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आपका बंटी

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3119
आईएसबीएन :9788183610933

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आपका बंटी मन्नू भंडारी का एक बहुत ही रोचक उपन्यास है...

पंद्रह


जस्टिफ़िकेशन !

पर क्यों ! किस बात के लिए ? क्या किया है शकुन ने ?

अजय बंटी को ले जाना चाहते थे और वह ख़ुद जाना चाहता था। उसे यहाँ अच्छा नहीं लगता था। इतनी कोशिश करने पर भी वह बंटी को इस घर में रचा-पचा नहीं सकी। वह इसे अपना घर समझ ही नहीं सका। पता नहीं, क्या चाहता था वह इस घर से ? नहीं, शायद शकुन से।

अजय ने भी न जाने क्या चाहा था उससे। वह नहीं दे पाई तो अजय उसकी जिंदगी से निकल गया। अब बंटी भी कुछ चाहता था। पता नहीं बंटी ही चाहता था या कि अजय ही बंटी में उतरकर नए सिरे से फिर वही चाहने लगा था, जो तब वह उसे नहीं दे पाई थी। नहीं, यह उसका भ्रम है। अजय उससे कुछ नहीं चाहता। वह अपनी भरी-पूरी जिंदगी जी रहा है। उसने शकुन को काट दिया है, शायद कोई कसक भी बाकी नहीं है। पर जब शकुन ने अपने जीवन को भरा-पूरा करना चाहा, अजय की कसक को भी धो-पोंछना चाहा तो बंटी...

सब लोग केवल उससे चाहते ही हैं और वह उनकी चाहनाओं को पूरती रहे यही एकमात्र रास्ता है उसके लिए। बस, वह कुछ न चाहे। जहाँ चाहती है, वहीं गलत क्यों हो जाती है ? ऐसा अनुचित-असंभव भी तो उसने कुछ नहीं चाहा। एक सहज सीधी जिंदगी, जिसमें रहकर वह कम से कम यह तो महसूस कर सके कि वह जिंदा है। केवल सूरज डूब-उगकर ही उसे रात होने और बीतने का एहसास न कराए, उसके अतिरिक्त भी 'कुछ' हो।

कितनी सहज-स्वाभाविक इच्छाएँ थीं उसकी ! फिर भी सब ग़लत, केवल इसलिए कि वे उसकी थीं।

'जहाँ जस्टिफ़िकेशन है, समझ लो वहाँ गिल्ट है। आदमी अपने गिल्ट को जस्टिफ़ाई न करे तो...' शायद कभी किसी संदर्भ में यह डॉक्टर ने ही कहा था।

कहा होगा। शकुन को लग रहा है, उसके मन में इस समय कुछ नहीं है। न गिल्ट न जस्टिफ़िकेशन। कुछ है तो सिर्फ़ दुख कि बंटी चला गया, कि बंटी एक दिन भी वहाँ खुश नहीं रहेगा। न उस घर में, न हॉस्टल में। बिना शकुन के वह कहीं खुश रह ही नहीं सकता। और इन दिनों तो शकुन के साथ भी।

वह समझ ही नहीं सका कि शकुन से बदला लेते-लेते कितना बड़ा बदला उसने अपने-आपसे ले लिया है। शकुन को कष्ट देने के लिए कितना बड़ा कष्ट उसने अपने-आपको दे डाला है।

वह नहीं समझ सका, पर शकुन तो सब समझ रही थी। फिर भी वह चुप रही। क्या वह यह नहीं महसूस करने लगी थी कि बंटी अब उसके जीवन की सहज गति में एक रुकावट बन गया है ? जिस नई जिंदगी की शुरुआत का सारा आयोजन उसने कर डाला, वह शुरू होकर भी जैसे शुरू नहीं हो पा रही है कि बंटी उसमें जब-तब दरार डाल देता है।

कनफ़ेशंस !

नहीं, उसे कुछ कनफ़ेस नहीं करना। आदमी शायद कनफ़ेस इसलिए नहीं करता है कि दूसरों की नज़रों में गुनहगार बनकर अपनी नज़रों में बेगुनाह हो जाए। वह अपने गुनाहों को स्वीकार नहीं करता, बड़ी निरीहता के साथ उन्हें दूसरे के कंधे पर डालकर स्वयं उनसे मुक्त हो जाता है।

पर शकुन को ऐसा कुछ नहीं करना, वह कर ही नहीं सकती। बंटी उसके जीवन का अभिन्न अंश है, उसका अपना अंश। उसके जाने का दुख भी उसका अपना है और उसे भेजकर यदि उसने कुछ गलत किया तो वह गलती भी उतनी ही उसकी अपनी है। इस सबको न वह किसी के साथ शेयर कर सकती है, न किसी और के कंधों पर डालकर उस सबसे मुक्त हो सकती है।

