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नारी विमर्श >> आपका बंटी

आपका बंटी

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3119
आईएसबीएन :9788183610933

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आपका बंटी मन्नू भंडारी का एक बहुत ही रोचक उपन्यास है...

सोलह


एक और यात्रा !

वैसा ही रेल का डिब्बा है, पापा हैं और बंटी है। ढेर सारे नए-नए लोग हैं। बंटी बैठा-बैठा टुकुर-टुकुर सबको देख रहा है, फिर भी जैसे उसे कुछ नहीं दिखाई दे रहा है।

पता नहीं कैसे क्या हुआ कि उसके भीतर दो आँखें और उग आईं और उसके बाद से ही सब कुछ गड़बड़ हो गया। बाहर की आँखों से वह एक चीज़ देखता है तो भीतर की आँखें दूसरी चीज देखने लगती हैं। कभी भीतर की चीजें बाहर की चीजों को दबोच लेती हैं तो कभी बाहर की भीतर की चीजों को। कभी-कभी दोनों एक-दूसरी में ऐसी गड्डमड्ड हो जाती हैं कि फिर तो कुछ भी समझ में नहीं आता। बस, सबकुछ गोलमोल अंडा।

भीतर ही भीतर कई कान भी उग आए हैं। तभी तो एक बात को ठेलकर दूसरी बात आ जाती है। आवाज़ के ऊपर आवाज़ तैरने लगती है और सारी आवाजें मिलकर बस एक शोर।

यह सब बंगाल के जादू से हुआ है। और क्या, पहले तो ऐसा कभी नहीं था। उसने कई बार अपने शरीर को छू-छूकर देखा है। कहाँ हैं वे आँखें, कहाँ हैं वे कान ? पर दिखते नहीं, जादू की चीजें कहीं दिखती हैं ? वे आँखें कभी नहीं दिखतीं, पर उन आँखों से देखे हुए दृश्य बार-बार दिखते हैं और दिखते ही चले जाते हैं; ठीक ऐसे जैसे सबकुछ सामने ही हो रहा हो। और जो सामने होता है, सब गायब हो जाता है। बाहर की आँखें खुले-खुले ही बंद हो जाती हैं।

यह भी तो जादू ही है। पर किसने किया जादू ? कब किया ? यही सब पता लग जाए तो फिर जादू ही क्या ?

उसने तो पी.सी. सरकार का जादू भी नहीं देखा। बोटेनिकल गार्डेन का बड़ा पेड़, ज, दक्षिणेश्वर, वैलूर मठ-केवल नाम सने थे। आज भी बस नाम ही जानता है।

“जब तुम सर्दी की छुट्टियों में आओगे तब सारी चीजें दिखाएँगे बंटी बेटे तुमको। उस समय कलकत्ते का मौसम भी बस, वाह ! क्रिसमस की छुट्टियाँ भी रहेंगी।" सामान बाँधते हुए पापा कह रहे हैं और पापा के भीतर से एक और पापा उभर रहे हैं।

कलकत्ते में तुम्हें वो घुमाएँगे बेटे कि बस ! हर इतवार को पिकनिक पर और रोज शाम को सेटरडे क्लब। जाते ही तैरना सिखा देंगे, बस फिर रोज़ तैरना। सीखोगे तो ? अब लड़कियोंवाले खेल नहीं....

और शाम को बालकनी में बैठे-बैठे उसकी आँखों के सामने दूर-दूर तक फैली हुई कोलतार की सड़कें एकाएक लहराने लगतीं और उन पर दौड़ती हुई ट्रामें, बसें, दौड़ते-भागते ढेर-ढेर आदमी मछलियों में बदल जाते, पानी को चीरते हुए तीर की तरह इधर से उधर तैरते रहते।

“अरे, तुम इतना चुपचाप क्यों रहते हो बच्चे ? ऐसे गुमसुम रहकर मन कैसे लगेगा ? आओ, मेरे साथ भीतर आओ, चीनू के साथ खेलो, उसे प्यार करो, तभी तो वह तुम्हें भैया कहेगा।"

और तभी इस आवाज़ को तैरती हुई एक और आवाज़ तैर जाती है, “बंटी भैया, मैं भी कहानी सुनूँगा..."

"तुम लेटो तो बिस्तर लगा दें ?" शायद पापा पूछ रहे हैं।

एक क्षण बंटी ने पापा की ओर ऐसे देखा, मानो कुछ समझ में नहीं आ रहा हो। सचमुच आजकल इतनी चीजें एक साथ घुल-मिल जाती हैं कि कुछ भी समझ में नहीं आता।
"तुम लेटोगे ?" शायद उसे गुमसुम देखकर पापा ने फिर पूछा।

बंटी ने धीरे से नकारात्मक सिर हिला दिया और सरककर खिड़की पर दोनों हथेलियाँ रखीं और उस पर अपनी ठोड़ी टिका ली। आँखों के सामने दूर-दूर तक फैले हुए हरे-भरे मैदान बिखर गए। बड़े-बड़े पेड़ और छोटी-छोटी झाड़ियाँ, बिजली के खंभे और उनमें बँधे हुए तार। कभी लगता जैसे सबके सब उसके साथ-साथ दौड़ रहे हैं, दौड़े चले आ रहे हैं। कभी लगता बस, वह दौड़ रहा है, बाकी सब छूटते चले जा रहे हैं। उसने गरदन निकालकर देखा, सचमुच सभी तो पीछे छूट गए, कोई साथ नहीं दौड़ रहा, सब जहाँ के तहाँ खड़े हैं, बस, वही आगे-आगे जा रहा है। फिर ऐसा लगता क्यों है कि साथ-साथ दौड़ रहे हैं ? मन हुआ पापा से पूछ ले।

