहे। दुनिया के हाथों बिकी नहीं हूँ। देख लेना, भाड़ लीपकर हाथ काला ही रहेगा। फिर तुम अपने भाइयों के लिए मरो, मैं क्यों मरूँ।

रग्घू ने जवाब न दिया-उसे जिस बात का भय था, वह इतनी जल्द सिर पर आ पड़ी। अब अगर उसने बहुत तथ्योंथंभी किया, तो साल छः महीने और काम चलेगा। बस आगे यह डोंगा चलता नजर नहीं आता। बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी ?
एक दिन पन्ना ने मुहए का सुखावन डाला। बरसात शुरू हो गई थी। बुखार में अनाज गीला हो रहा था। मुलिया से बोली-बहू, जरा देखती रहना, मैं तालाब से नहा आऊँ।
मुलिया ने लापरवाही से कहा-मुझे नींद आ रही है, तुम बैठकर देखो, एक दिन न नहाओगी तो क्या होगा।
पन्ना ने साड़ी उठाकर रख दी, नहाने न गई। मुलिया का वार खाली गया।
कई दिन के बाद एक शाम को पन्ना धान रोपकर लौटी, अंधेरा हो गया था। दिन भर की भूखी थी, आशा थी, बहू ने रोटी बना रखी होगी, मगर देखा तो यहाँ चूल्हा ठंडा पड़ा हुआ था, और बच्चे मारे भूख के तड़प रहे थे। मुलिया से आहिस्ते से पूछा-आज अभी चूल्हा नहीं जला ?

केदार ने कहा-आज दोपहर को भी चूल्हा नहीं जला काकी। भाभी ने कुछ बनाया ही नहीं।
पन्ना-तो तुमलोगों ने खाया क्या ?
केदार- कुछ नहीं, रात की रोटियाँ थीं, खुन्नू और लछमन ने खायीं। मैंने सत्तू खा लिया।
पन्ना और बहू ?
केदार- वह तो पड़ी सो रही है, कुछ नहीं खाया।
पन्ना ने उसी वक्त चूल्हा जलाया और खाना बनाने बैठ गयी। आटा गूँधती थी और रोती थी। क्या नसीब है, दिन भर खेत में जली, घर आई तो चूल्हे के सामने जलना पड़ा।
केदार का चौदहवाँ साल था। भाभी के रंग-ढंग देखकर सारी स्थिति समझ रहा था। बोला-काकी भाभी अब तुम्हारे साथ रहना नहीं चाहती। पन्ना ने चौंककर पूछा-क्या कुछ कहती थी ?
केदार- कहती कुछ नहीं थी; मगर है उसके मन में यही बात। फिर तुम क्यों नहीं छोड़ देतीं ? जैसे चाहे रहे; हमारा भी भगवान है।

पन्ना ने दाँतों से जीभ दबाकर कहा-चुप, मेरे सामने ऐसी बात भूलकर भी न कहना। रग्घू तुम्हारा भाई नहीं, तुम्हारा बाप है। मुलिया से कभी बोलेगे, तो समझ लेना जहर खा लूँगी।


4


दशहरे का त्योहार आया। उस गाँव से कोस भर पर एक पुरवे में मेला लगता था। गाँव के सब लड़के मेला देखने चले। पन्ना भी लड़कों के साथ चलने को तैयार हुई; मगर पैसे कहाँ से आयें ? कुंजी तो मुलिया के पास थी।
रग्घू ने आकर मुलिया से कहा-लड़के मेले जा रहे है, सबों को दो-दो आने पैसे दे दे।
मुलिया ने त्योरिया चढ़ाकर कहा-पैसे गर में नहीं हैं।
रग्घू अभी तो तेलहन बिका था, क्या इतनी जल्दी रुपये उठ गये ?
मुलिया- हाँ, उठ गये।

रग्घू- कहाँ उठ गये ? जरा सुनूँ, आज त्योहार के दिन लड़के मेला देखने न जायँगे।
मुलिया- अपनी काकी से कहो, पैसे निकालें, गाड़कर क्या करेंगी।
खूँटी पर कुंजी लटक रही थी। रग्घू ने कुंजी उतारी और चाहा कि संदूक खोले कि मुलिया ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली-कुंजी मुझे दे दो, नहीं तो ठीक न होगा। खाने पहनने को भी चाहिए, कागज किताब को भी चाहिए, उस पर मेला देखने को भी चाहिए। हमारी कमाई इसलिये नहीं है कि दूसरे खायँ और मूँछों पर ताव दें।
पन्ना ने रग्घू से कहा-भइया, पैसे क्या होंगे। लड़के मेला देखने न जायँगे।

रग्घू ने झिड़ककर कहा- मेला देखने क्यों न जायँगे ? सारा गाँव जा रहा है। हमारे ही लड़के न जायँगे।
यह कहकर रग्घू ने अपना हाथ छुड़ा लिया और पैसे निकालकर लड़कों को दे दिये; मगर कुंजी जब मुलिया को देने लगा, तब उसने उसे आँगन में फेंक दिया और मुँह लपेटकर लेट गया। लड़के मेला देखने न गये।


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