अहं और गुस्से से भरे-भरे, शकुन की लाई हुई चीजों को बिना देखे, बिना छुए एक ओर सरका देने, उमड़ते आँसुओं को भीतर ही भीतर रोककर सूखी आँखों से मोटर में बैठकर विदा हो जाने की व्यथा बंटी से कहीं ज्यादा शकुन की अपनी व्यथा है और ऐसी व्यथा जिसे कोई भी बाँट नहीं सकता...आज भी नहीं, आगे भी नहीं।

कार लौट आई। उसमें से डॉक्टर, अमि और जोत उतरे तो उसे एक बार फिर नए सिरे से धक्का-सा लगा। तो बंटी चला गया ? और साथ ही ख़याल आया कि इतनी देर से वह ऊपर से चाहे कुछ भी सोचती रही हो, भीतर ही भीतर तो लगातार जाने कैसे-कैसे चित्र बनते-बिगड़ते रहे हैं। यहाँ के परिचित माहौल और शकुन की उपस्थिति में थमा हुआ आवेग, स्टेशन के अपरिचित माहौल में फूट पड़ा है-मैं नहीं जाऊँगा, मैं ममी के पास जाऊँगा-ममी के पास ही रहूँगा। अजय का कातर हो आया चेहरा, डॉक्टर का असमंजस-जोत से चिपककर खड़ा डरा-सहमा बंटी। ममीऽऽ...गाड़ी से उतरकर वह उससे लिपट गया है-दोनों की आँखों में आँसू...गलती हुई बर्फ की दीवार।

“उस समय जल्दी-जल्दी में चाय नहीं पी सके। जल्दी से चाय पिलवा दो तो मैं जाऊँ। आइ एम ऑलरेडी लेट !"

बस ?

“गाड़ी भी आधा घंटे लेट थी।"

और ?

“ममी, मैंने बंटी को कह दिया है कि वह मुझे चिट्ठी ज़रूर लिखेगा।"

“मिस्टर बत्रा को भी कह दिया है कि जाते ही चिट्ठी लिख देंगे और सारी बात यानी जो भी जैसा भी होगा लिख देंगे।"

और ?

और सब चुप !

दो प्यालों में चाय ढल गई और दो गिलासों में दूध। बंटी की कुर्सी खाली

“पापा, हमारा ज्योमेट्री बॉक्स एकदम बेकार हो गया। हमें नया चाहिए, कल ही हमारा टेस्ट है। आप ड्राइवर के हाथ मँगवा लीजिए।"

जोत और अमि आज भी अपनी ज़रूरतों के लिए डॉक्टर से ही कहते हैं। बंटी होता तो ? वहाँ बंटी किससे कहेगा ?

“सर्दी तो ख़त्म हो ही गई। दस-पंद्रह दिनों में तो पसीने से नहाने का मौसम आ जाएगा। स्टेशन पर तो आज ही बाकायदा गरमी लग रही थी।"

“गाड़ियों में इतनी भीड़ क्यों जाती है पापा ? रोज़-रोज़ जानेवाले इतने आदमी कहाँ से आ जाते हैं ?''

गाड़ी लेट थी। स्टेशन पर गरमी थी। स्टेशन पर भीड़ थी। सबकुछ था, बस जैसे नहीं था तो बंटी। जैसे सब उसके आस-पास से कतराकर निकल रहे हैं। कोई उसके पास नहीं पहुंच रहा या कि पहुँचना नहीं चाहता।

“आज चाय कैसी है ? शायद पानी पूरी तरह नहीं खौला।" दूसरा पानी आ जाता है।

“लौटते हुए मैं वर्मा के यहाँ जाऊँगा। तुम भी चलो तो गाड़ी भेज दूँ ? देख आएँगे, तीन-चार दिन से जा नहीं पाया।"

शकुन ने डॉक्टर की ओर देखा, फिर धीरे से बोली, “आज रहने दो।"

“ऐं ? अच्छा !" डॉक्टर मुड़ गए।

 “पापा, हमारे लिए भी कोई चीज़। अच्छी-सी !”

सायास ढंग से बोले हुए ये अनायास वाक्य ! जैसे सबने तय कर लिया है कि कोई भी उस विषय पर कुछ नहीं बोलेगा। और ये वाक्य उस तक पहुँचकर भी नहीं पहुंच रहे हैं। सेतु नहीं बन रहे हैं।

सेतु ! बंटी सेतु नहीं बन सका। इसीलिए शायद उसे भी कट जाना पड़ा।

डॉक्टर चले गए, अमि और जोत पढ़ने बैठ गए ! सबकुछ कितना सहज-स्वाभाविक हो आया। कहीं कुछ नहीं। जैसे एक अनावश्यक प्रसंग था, ऊपर से थोपा हुआ। उसे एक न एक दिन समाप्त होना ही था। सब लोग जैसे इसी दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे।

वह भी ? सचमुच वह भी कहीं चाहने ही तो लगी थी। उसे ख़द लगने लगा था कि वह एक अनावश्यक तत्त्व...शायद वह हो ही गया था। शायद ऐसा ही होता है।

'यह बच्चा किसका है ?' बंसीलाल की बहू खुसर-फुसर करके पूछ रही थी। 'इनके पहलेवाले आदमी का बच्चा।' दबा-दबा-सा जवाब।

'दहेज़ में यही लेकर आई हैं ?' खी...खी...खी...