ज़रा-सी गरदन घुमाकर देखा, पापा किताब पढ़ रहे हैं। हुँह ! शायद ऐसा ही होता होगा।

देखते ही देखते झाड़ियों और पेड़ों से भरे हुए उन मैदानों में सड़कें उभर आई-लंबी-चौड़ी, भीड़-भरी, एक-दूसरे को काटती हुई सड़कें। बंटी की टैक्सी दौड़ी चली जा रही है। बंटी कसकर पापा की उँगली पकड़े चारों ओर देख रहा है। नई जगह आने का डर और नई-नई जगह देखने की खुशी।

"देखा, इतने ऊँचे-ऊँचे मकान होते हैं यहाँ !" बंटी गरदन ऊँची करके देखता।
“यह डबल-डेकर बस है, दो तल्ले की।" वह जब बैठेगा तो ऊपर जाकर बैठेगा। ऊपर की बस कैसे चलती होगी ?

“यह ट्राम है, रेल की पटरी पर  चलती है। यह मैदान है"-इतना बड़ा, इतना बड़ा...

"यह अपना घर है।" सीढ़ी चढ़कर एक गलियारे में खड़े पापा बटन दबा रहे हैं। बंटी दरवाजे पर लगी नेम-प्लेट देख रहा है। इस समय उसके और पापा के अलावा वहाँ कोई नहीं है, फिर भी उसने पापा की उँगली पकड़ रखी है, उतनी ही कसकर। इस नई जगह में पापा को छूकर, पापा को पकड़कर कैसा भरोसा-भरोसा लगता है, जैसे...

'खट' दरवाज़ा खुला और बंटी की नज़रें नीची हो गईं।

"अरे आ गए तुम ? मैं सोच रही थी शायद एकाध दिन की देर हो जाए इस बार।" एक औरत की आवाज़। नीची नज़रों से सिर्फ पंजों का थोड़ा-सा हिस्सा, चप्पल और साड़ी का बॉर्डर दिखाई दे रहा है।

पहली बात मन में उभरी-यह ममी नहीं हैं। ममी के पैरों को वह खूब पहचानता है। उनकी चप्पलों को भी और उनकी साड़ियों के बॉर्डर को भी।

“ओहो ! ये हैं बंटी साहब ! तुम तो बहुत प्यारे-प्यारे हो भाई !” और एक बाँह पूरी पीठ को घेरती हुई उसके कंधे पर आ टिकी।

नए सिरे से फिर उभरा-नहीं, ये ममी नहीं हैं। ममी की बाँहें, ममी का छूना ...और एकाएक ही बड़ी ज़ोर से ममी की याद आने लगी। पापा की उँगली की पकड़ और ज़्यादा कस गई।

"हमारे पास आओ बच्चे ! इतना शरमा क्यों रहे हो ?''

बच्चे ! झट से बंटी की नज़रें ऊपर उठीं। सामने जो चेहरा था उसमें दीपा आंटी का चेहरा घुल-मिल गया, पर फिर धीरे-धीरे सामनेवाला चेहरा खूब साफ़ होकर उभर आया। मुसकराता हुआ चेहरा, पर दीपा आंटी से भी अलग, ममी से भी अलग।

नज़रें फिर झुक गईं। वह पापा से और ज़्यादा सट गया। पापा रास्ते में जिस मीरा की बात कर रहे थे वह यही हैं शायद। बंटी को अब इन्हीं के साथ रहना होगा।

“बहादुर ! चीनू को इधर लाओ !' एक लड़का गोद में एक गोरे गुदगुदे-से बच्चे को लेकर भीतर आया।

"चीनू बेटा !'' पापा ने हुमसकर बाँहें फैलाईं और उस बच्चे को गोद में ले लिया। 'बंटी बेऽटाऽ' पापा क्या सबको इसी तरह गोद में लेते हैं ?

"बंटी, यह तुम्हारा छोटा भाई है चीनू ! खेलोगे इसके साथ, खूब हँसेगा !" तो बंटी को एक बार फिर फूले-फूले गालवाला चेहरा देखने की इच्छा हो आई। उसने आँखें उठाकर देखा तो उस चेहरे के पीछे कहीं अमि का चेहरा भी उभर आया-यह अमि है, तुम्हारा छोटा भाई। और साथ ही ख़याल आया-जोत क्या कर रही होगी इस समय ?

“आओ, तुम्हें घर दिखा दें ! यह तो बैठने और खाने का कमरा हो गया न और यह देखो सोने का कमरा।" तब उस नीले कमरे से अलग करके ही इस कमरे को देखना पड़ा। डॉक्टर साहब पापा से लंबे हैं।

“सोने के कमरे से जुड़ा हुआ यह छोटा-सा कमरा-अब से यह तुम्हारा कमरा होगा। बंटी छोटा तो बंटी का कमरा भी छोटा। और यह बालकनी, यहाँ खड़े होकर कलकत्ते का शोर-शराबा देखो।" और घूमकर वह फिर बैठनेवाले कमरे में आ गए।

बस, हो गया घर ! इतने-से घर में रहते हैं सब लोग ? कोई खुली जगह भी नहीं ? और इतने दिनों से मन में बसा हुआ लंबा-चौड़ा कलकत्ता, कलकत्ते के ऊँचे-ऊँचे मकान, सब जैसे एक क्षण में ही अ ड ड ड धम हो गए।

खाने की मेज़ पर बैठे हैं सब। बंटी वैसे ही चुपचाप, नज़रें नीची किए हुए।

“आज तो तुम्हारे पापा को ऑफ़िस जाना था, सो जल्दी-जल्दी में कुछ भी बना दिया। अब तुम हमें बता दो बच्चा, तुम्हें क्या-क्या पसंद है, क्या-क्या खाते हो ? फिर वही सब बनाया करेंगे।" 'वे' बोल रही हैं।

बंटी चुप !