और उस हँसी ने उसे भीतर तक तिलमिला दिया था। 'यह बच्चा ? ओह, हाँ ! क्या नाम है बेटे तुम्हारा ?' वर्मा का बुलंद प्रश्न !

'अरूप बत्रा !' उतना ही बुलंद जवाब।

सवाल और जवाब दोनों में ही तो कुछ था। न चाहते हुए टालते हुए भी ध्यान एक क्षण को उस ओर गया था।

और फिर रात में सर्दी से अकड़ा, डर से सहमा बंटी उसकी छाती से चिपका था। साँस जैसे हिचकियों में बँध गई थी।

'यह अकसर इस तरह डर जाया करता है क्या ?' पता नहीं स्वर में नींद की खुमारी थी या कि एक रूखापन। व्याघात पड़ जाने की खीज। कम से कम शकुन को ऐसा ही लगा था। और वह बंटी को लेकर हलके से चौकन्नी हो आई थी।

'यह तो बहुत ही ज़िद्दी बच्चा है भाई ! लगता है, तुमने इसे बहुत ज़्यादा लाड़ में स्पॉइल कर दिया है !' एक हलका-सा आक्रोश था स्वर में।

'मत इतना सिर चढ़ाओ बहूजी ! नहीं, एक दिन आप ही दुखी होंगी।'

एक-सी ही तो बातें थीं, पर अर्थ बदल गए थे क्योंकि शायद संदर्भ बदल गए थे।

और तब पहले दिन का वह चौकन्नापन अनायास ही एक हलकी-सी अपराध-भावना में बदल गया। जैसे ज़िद बंटी ने नहीं की, उसने ख़ुद की है। एक गलत और अनुचित ज़िद।

पता नहीं, मन का भाव शायद चेहरे पर अंकित हो आया था। डॉक्टर ने कंधे पर हाथ रखकर पूछा, “बुरा मान गईं ?" उसने झूठ बोला था और साथ ही लगा था कि अब पता नहीं कितनी बार उसे झूठ बोलना पड़ेगा।

डॉक्टर मुसकरा रहे थे। मानो बंटी ने जो कुछ किया, उसने कतई परेशान नहीं किया है उन्हें।

वह भी मुसकराई। मानो उसने डॉक्टर की बात का बिलकुल बुरा नहीं माना है। असली बात पर नकाब डालने का सिलसिला उसी दिन से शुरू हुआ था। कम से कम बंटी को लेकर।

और फिर एक नक़ली-सा व्यवहार। या कि असली व्यवहार में भी नक़लीपन का एहसास ! या तो इस विषय पर बात होती ही नहीं या होती तो बहुत ही सँभल-सँभलकर।

पर बंटी था कि हर दिन एक नया हंगामा। कुछ भी होता और मन ही मन शकन अपने को सफ़ाई देने के लिए तैयार करती थी। पर डॉक्टर देख-जानकर भी चुप रह जाते तो उनकी चुप्पी, बंटी की ज़िद, बंटी के हंगामे से भी ज़्यादा बड़ा बोझ बनकर शकुन के मन पर छा जाती।

अपनी हर समस्या, अपने हर बोझ को बड़े निर्द्वद्व भाव से डॉक्टर के कंधों पर डालकर निश्चित हो जानेवाली शकुन के मन में एक कोना उभर आया था, जिसकी बात वहीं घुमड़ती रहती थी और शकुन थोड़ी-सी भयभीत रहती थी कि कहीं यहाँ की बात बाहर न आ जाए। साथ ही आशंकित भी कि कहीं यह कोना अपनी सीमा तोड़कर फैलना न शुरू कर दे और फिर फैलता ही चला जाए, फैलता ही चला जाए।

वह जानती थी कि ये कोने जब होते हैं तो कितने पैने होते हैं। कैसे इनसे सबकुछ कटता चलता है, विश्वास, सद्भावना, अपनत्व ! सारी की सारी जिंदगी बँट जाती है खंडों में, टुकड़ों में कि इसके बाद एक पूरी जिंदगी जीना...नहीं, वह अब और उस सबसे गुज़रना भी नहीं चाहती। बड़ी से बड़ी क़ीमत भी चुकानी होगी तो चुका देगी।

क़ीमत चुका दी और लग रहा है कि वह जैसे एकदम ख़ाली और खोखली हो गई है।

“ममी, हमें ग्रामर समझा दो !'

लेटे-लेटे ही शकुन ने पास खड़ी जोत को देखा। स्वर में कैसा आग्रह है याचना-जैसा। हमेशा क्या वह इसी तरह कुछ कहती-माँगती है ? कभी ध्यान ही नहीं गया।

अब शायद नए सिरे से अमि और जोत से परिचित होना पड़ेगा। अभी तक तो ये लोग भी बंटी के साथ इस तरह जुड़े हुए थे कि कभी अलगाव महसूस ही नहीं हुआ, बंटी के साथ-साथ इन दोनों का काम भी होता ही चलता था। अब ?