“बता दो बेटे, शरमाते नहीं ! यह तो अपना घर है, अपने घर में कैसा शरमाना ?"

'अरे ये अपना घर छोड़कर दूसरों के घर खेलने जाएँगे कइसे ? अपने घर जइसी लाटसाहबी करने को मिलती कहाँ है ?...कइसी मार खाकर आए हो बंटी भय्या, तुम तो बस अपने घर के ही शेर हो...'

और वह चार कमरे का बँगलानमा घर अपने लहलहाते बगीचे के साथ आँखों के सामने तैर गया। पीछे के आँगन में तुलसी के चबूतरे पर टिमटिमाता हुआ दीया, फूफी के हनुमान जी...

'वहाँ अपना घर होगा बेटा, अपने लोग' तो वह लहलहाता बगीचा एक सूखे बंजर अहाते में बदल गया और छोटा-सा घर फैलता ही चला गया, फैलता ही चला गया।

'यह नीम का पेड़ बाबा ने पापा के जन्म के साथ लगाया था। और दोनों घर एक-दूसरे में डूबने-उतराने लगे और फिर धीरे-धीरे सब गायब। बस, काले-काले धब्बे, गोलमोल अंडा !

“बंटी, कुछ खाओगे बेटे ? निकाल दें तुम्हें ?'' बंटी चौंका। पता नहीं पापा कब से उसके पास खड़े-खड़े उसका कंधा झकझोर रहे हैं। गरदन भीतर की तो देखा बैठे हुए लोग किसी बात पर जोर-ज़ोर से बहस कर रहे हैं। वह तो सुन ही नहीं रहा था। बाहर के कान बंद थे शायद !

"भूख लगी है ?"

"नहीं।"

पापा उसी के पास बैठ गए। बाँह में समेटकर उसे अपने से सटा लिया।

"बंटी, तुम इतने सुस्त-सुस्त क्यों हो बेटे ? तुम इस तरह उदास होते हो तो हमें अच्छा नहीं लगता है।"

बंटी ने पापा की ओर देखा। पता नहीं उसकी आँखों में आँसू हैं या पापा की।

“बंटी बेटा पढ़ने जा रहा है हॉस्टल में। बहुत होशियार बनकर आएगा वहाँ से। कितनी-कितनी तो चीजें सिखाते हैं वहाँ पर। तुम तो...'

क्या-क्या बोले चले जा रहे हैं पापा। बस, वह सुन रहा है। पर समझ कुछ नहीं रहा। पता नहीं क्या हो गया है उसे आजकल, कुछ समझ में ही नहीं आता।

उस दिन भी पापा की कोई बात समझ में नहीं आई थी शायद, तभी तो सब गड़बड़ हो गया। उसे एडमिशन के लिए इम्तिहान देने जाना था और पापा कह रहे थे, “देखो घबराना नहीं। जो लिखने को दें लिख देना और जो कुछ पूछे जवाब दे देना। झेंपना, शरमाना नहीं, बोल्डली एंड स्मार्टली।"

पापा के चेहरे पर रह-रहकर ममी का चेहरा उग आता था और पापा की आवाज़ के ऊपर ममी की आवाज़-‘देख बेटे, खूब सोच-सोचकर करना और सवालों के उत्तर पेपर पर लिख लाना।' फिर तैयार करते हुए-‘एक का दाम दिया हो और ज़्यादा का पूछे तो गुणा करना और ज्यादा का देकर एक का पूछे तो भाग।'

खाना खिलाते हुए भी-'जिस भूमि-खंड के चारों ओर पानी हो उसे द्वीप कहते हैं।' बस के लिए खड़े-खड़े भी-‘अकबर दूसरे धर्मों का आदर करता था। उसने राजपूतों...'

इस घर में पापा ममी बन गए ?

नहीं, ममी नहीं बने बल्कि पापा, पापा भी नहीं रहे। दूर रहते थे तो लगता था पापा बहुत पास हैं। पापा की हर चीज़ वह जानता है। पर पास रहकर लगता है, पापा को वह जानता ही नहीं। दूर रहकर भी कई बार उसने पापा को फ़ाइलों में डूबे हुए देखा है, ललाट पर तीन सल और खूब गंभीर चेहरा लिए हुए। कई बार वाश-बेसिन पर शेव करते और नाश्ते की मेज़ पर अख़बार पढ़ते हुए पापा उसकी आँखों के सामने उभरे हैं पर यहाँ जब पापा को मेज़ पर शेव करते हुए और दीवान पर लेटकर अख़बार पढ़ते हुए देखता है, तो ख़याल आता है-वे शायद टीटू के पापा थे। वह शायद डॉक्टर साहब थे। इन पापा को तो....