“देखो तो जोत ! अमि क्या कर रहा है ? उसे भी यहीं बुला लो। दोनों यहीं पढ़ो।"

“अमिऽऽ” जोत दौड़ती हुई चली गई।

बंटी को उसने कभी इस कमरे में बैठकर नहीं पढ़ाया। वह कभी आता भी नहीं था। जाने कैसा एक सहमा-सहमापन उसके मन में घर कर गया था। आज उस कमरे में जाते हुए वह सहम रही है। वह मेज़...वह कोना।

"ममी, मैंने चार सम्स कर लिए, पाँचवाँ कर रहा हूँ। कुल दस करने हैं। बस होमवर्क ख़त्म, होमवर्क फ़िनिश।"

दोनों बच्चे अपना-अपना काम करने बैठ गए तो ख़याल आया, बिना बंटी के वह इन लोगों को उसी तरह प्यार कर सकेगी जैसे बंटी को करती थी ? इन्हें उतना ही अपना समझ सकेगी ? शायद नहीं।

मीरा भी बंटी के लिए ऐसे ही सोचेगी ? वह भी उससे कभी जुड़ा हुआ महसूस नहीं करेगी। उसे कभी अपने बच्चे की तरह प्यार नहीं करेगी।

एकाएक शकुन ने कापी पर झुके हुए अमि को खींचकर अपनी गोद में भर लिया, उसके दोनों गालों पर प्यार किया। अमि सकपका-सा गया और फिर अलग हो गया। जोत अजीब-सी नज़रों से देखने लगी।

ऐसा करने पर बंटी कभी उसके गले में बाँहें डाल दिया करता था। अकसर वह उसकी गोद में लेटकर ही पाठ याद किया करता था। जोर-ज़ोर से बोलकर और जब तक बंटी पढ़ता था, शकुन कुछ नहीं कर सकती थी।

समय के साथ सबकुछ कैसे बह जाता है !

अजय का पत्र बीच में पड़ा था। शकुन और डॉक्टर आमने-सामने बैठे थे। दोनों के बीच एक मौन घिर आया था-एक तनावपूर्ण मौन ! कम से कम शकुन को ऐसा ही लगा था।

अजय ने बहुत संयत ढंग से लिखा था, लिखा ही नहीं, एक तरह से आग्रह किया था कि अब बंटी को वह अपने पास ही रखना चाहता है। फिर भी इस विषय में उन दोनों की राय के बिना वह कुछ नहीं करेगा।

डॉक्टर ने पत्र पढ़ लिया था और चुप हो आए थे और शकुन के मन में हज़ार-हज़ार बातें एक साथ आ-जा रही थीं। वह बंटी को भेज दे और अपने घर के इस तनाव से मुक्त हो जाए। वह बंटी को क्यों भेजे, अजय किस अधिकार से उसे अपने साथ रखना चाहते हैं ? उसने शादी कर ली है इसीलिए उसका बंटी पर से अधिकार समाप्त हो जाता है, तो अजय ने भी तो शादी कर ली है।

डॉक्टर जान लें कि इस घर के लिए बंटी अनावश्यक हो, फालतू हो, पर कोई है, एक ऐसा भी घर है जहाँ बंटी की आवश्यकता है, बंटी की प्रतीक्षा है। यहाँ बंटी एक ज़िद्दी, एबनॉर्मल बच्चा हो सकता है, पर वहाँ...कि अजय का शकुन से चाहे कोई संबंध न रहा हो, पर बंटी से उसका संबंध है, आत्मीयता का, अपनत्व का, रक्त का, अब बंटी को लेकर वह इतना अपराधी महसूस नहीं करेगी।

डॉक्टर चाहें तब भी वह नहीं भेजेगी। शकुन के साथ उन्हें बंटी को भी स्वीकार करना ही होगा। बंटी उसके साथ था और हमेशा रहेगा।

बातें हैं कि एक के बाद एक फिसलती चली जा रही हैं।

"तुमने कुछ कहा नहीं पत्र पढ़कर ?" और शकुन ने बहुत ही भेदती-सी नज़रों से डॉक्टर को देखा मानो उसे केवल शब्दों पर ही विश्वास नहीं करना है, उन्हें ही अंतिम नहीं मानना है, उसके भीतर छिपे अर्थों को भी देखना है। वह भीतर ही भीतर कहीं बहुत चौकन्नी हो आई।

असमंजस और दुविधा में लिपटे डॉक्टर चुप। और वह चुप्पी ही हज़ार-हज़ार अर्थ प्रकट करने लगी।

“बताओ न क्या जवाब दूं अजय को ?' शकुन को जैसे जवाब चाहिए ही, वह भी डॉक्टर से ही !

"मैं मिस्टर बत्रा को बिलकुल नहीं जानता। उन्होंने यह क्यों लिखा है, यह भी नहीं समझ सका। क्या जवाब हो सकता है इसका ? मैं क्या बताऊँ ?"