भीड़-भरी ट्राम ! पापा ने उसे बिठा दिया और ख़ुद डंडा पकड़कर खड़े हो गए। बंटी की आँखें ही नहीं बल्कि रोम-रोम जैसे पापा पर अटका है। वह सड़क की ओर भी नहीं देख रहा। कहीं पापा उतर जाएँ और वह भीतर ही रह जाए तो ? ट्राम तो रुकती है और खट से चल देती है। हर बार ट्राम जब चलती है तो उसे लगता है जैसे वह पीछे छूट गया है और डर के मारे उसकी साँस रुकने लगती है। मन हो रहा है, उठकर पापा को पकड़ ले। पर अपनी जगह से हिला तक नहीं गया।

पापा का हाथ पकड़कर उतर गया, फिर भी दहशत जैसी की तैसी बनी हुई है। कितनी भीड़ है सड़क पर ! पर यहाँ के लोग क्या घरों में नहीं रहते, सड़कों पर ही घूमते रहते हैं। पापा को कसकर पकड़े रहने के बावजूद बराबर यही भय बना हुआ है कि पापा का हाथ छूट गया कि वह इस भीड़ में खो गया। इतने नए-नए चेहरे, नए-नए लोगों की भीड़। इतने सारे लोगों में पापा को ढूँढ़ा जा सकता है ? उसने पापा का कोट देखा। वह तो पापा के कपड़ों को भी नहीं पहचानता। हलके सलेटी पर काले रंग का चारखाना। उसने कोट से गहरी पहचान कर ली।

"हरी बत्ती हो गई, चलो ! याद रखना, लाल बत्ती पर कभी सड़क मत पार करना।" वह उँगली पकड़े-पकड़े ही सड़क पार कर गया।

"वह देखो, वह रहा तुम्हारा स्कूल।"

पता नहीं, पापा किधर इशारा कर रहे हैं। बंटी के सामने तो अपना स्कूल तैर गया। आज कौन-सा दिन है ? शायद बुधवार ! इस समय ज्योग्राफी की क्लास हो रही होगी। कौन पाठ पढ़ा रहे होंगे सर ? महाराष्ट्र, बंगाल ? वह तो बंगाल में ही घूम रहा है।

“देखो बेटे, डरना नहीं, अंग्रेज़ी बोल लोगे न ? खूब सोचकर लिखना।"

सर पूछ रहे हैं, "व्हाट्स योर नेम डियर ?"

“अरूप बत्रा !" बंटी को लग रहा है, जैसे उसकी आवाज़ काँप रही है।

"यू हेव कम विद योर फ़ादर ?' बंटी सिर्फ़ धीरे से सिर हिला देता है। "व्हाट्स योर फ़ादर ?' बंटी एक क्षण सर की तरफ़ देखता है, फिर नीचे देखने लगता है। समझ ही नहीं आता कि क्या कहे।

"टेल मी अरूप !"

पर जवाब तो नहीं आता। उसे मालूम ही नहीं।

"माइ ममी इज़ प्रिंसिपल !"

जाने कैसे उसके मुँह से निकल जाता है। और कहने के साथ ही वह खुद रुआँसा हो आता है।

सर हँस रहे हैं। बंटी को लग रहा है कि सर और ज्यादा हँसे तो वह रो देगा।

काग़ज़-पेंसिल देकर सर ने उसे बिठा दिया, "राइट ए स्टोरी इन योर ओन वर्ड्स। एनी स्टोरी यू लाइक।"

बंटी के सामने ढेर सारी कहानियाँ तैर रही हैं-ममी की कहानियाँ, फूफी की कहानियाँ, पर उन सबको कैसे लिखा जा सकता है ? वह तो जवाब ही नहीं दे सका। सर ने क्या समझा होगा ? पापा क्या कहेंगे ? सामने फैले काग़ज़ पर आँसू टपक पड़ते हैं।

शाम को वकील चाचा को आया देखकर एकाएक इच्छा हुई कि दौड़कर उनकी बाँह में झूम जाए, जैसे पहले झूम जाया करता था। पर अपनी जगह से हिला तक नहीं गया। बस, एक बार चाचा की तरफ देखा और नज़रें ज़मीन में गड़ गईं।

"अरे, यह क्या, बंटी चुपचाप खड़ा है। देखो, मैं तो तुमसे मिलने आया हूँ।" चाचा ने पास आकर उसे गोद में उठा लिया और फिर जाने क्यों एकटक उसका चेहरा ही देखते रहे। चाचा की गोद में आकर बंटी को लगा जैसे चाचा अकेले नहीं आए हैं। चाचा के साथ बंटी का अपना पुराना घर भी आ गया है, बंटी की ममी भी आ गई हैं। और तभी ख़याल आया-पहले चाचा आते थे तो पापा की ख़बर लाकर देते थे, पापा की भेजी हुई चीजें लाकर देते थे। अब ? उसने बड़ी उम्मीद से चाचा की ओर देखा।

"अरे वकील चाचा, आप !" 'वे' भीतर से आ गईं।

“क्या हुआ, दे आया टेस्ट, हो गया एडमिशन ?' चाचा ने बंटी को एकदम अपने से सटाकर बिठा लिया। पर उसका मन हो रहा है, उठकर यहाँ से भाग जाए। नज़रें हैं कि ज़मीन में धंसती चली जा रही हैं। “कहाँ हुआ एडमिशन ! कुछ किया ही नहीं, शायद नर्वस हो गया था कि..." 'वे' बोल रही हैं।

और तभी कहीं से उभरकर आया-

'फूफी ! आज हलवा बनाओ। बंटी बेटा सेकंड आया है। तीनों सेक्शन में !'

"लगता है वहाँ के स्टैंडर्ड और यहाँ के स्टैंडर्ड में बहुत फ़रक है। ये तो बताते थे कि हमेशा क्लास में...पता नहीं अंग्रेजी की वजह से हो।" वे ही बोले जा रही हैं और चाचा चुप हैं !

चाचा चुप रहें और कोई और बोले, मतलब कुछ गड़बड़ है। बंटी का मन हो रहा है कि कहीं चला जाए।

"इस स्कूल में तो थोड़ी जान-पहचान भी थी, अब आप ही इनसे बात करिए चाचा। मेरी बात तो ये सुनते ही नहीं। यों भी मेरा बोलना..."

बंटी को लग रहा है कि चाचा की नज़रें जैसे उसी पर गड़ी हुई हैं।

मैंने इतना समझाया कि देखो अभी मत लाओ। पहले उसके एक्जाम्स होने दो। छटिटयों में लाकर यहाँ रखना, यदि हिल जाए, उसका मन लग जाए तो यहाँ भर्ती करा देना। वरना बच्चे के साथ भी तो कितनी ज़्यादती है। पर इनको तो जैसे झख सवार हो गई। रात-रात भर नींद नहीं आती थी।"

चाचा क्यों नहीं कुछ बोल रहे ?

"...पता नहीं वहाँ से भेज भी कैसे दिया इस तरह ? मैं तो बाबा...” और कसकर चीनू को उन्होंने छाती से लगा लिया। चाचा शायद बोलेंगे ही नहीं। बंटी झटके से उठा और बाहर बालकनी में आ गया। किसी ने उसे रोका नहीं, किसी ने उसे बुलाया भी नहीं...वह पापा से कहेगा कि पापा उसे वापस ममी के पास भेज दें। वह यहाँ रहेगा भी नहीं, यहाँ पढ़ेगा भी नहीं, वह अपने स्कूल में ही पढ़ेगा। पर बाहर के ढेर-ढेर शोर में जैसे उसका अपना सोचना भी दब गया। धुआँ उड़ाती हुई बसों का शोर, ट्रामों की टनटन, मोटरों की पी-पीं, आदमियों का शोर, शाम का अख़बार बेचनेवालों का शोर, तरह-तरह की चीजें बेचनेवालों का शोर...कितना शोर हो रहा है चारों ओर।

अरे ! यह तो स्टेशन आ गया।

"थोड़ी देर नीचे उतरोगे बेटे ?" पापा पूछ रहे हैं।

बंटी ने सिर हिला दिया। पर पापा उतर गए तो लगा जैसे वह अकेला छूट गया है। नज़रें पापा के साथ लगी-लगी चलने लगीं। पापा हाथ में दोने लिए चले जा रहे हैं।

“लो खाओ !” सामने समोसे और नमकीन सेब रखे हैं।

बंटी खाने लगा।

"मिर्च तो नहीं लग रही न ?"

बंटी ने सिर हिला दिया। पानी दिया तो पी लिया।

सीटी, हरी झंडी, फिर सीटी। गाड़ी धीरे-धीरे सरकने लगी। प्लेटफ़ार्म, प्लेटफ़ार्म की सारी भीड़, सारा शोर पीछे छूटता चला गया। पापा फिर उसके पास आकर बैठ गए। उनका एक हाथ उसके कंधे पर आ टिका है।

“अब बिलकुल डरने की बात नहीं है बेटा, वहाँ कोई इम्तिहान नहीं होगा। मैंने सारी लिखा-पढ़ी कर ली है। बस, अब तो सीधे क्लास में।" पता नहीं, कितनी बार पापा यह बात कह चुके हैं। और हर बार मन ही मन उसने दोहराया है-माइ फ़ादर इज़ डिविज़िनल मैनेजर-पापा की एक-एक बात उसने रट ली है। पर हो सका...

बंटी ने खिड़की पर ठोड़ी टिका ली और बाहर का तो कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा। शायद भीतर की आँखें खुल गई हैं।

अपने पास लिटाकर पापा समझा रहे हैं- “यहाँ नहीं हुआ तो कोई बात नहीं, मैंने हॉस्टल के लिए चिट्ठी लिख दी है।"

बंटी बहुत हिम्मत जुटा रहा है कि कह दे कि वह हॉस्टल नहीं जाना चाहता। रात-भर वह जो सोचता रहा है, सब कह दे, पर कुछ भी तो नहीं कहा जाता।

"हॉस्टल में तुम्हें अच्छा लगेगा। तुम्हारी उम्र के बच्चों को तो हॉस्टल में ही रहना चाहिए। अपने बराबरी के बच्चों के साथ पढ़ो, उन्हीं के साथ खेलो, उन्हीं के साथ रहो...”

'वहाँ तुम्हें अच्छा लगेगा बंटी। वहाँ जोत है, अमि है, उनका साथ रहेगा। यहाँ अकेला-अकेला कितना बोर होता है।'

"प्रिंसिपल मेरे दोस्त हैं। लोकल गार्जियन रहेंगे। इतवार को अपने घर ले जाएँगे। उन्हें पापा ही समझना।"

तैरता हुआ डॉक्टर जोशी का चेहरा सामने से निकल गया-तू इन्हें पापा क्यों नहीं कहता रे ?

हॉस्टल की कितनी बातें पापा बता रहे हैं। बंटी दिमाग पर बहुत ज़ोर लगाता है पर फिर भी हॉस्टल की कोई तसवीर उसके सामने नहीं उभरती।

पहले पापा जब कलकत्ते की बातें बताया करते थे तो कलकत्ते की कितनी तसवीरें उभरती थीं उसके मन में। एक-एक जगह की अनेक-अनेक तसवीरें।

"बंटी, तुम अपनी बनाई हई तसवीरें नहीं लाए बेटे ? मीरा, जानती हो, यह बहुत बढ़िया पेंटिंग करता है। वकील चाचा को बनाकर देगा कि नहीं एक ?"

“तुम हॉबी की तरह बागबानी ले सकते हो, पेंटिंग ले सकते हो। कलकत्ते में तो बाग़बानी के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं है। सारा शौक़ ही मर जाएगा। हॉस्टल में तो..."