वही तटस्थता-वही उपेक्षा। बोलकर भी चुप रहना क्या इसी को नहीं कहते ? शकुन क्या जानती नहीं कि डॉक्टर इसी तरह चुप रहेंगे, पर क्यों ?

"क्यों ? अभी चाची अम्मा लिखें कि अमि को शुरू से मैंने पाला है, उसे मेरे पास भेज दो तो तुम जवाब नहीं दोगे ? कुछ नहीं बताओगे ?" आवेश से जैसे उसका स्वर काँपने लगा।

“वह बात बिलकुल दूसरी होगी।" डॉक्टर का स्वर कभी भी, कहीं से भी विचलित क्यों नहीं होता ? कैसी आस्था है ! कौन-सा विश्वास है यह अपने ऊपर, जो कहीं भी डिगने नहीं देता। डॉक्टर के सधाव के सामने शकुन जैसे और ज़्यादा-ज़्यादा बिखरा महसूस कर रही है।

"बात दूसरी नहीं है, बस, यह कहो कि बच्चा दूसरा है। अमि तुम्हारा बच्चा है, तुम उसके बारे में निर्णय ले सकते हो। बंटी तुम्हारा..."

"शकुन !" और डॉक्टर की दोनों हथेलियाँ शकुन के कंधों पर आ टिकीं।

बात बीच में ही टूट गई। शकुन एकटक डॉक्टर का चेहरा देखती रही। क्या था डॉक्टर के स्वर में, डॉक्टर के चेहरे में कि मन का आवेग जैसे अपने-आप ही धीरे-धीरे उतरने लगा।

“पागल हो गई हो ? लगता है, इस पत्र ने परेशान कर दिया है। पर इस तरह परेशान होने से तो कोई चीज़ हल नहीं होती।''

शकुन को लगा जैसे उसके कंधे डॉक्टर की हथेलियों पर टिक गए हैं।

"तुम लोग अपने को, अपने ईगो को ऊपर न रखकर बंटी को ऊपर रखो। आई मीन उसकी दृष्टि से सारी बात सोचो तो ज्यादा सही होगा।"

वही सधा हुआ स्वर, सुलझी हुई दृष्टि। संशय और संदेह के उभरे हुए सारे काँटे जैसे उलटकर उसे ही बेधने लगे।

उसका अपना कुंठित मन बातों को, व्यक्तियों को कभी सही रूप में नहीं ले सकेगा।

"तुमसे कुछ नहीं होगा। मैं ही बंटी को अपने साथ लंबी ड्राइव पर ले जाऊँगा। बहुत प्यार से, विश्वास में लेकर उससे पूछूगा, उसकी मनःस्थिति जानने की कोशिश करूँगा, क्यों वह यहाँ एडजस्ट नहीं कर पा रहा है...क्या बताऊँ शकुन, मुझे समय नहीं मिलता।"

यह सब डॉक्टर कह रहे हैं ! एक बार भी यह नहीं कहा कि तुम्हें मुझ पर विश्वास हो तो मैं बंटी को ले जाऊँ ? एक बार भी क्या इनको यह ख़याल नहीं आता कि बंटी को लेकर वह डॉक्टर की ओर से उतनी आश्वस्त नहीं हो पाती, कोशिश करके भी नहीं हो पाती; कि वह इस प्रसंग को लेकर अपने और डॉक्टर के बीच में एक हलकी, नामालूम-सी दरार महसूस करने लगी है और हमेशा आशंकित रहती है कि वह दरार धीरे-धीरे कहीं खाई न बन जाए। फिर एक और खाई !

“मैं तुम्हें भी नहीं ले जाऊँगा, समझीं। जवाब उसके बाद हो जाएगा। ओ. के. ?” और एक बार ज़ोर से उसके कंधे थपथपाकर उन्होंने हाथ हटा लिए।

उनके इस अतिरिक्त विश्वास के सामने शकुन का अविश्वासी मन जैसे हार गया। वह अपनी ही नज़रों में बहुत अपराधी हो उठी। अपराधी और छोटी, क्यों वह चीज़ों को ग़लत रूप में लेती है ? क्यों नहीं सही ढंग से देख पाती ?

पर शायद चीजें ही गलत थीं और इसीलिए देखने का हर सही ढंग भी घूम-फिरकर आख़िर में ग़लत ही हो जाया करता था।

शकुन जानती थी कि अजय घर नहीं आएगा। पर डॉक्टर का घर आने के लिए आग्रह करने स्टेशन तक जाना उसे अच्छा लगा।

लेकिन जब अजय ने चार बजे आने को कहा तो डॉक्टर ने बताया कि वह उस समय तक मीटिंग में रहेगा। शायद वह चाहते हों कि यह बात शकुन और अजय आपस में ही तय करें, कि डॉक्टर एक बाहरी आदमी की तरह क्यों रहे ? डॉक्टर की उस समय अनुपस्थित रहने की बात उसे कहीं अच्छी भी लगी थी और बुरी भी। उसे खुद नहीं मालूम कि उसे कैसा लगा था।