हॉबी, तसवीरें, बागवानी, कलकत्ता, हॉस्टल, सब एक-दूसरे पर चढ़ते चले आ रहे हैं, एक-दूसरे में घुलते जा रहे हैं। पापा और भी जाने क्या-क्या बताते-समझाते रहे। दुलारते और थपकते रहे। और जब उसने आँखें मूंद ली तो उठकर अपने कमरे में चले गए।

नींद में उसने देखा कि वह पापा की उँगली पकड़े-पकड़े स्कूल से निकल रहा है और पापा डाँट रहे हैं, गुस्सा हो रहे हैं। जोड़-बाक़ी के मामूली से सवाल तक नहीं आए ? सारे समय उँगली पकड़े-पकड़े रहते हो, चिपक कहीं के। तभी तो किसी के सामने बोला नहीं जाता। या तो लड़कियों की तरह रोओगे, शरमाओगे या...और उन्होंने उँगली छुड़ाकर उसे अलग कर दिया है। अलग होते ही बंटी जैसे भीड़ में खो गया है। बदहवास-सा वह चारों ओर देख रहा है, दौड़-दौड़कर लोगों को पकड़ रहा है, पर जिसे भी पकड़ता है वही धीरे-से हाथ छुड़ाकर आगे चला जाता है। नए-नए चेहरे, नए-नए लोग, नई-नई जगह। वह ज़ोर से चीख पड़ा-“पापा !"

"बंटी, बंटी बेटा !” किसी ने जैसे उसे गोद में उठा लिया है। उसका नाम कौन जानता है ? चेहरा नहीं दिख रहा, सिर्फ़ आवाज़...

"डर गए बेटा ? सपना देखा था ? देखो मैं पापा..."

वह आँखें फाड़-फाड़कर देख रहा है। सामने पापा का चेहरा दिखाई देता है। यह क्या, वह रो रहा है ? नहीं, उसकी आँखों में नहीं, पापा की आँखों में आँसू हैं शायद !

पापा ने उसे फिर से सुला दिया। कमरे में फिर से अँधेरा हो गया है। सिर्फ़ आवाजें तैर रही हैं। अँधेरे की आवाजें भी कितनी अलग तरह की होती हैं !

“क्या हाल हो गया है बच्चे का ? कितना सहमा-सहमा, डरा-डरा रहता है। कैसे नहीं भेजें इसे हॉस्टल ? यह जब सबसे कटकर रहेगा, अपने बराबरी के बच्चों के बीच में ही रहेगा तभी नार्मल होगा। हो खर्चा, जैसे भी हो-जो भी हो।"

“आप मेरी बात ठीक ढंग से समझ ही नहीं रहे हैं। ठीक है, मैं अब इस बारे में कुछ बोलँगी ही नहीं।" और फिर आवाजें भी अँधेरे में डूब जाती हैं।

“अब तुम सो जाओ। बाहर भी तो अँधेरा हो चला है।" तो पहली बार ख़याल आया कि सचमुच बाहर तो बिलकुल अँधेरा हो गया है। इतनी देर से खिडकी पर ठोड़ी टिकाए वह देख क्या रहा है ? पापा ने खेस बिछाकर तकिया लगा दिया तो बंटी बिना एक शब्द भी बोले चुपचाप लेट गया।

"नींद नहीं आ रही हो तो किताब दें ? पढ़ोगे लेटे-लेटे ?''

"नहीं।" बंटी को नींद नहीं आ रही थी, फिर भी उसने आँखें बंद कर लीं। आँखें बंद करते ही चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा फैल गया और डिब्बे में बैठे नए-नए लोग, पापा-सब उसमें घुल-मिल गए। रंग-बिरंगे, तरह-तरह के आकार के छोटे-बड़े धब्बे उसके चारों ओर तैरते चले जा रहे हैं, अलग-अलग, एक-दूसरे में मिलकर।

फिर दृश्य...फिर तसवीरें...एक-दूसरी को काटती हुईं, एक-दूसरी को धकेलती हुईं...

पापा जल्दी-जल्दी खाना खाकर ऑफ़िस चले गए हैं और बंटी अकेला रह गया है। यों घर में 'वे' हैं, बहादुर है, उसकी गोद में लटका हुआ गुदगुदा चीनू है, फिर भी उसे लग रहा है, जैसे पापा उसे अकेला छोड़ गए हैं। और यह नया घर और भी ज्यादा नया हो गया है। बंटी कहाँ जाए, कहाँ बैठे, क्या करे ? जहाँ जाता है; जहाँ बैठता है वही जगह जैसे उसे अपने से परे धकेलती है।

पापा क्या रोज़ इसी तरह छोड़कर चले जाया करेंगे ? वह तो सोचता था, वह होगा, पापा होंगे और रोज़ घूमना होगा।

'बच्चा ! तुम्हारे खिलौने, किताबें वगैरह निकाल दें ? खेलो-पढ़ो ! वहाँ छुट्टी के दिन अपनी ममी के साथ क्या किया करते थे ?''

जाने क्यों हर बार दीपा आंटी याद आ जाती हैं। 'वे' ममी की, उस घर की बातें पूछती जा रही हैं और उसके सामने ममी, जोत, अमि, डॉक्टर साहब, कोठी घूमते चले जा रहे हैं। क्या बताए, कहाँ से शुरू करे ? उससे कुछ नहीं बोला जाता।

"चलो, तुम हमसे बात नहीं करते तो खेलो !"

खिलौने, बंदूक, किताबें-सब बंटी के सामने रखे हैं। पर बंटी बैठा है, वैसे ही चुप। इस नए घर में आकर उसकी अपनी चीजें भी जैसे नई हो गई हैं।

“आओ हम खेलें तुम्हारे साथ।" 'वे' चीनू को लेकर पास आ बैठी हैं। चीनू प्रसन्न हो-होकर खिलौनों को इधर-उधर उठा-पटक रहा है। ख़याल आया-वह अमि को अपने खिलौने नहीं लेने देता था।

चाबी की मोटर करती हुई निकल गई। फ्लाइंग-प्लेट लाल-पीली रोशनी दिखा-दिखाकर घूम रही है। चीन किलकारी मार रहा है।

"चीनू देख, वो गिरा ! चीनू देख...” और चीन के साथ-साथ 'वे' भी हँस रही हैं। एक-एक खिलौना चीनू को चला-चलाकर दिखा रही हैं।

बंटी बालकनी में खड़ा है, सामने की भीड़-भाड़, शोर-शराबे में डूबा हुआ। ढेर-ढेर आवाजें हैं, पर कुछ समझ में नहीं आ रहा है, ढेर-ढेर शक्लें हैं, पर कोई पहचानने में नहीं आ रहा और सबके ऊपर है यह बात कि पापा शाम को आएंगे।

शाम को पापा आए हैं, "कैसे रहे बंटी, क्या किया सारे दिन बेटे ?" जवाब 'वे' दे रही हैं- “सारे समय बालकनी में बैठा रहा, बिलकुल नहीं बोलता। मैं तो खेलने भी बैठी पर...सच मुझे तो तरस आने लगा। और इस चीनू को देखो, पाँच बजे से ही आँखें फाड़-फाड़कर चारों तरफ़ ऐसे देखता है जैसे कुछ ढूँढ़ रहा है। बस, तुम्हें ढूँढ़ता है। यह तो अब तुम्हें बहुत मिस करने लगा है..."

उन्होंने चीन को पापा की गोद में लाद दिया। वह हँस रहा है, पापा के बाल नोंच रहा है।

“ले भैया के गाल नोंच।” पापा ने चीनू को बंटी की ओर मोड़ दिया तो चीनू बंटी के गाल नोंचने लगा।

“लो प्यार करो इसे, इससे खेलो, इससे दोस्ती करो बेटे !” तो बंटी ने उँगलियाँ उसके गुदगुदे गालों पर फिरा दीं।

चीनू ने पापा की गोद में खड़े होकर पापा के कान पकड़ लिए। चीनू हँस रहा है, 'वे' हँस रही हैं, “यह तुम्हारे कान खींचकर तुम्हें ठीक करेगा।" पापा भी हँस रहे हैं।

बंटी चुपचाप उठकर बालकनी में चला गया। जगमगाती बत्तियाँ, लालनीली-पीली नियॉन लाइट्स। रात में जैसे सड़क बिलकुल बदली हुई लग रही है। चीजें इतनी बदल कैसे जाती हैं ?

फिर वही प्रश्न !

“अकेले में डरोगे तो नहीं, सो जाओगे न ?"

बंटी का मन हो रहा है कि कह दे-वह बहुत-बहुत डरेगा। इस घर में तो वह अकेला सो ही नहीं सकता। वहाँ तो फिर भी अमि और जोत थे, यहाँ तो ...वह सारे दिन भी एक तरह से डरता ही रहा है। पता नहीं कैसा-कैसा डर।

"अरे बंटी अपना बहादुर बच्चा है, कोई लड़की है जो डरेगा ?"

“न हो तो बहादुर भी यहीं सो जाएगा। क्यों बच्चा ठीक है न ?”

“और बीच का दरवाज़ा खुला रहेगा बेटे, हम लोग तो उधर हैं ही।"

'वे' और पापा ही बोले चले जा रहे हैं। बंटी तो कुछ बोल ही नहीं पाता।

“सो जाओगे न ?” बंटी ने एक बार पापा की ओर देखा। पापा के साथ 'उनका' चेहरा भी था। और बंटी ने धीरे से कह दिया, "हाँ !"

बहादुर तो पड़ते ही सो गया पर बंटी जैसे कंबल के नीचे भी काँप रहा है। अपने-अपने पलंग पर सोते हुए अमि और जोत, उस कमरे से आया हुआ रोशनी का टुकड़ा, बातों के टुकड़े-सबको जैसे पकड़ने की कोशिश कर रहा है।

'खट' उधर की बत्ती बंद हो गई तो जैसे हाथ से वह रोशनी का टुकड़ा भी फिसल गया। जोत और अमि के पलंग भी जैसे कहीं अँधेरे में डूब से गए। सिर्फ़ आवाजें। और फिर बंटी जैसे बिलकुल अकेला हो गया।

गंदी बात। क्या पापा और ये भी...इच्छा हो रही है कि उठकर देखे। वही दृश्य अँधेरे में से जैसे चारों ओर लटक गया। जाने कैसी हिम्मत आ गई।

दबे पैरों बंटी दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ। झाँककर देखा-अँधेरा घुप्प ! कहीं कुछ दिखाई नहीं दे रहा। तभी एक ओर एक छोटा-सा लाल तारे जैसा कुछ चमक उठा, लाल सुर्ख क्या है ये ?

"कौन, बंटी ?"

दौड़कर अपने बिस्तर में दुबक गया, पर बिस्तर में लेटकर भी बंटी का दिल धक-धक कर रहा है। वह लाल-लाल क्या चमक रहा था, पापा ने देखा तो नहीं।

फिर वही बात।

पापा अपने पास बिठाकर पूछ रहे हैं, “एक बात कहें बेटा, मानोगे ?"

बंटी नज़रें पापा के चेहरे पर टिका देता है।

"तुम मीरा को क्या कहते हो ?"

बंटी चुप।

“ममी कहोगे ?"