पता नहीं उसे क्या हो गया है कि एक ही बात एक ही समय में उसे अच्छी भी लगती है और बुरी भी। शायद कुछ और भी लगता है। हर बात कितने-कितने स्तरों पर चलती है, उसके मन में ! वह खुद कुछ नहीं समझ पाती। हर बात उसके लिए जैसे एक पहेली बन जाती है। या फिर वह खुद अपने लिए एक पहेली बन जाती है।

डॉक्टर कैसे एक ही स्तर पर जी लेते हैं। एक सुलझी हुई सहज जिंदगी। उसे डॉक्टर से ईर्ष्या भी होती है, डॉक्टर पर गुस्सा भी आता है। क्यों नहीं वह शकुन के मन में होनेवाले द्वंद्वों को समझ पाते ? उसके हर पहलू, हर स्तर को देख पाते ?

पर क्या वह उन सबको देख-समझ पाती है ? या कि कोई भी उसे समझ पाएगा ? टुकड़ों में बँटी यह जिंदगी और हर टुकड़ा जैसे अलग ढंग से सोचता है, अलग ढंग से धड़कता है।

अजय चार बजे घर आ रहा है। यह बात उसे अच्छी भी लग रही है और बुरी भी।

मन में कहीं एक संतोष है, एक इच्छा है कि एक बार अजय को अपना सुख, अपना वैभव ही दिखा दे।

एक कचोट है कि बंटी ने पत्र लिखकर उन सारे सुखों के अस्तित्व को धूल में मिला दिया। अब सबकुछ कितना बेमानी हो उठेगा।

साथ ही एक आशा भी है कि आवेश में आकर बंटी ने लिख चाहे जो कुछ दिया हो, वह जाएगा नहीं। वह यहाँ रोए या तूफ़ान मचाए, शकुन से चाहे कितना ही कटा-कटा फिरे पर शकुन के बिना वह कहीं नहीं रह सकता। एक रात को वह सरकिट हाउस रह नहीं सका था, अब हमेशा रह सकेगा !

बच्चों का गुस्सा, बच्चों का मान, बच्चों का अहं...कितना छोटा और कितना निरीह होता है सबकुछ ! फिर बंटी, जो छाया की तरह चिपककर रहा है उसके साथ !

“अकेला तो मैं कब्भी जा ही नहीं सकता...” इस वाक्य को जैसे वह पकड़े बैठी है। भूल ही गई कि इसके बीच से नौ-दस महीने का समय बीत चुका है। परिवर्तनों से भरा हुआ समय !

दिन-भर शकुन तैयारी करती रही थी। हर चीज़ लक-दक ! और मन ही मन अपने को साधती भी रही थी कि इस बार बहुत सहज होकर ही वह अजय से मिलेगी। इस असहज प्रसंग को वह अपने व्यवहार से इतना सहज बना देगी कि अजय खाली हाथ लौटें तो भी कचोट लेकर न लौटें। यहाँ का सबकुछ देखकर बंटी को ले जाने की बात उन्हें खुद बेतुकी-सी लगे, कि वे खुद आश्वस्त हो जाएँ।

पत्र भी तो उसने बहुत सहज ढंग से ही लिखा था।

पर चाय की मेज़ पर घिर आए मौन के नीचे उसकी सहजता अपने-आप ही गलने लगी। मेज़ पर ढेरों चीजें फैली पड़ी थीं। उसने ख़ुद सबकुछ बड़े जतन से बनाया-सजाया था। पर अजय का ध्यान उधर नहीं था। एक बार उसने अमि और जोत से ज़रूर बात की थी, प्यार से ही कुछ कहा-पूछा और फिर नज़र बंटी के चेहरे पर टिक गई। और बस फिर वहीं टिकी रही।

तब नए सिरे से उसका अपना ध्यान बंटी की ओर गया। वह उसे देखने लगी। अपनी नज़रों से नहीं, जैसे अजय की नज़रों से।

और भीतर सबकुछ गड़बड़ाने लगा।

कितने दिनों बाद अजय और शकुन आमने-सामने एक कमरे में बैठे हुए हैं। घर के एक कमरे में। कमरा बहुत कोजी है, पर मन शायद उतना कोजी नहीं है। कम से कम शकुन को ऐसा ही लगने लगा है। एक घबराहट, इम्तिहान में बैठने के पहले जैसी।

“बंटी के बारे में कुछ सोचा ?' शकुन की नज़रें अजय के चेहरे पर टिक गईं। किसी भी तरह का कोई तनाव नहीं है वहाँ। प्रश्न भी ऐसा कि कोई ज़िद और दुराग्रह नहीं। बस, जैसे साथ बैठकर सोचने की बात ही हो।

तो आज भी ऐसा कुछ है जिस पर साथ बैठकर सोचा जाए। और क्षणांश को फिर जैसे नए सिरे से लगा कि वे साथ बैठे हैं।

“यह सही है कि बंटी को अब मैं अपने साथ ही रखना चाहता हूँ। फिर भी यह निर्णय मैं अकेला नहीं ले सकता-मेरा मतलब..."

“पर इस समय तो बंटी वैसे भी नहीं जा सकता। अगले महीने उसकी परीक्षाएँ हैं। एक साल खराब नहीं हो जाएगा ?"

अजय कुछ इस नज़र से देखने लगा मानो पूछ रहा हो-बस ? यही आपत्ति है ? तो शकुन को लगा जैसे उससे गलती हो गई। आपत्ति उसे कहीं और से शुरू करनी थी। वह जैसे अगली बात सोचने लगी।

“कलकत्ते में सेशन जनवरी से शुरू होता है और अप्रैल तक एडमीशन हो जाते हैं। मेरा परिचय है।"

"नए लोगों के बीच यह बहुत सहम जाता है। यों भी इस उम्र में ही बहुत इंट्रोवर्ट होता जा रहा है। मुझे लगता है...''

"हूँऽ! सो तो मैंने भी देखा। सवेरे बिलकुल बोला ही नहीं। अभी भी एकदम सहमा हुआ, चुपचाप।" और अजय ख़ुद चुप हो गया। जैसे कहीं गहरी चिंता में पड़ गया हो, जैसे कहीं से दुखी हो आया हो।

शकुन का वार जैसे उलटकर उसी पर आ गया। और अनायास ही मन के भीतर की परतें, और एक-एक परत पर उठनेवाली अनेक-अनेक बातें कुलबुलाने लगीं। मन हुआ कि कहे यह एक तलाकशुदा माँ-बाप का बच्चा है, इसलिए कहीं एबनॉर्मल है; कि वहाँ जाकर ही इसे कौन परिचित मिल जाएगा ? कहने-भर को तुम चाहे इसके पापा हो, पर कितना जानते हो तुम इसे, और कितना जानता है यह तुम्हें ? तुम इसके कपड़ों को देखो तो पहचान सकते हो ? जानते हो इसके कितने नंबर का जूता आता है ?

“अगर बंटी राजी हो जाए और मैं इसे अभी अपने साथ ले जाऊँ तो तुम्हें कोई एतराज़ होगा ? बार-बार आना जरा..."

मुझे कोई एतराज़ नहीं होगा। सच पूछो तो मैं ख़ुद अब यही चाहने लगी थी कि इसे तुम्हारे पास ही भेज दूं। बहुत रख लिया। अब कम से कम मैं अपनी जिंदगी जिऊँ-एक परत पर उभरा और उससे भी भीतर की परत पर उभरा-अच्छा है, तुम्हारे और मीरा के बीच में भी दरार पड़े, हर दिन एक परेशानी, हर दिन एक तूफ़ान...

पर ऊपर उसने बहुत संयत ढंग से केवल इतना ही कहा, "आप बंटी से ही पूछ लीजिए। हम लोग अपनी-अपनी इच्छाएँ क्यों थोपें उस पर ?” और उसे खुद ही लगा कि कहनेवाली और सोचनेवाली शकुन एक ही है।

बंटी आया तो उसने जैसे अपने को कठघरे में खड़ा पाया-फैसले की प्रतीक्षा करते हुए।

“जाऊँगा, ज़रूर जाऊँगा।"

और कमरे का सारा सामान, झूलते हुए परदे, झिलमिलाता झाड़-फानूस-सब एकाएक धूमिल हो उठे। चारों ओर बिखरा वैभव जैसे एक बिंदु में सिमट आया। मन में कुछ बुरी तरह सुलगने लगा। मन हुआ कि हाथ पकड़कर बंटी को भीतर ले जाए और कहे कि बैठकर पढ़ो। या एकदम निकाल दे कि जाओ, अभी जाओ ! पर नहीं, वह कुछ नहीं कर सकती। यहाँ आने के बाद से ही वह बंटी पर धीरे-धीरे अधिकार खोती रही है। आज तो चाहकर भी वह कुछ नहीं कह सकती या कि वह कुछ भी क्यों कहे ?

अजय अकेले बंटी को लेकर घूमने निकला तो ख़याल आया-उस दिन डॉक्टर अकेले बंटी को लेकर लंबी ड्राइव पर जानेवाले थे-उसे समझने और समझाने के लिए। प्यार से उसके मन में एक नया विश्वास जगाने, एक अपनापन...

उस दिन वह नहीं हो सका और इसीलिए आज यह हो रहा है।

और इस समय छत पर अकेले खड़े-खड़े उसे ख़याल आ रहा है-कुछ नहीं, सब बेकार की बातें हैं। शकुन ने शादी कर ली और इससे अजय के अहं को कहीं चोट लगी है। बंटी को ले जाकर वह केवल अपने उस आहत अहं को सहलाना चाहता है। वह शकुन को टॉरचर करना चाहता है।

जब अजय ने शादी की थी तो कभी उसने भी ऐसे ही सोचा था कि बंटी को वह कभी अजय के पास नहीं भेजेगी-यहाँ तक कि अब बंटी से उसका मिलना-जुलना भी बंद करवा देगी। बंटी को लेकर वह अजय को टॉरचर कर सकती है, करेगी।

सच, हम लोग शायद बंटी को मात्र एक साधन ही समझते रहे ! अपने-अपने अहं, अपनी-अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और अपनी-अपनी कुंठाओं के संदर्भ में ही सोचते रहे। बंटी के संदर्भ में कभी सोचा ही नहीं।

दो घंटे से खड़ी-खड़ी वह बंटी के नाम पर अपने, डॉक्टर और अजय से जुड़ने-कटने की बातें ही तो सोचती रही है।

एकाएक ही बंटी का टुकुर-टुकुर देखता हुआ चेहरा आँखों के सामने उभर आया। बिना बोले, मुँह फेरे-फेरे ही मानो कह रहा हो-मुझे रोक लो ममी, मुझे रोक लो। और फिर तो जैसे हजार-हजार चेहरे उसके आगे-पीछे घूमने लगे-उसे प्यार करते हुए, उसके गले में बाँहें डाले हुए, उसकी बगल में लेटे हुए...नन्हे-नन्हे हाथों से क्यारियाँ खोदते हुए...

और उन चेहरों के साथ ही साथ वह कहीं बहत गहरे में उतर आई, उतरती ही चली गई। उसने तो अब अपने भीतर झाँकना ही छोड़ दिया था। अजय से कटकर वह अतीत में डूब गई थी, डॉक्टर से जुड़कर वह फिर वर्तमान में लौट आई और भविष्य में झाँकने लगी।

पर आज ! कितनी बातें हैं, कितने चित्र हैं कि उभरते ही चले आ रहे हैं, अपने सारे रगो-रेशे के साथ।

‘उन्होंने जो किया तो आपकी मट्टी पलीद हुई और अब जो आप करने जा रही हैं तो इस बच्चे की मट्टी पलीद होगी। कैसा चेहरा निकल आया है !'

वह उस निकले हुए चेहरे को क्यों नहीं कभी देख पाई ? कहाँ होगी फूफी ?

'ये पौधे तो सूख रहे हैं माली ?'

“नहीं बहूजी साहब, सूख नहीं रहे, अब तो जड़ें पकड़ ली हैं।'

“कहाँ ? ये पत्तियाँ तो सूख रही हैं।'

माली की हँसी-ये तो सूखेंगी ही। उस जमीन के खाद-पानी की पत्तियाँ हैं, ये तो सूखकर झड़ जाएँगी। फिर नई पत्तियाँ फूटेंगी। जड़ पकड़ने के बाद कोई डर नहीं। और उसने ख़ुद उन मरी-मुरझाई पत्तियों को झाड़ दिया था।

'आप बाग़वानी की बात नहीं समझतीं। बंटी भैया से पूछ लीजिए-सब बता देंगे। बड़ी कम उमिर में सब सीख लिया है हमारे भैया ने।'

एक ही बात इतने-इतने अर्थ भी लपेटे रह सकती है अपने में ?

'शकुन, तुम्हारा बेटा तो कलाकार बनेगा !'

खड़-खड़ झन्नऽऽ... शीशियाँ टूटी पड़ी हैं और सारे रंग फैले पड़े हैं, वह रंग की शीशियाँ और ब्रश भी लेकर आई थी। वहाँ और कुछ नहीं तो कम से कम अपनी पेंटिंग ही किया करेगा।

पर अपने सब रंग यहीं छोड़ गया।

क्यों नहीं उसने बंटी को रोक लिया ?

एकाएक शकुन फूट-फूटकर रो पड़ी। यह आवेग एक या दो दिन का नहीं था, कई दिनों का आवेग था, जिसे वह साधे-साधे घूमती थी, कभी भय से तो कभी अपराध से। अब उसे किसी के सामने डरना नहीं है, किसी के सामने अपराधी चेहरा लिए नहीं घूमना है। पर मन है कि इस बात से हलका और आश्वस्त नहीं हो रहा, सिर्फ रो रहा है, बिसूर-बिसूरकर। अपने को कोस रहा है।

'मत रोओ ममी-रोओ मत।' दो छोटी-छोटी बाँहें लिपट आती हैं। टुकड़ों में बँटी शकुन जैसे अपने को समेटने की कोशिश कर रही है और शकुन है कि और...और टूटती चली जा रही है, बिखरती चली जा रही है। वे बाँहें जैसे उसे अपने में समेट नहीं पा रही हैं।

“शकुन !” डॉक्टर का स्वर छत के सन्नाटे में यहाँ से वहाँ तक फैल गया।

"तुम यहाँ हो और नीचे किसी को पता तक नहीं। अरे, यह क्या, तुम रो रही हो ? शकुन !” और दो सबल बाँहें उसके चारों ओर घिर आईं और धीरे-धीरे पूरी की पूरी शकुन उनमें अपने-आप ही बँधती चली गई, सिमटती चली गई।

बस, दो नन्ही-नन्ही बाँहें उन सबल बाँहों के नीचे अनदेखे अनजाने ही शायद मसल गईं।

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