"बंटी, डॉक्टर साहब को पापा कहा कर बेटे''...और तड़ाक से दिया हुआ अपना जवाब ही कानों में गूंज गया-मेरे पापा तो कलकत्ते में हैं।

पर अब ? अब जैसे कोई जवाब ही नहीं सूझ रहा। वह सिर्फ पापा की ओर देखता रहता है।

"छोटी ममी ! ठीक है ?"

तो आँखों के सामने जैसे ममी आकर खड़ी हो गईं। बंटी की नजरें झुक गईं।

"शरम आती है ? शरभ की क्या बात, ममी ही तो हैं। वहाँ की ममी वे, यहाँ की ममी ये। कहोगे न ?”

बंटी ने धीरे से 'हाँ' कह दिया और कहने के साथ ही जैसे भीतर की आँखें रो पड़ीं। पापा पीठ थपथपा रहे हैं। उन्होंने कहीं देख तो नहीं लिया-लड़की की तरह रोते हो..

"बच्चे, उठो बच्चे, बहुत दिन उग आया।"

बंद आँखों से ही बंटी सुन रहा है और भीतर ही भीतर सिकुड़ा चला जा रहा है-शरम से, डर से, दुख से...

“अरे यह क्या पिस्सी कर दी...”

उसके बाद कुछ पता नहीं, शायद बहादुर कपड़े बदलवा रहा है। कमरे में सिर्फ़ आवाजें तैर रही हैं-उनकी आवाजें, पापा की आवाजें, बहादुर की आवाजें। और सारी आवाज़ों को चीरते हुए कहीं से दो हाथ आकर बिस्तरे को रजाई से ढक देते हैं। उसके चारों ओर शॉल लिपट जाता है-सब गुपचुप !

“बहादुर, ये चद्दर धुलने डाल और गद्दे के उतने हिस्से को धोकर बाहर फैला दे। गद्दा बाहर फैल गया है और सड़क पर चलते हर आदमी को भी जैसे मालूम पड़ता जा रहा है कि...अब बंटी कहाँ खड़ा हुआ करेगा ? अपने घर में तो कब्भी-कभी बिस्तर में सू-सू नहीं की उसने, पर अब...

शाम को सब जैसे के तैसे हो गए। बस, पापा का चेहरा जाने कैसे एकदम ममी के चेहरे की तरह हो गया है। खाने की मेज़ पर बैठे बंटी को बराबर लगता रहा कि जैसे पापा की आँखें भी उसकी प्लेट पर चिपककर उसे घूरेंगी। उससे प्लेट की तरफ नहीं देखा जा रहा। ‘उनकी' और पापा की ओर भी नहीं देखा जा रहा है। अपने में ही सिमटा-सिकुड़ा वह बैठा है।

और बिना कहीं देखे ही लग रहा है जैसे अ...ब...स...

एकाएक ही लगा जैसे उसे बहुत ज़ोर से सू-सू आ रही है। ओह ! पता लग गया, अभी कहीं भीतर ही हो जाती तो रेल में बैठे इतने आदमियों को भी मालूम पड़ जाता। कहीं हॉस्टल में भी हो गई तो...वह झटके से उठा।

बाहर सारा डिब्बा रोशनी से भरा हुआ है। सामने बैठे हुए पापा किताब पढ़ रहे हैं। "क्या बात है बेटे ?” पापा पूछ रहे हैं। पापा को देखकर, पापा की आवाज़ सुनकर लगा जैसे वह पता नहीं कहाँ से...

"बाथरूम जाऊँगा !"

पापा उसके साथ बाथरूम तक चलते हैं। भीतर कोई है। वे दोनों बाहर ही खड़े हो गए। पापा ने एक सिगरेट लगा ली और खिड़की की तरफ़ सरक गए। बाहर खुब अँधेरा। पापा ने सिगरेट का एक कश खींचा तो सिरा दमक उठा।

लाल तारा। बाहर के गाढ़े अँधेरे में जाकर वह तारा टॅक गया। एक रहस्य था जो खुल गया। बंटी जैसे कहीं से हलका हो आया।

हिलती ट्रेन में बाथरूम जाने में उसे थोड़ा डर लगता है पर हिम्मत करके घुस गया।
“अब खाना खाकर ही सोना।” पापा टोकरी में से डिब्बे निकालने लगे।

बंटी खिड़की में से झाँकने लगा। स्याह अँधेरे में जुड़े हुए रोशनी के छोटे-छोटे चौखटों की पूरी की पूरी कतारें उसके साथ-साथ दौड़ी चली जा रही हैं, एक क्षण को बंटी का मन कहीं से पुलक आया। मन हुआ हाथ निकालकर, एक चौखटे को पकड़ ले। सिर आगे किया तो ?

सामनेवाले चौखटे पर ही एक काला-सा धब्बा उभर आया। बंटी सिर हिला-हिलाकर, हाथ हिला-हिलाकर उसमें तरह-तरह की आकृतियाँ बनाने लगा। जोत और अमि होते तो उन्हें दिखाते। मन हुआ पापा को बुलाकर दिखाए।

“बेटे, इधर ही आ जाओ।"

और खाते हुए बंटी ने पहली बार डिब्बे में बैठे हुए लोगों को देखा, डिब्बे को पूरी तरह देखा। लगा जैसे वह अभी-अभी डिब्बे में घुसा है। यह मूंछवाला आदमी उसके सर जैसा नहीं है ?

उसने एक पूरी और ली। सब्जी उसे अच्छी लगी। खाना खाकर वह पापा को भी रोशनी के चौखटे दिखाएगा।

“क्यों साहब, हॉस्टल का खर्चा कितना पड़ जाता होगा ?" तो इस आदमी को मालूम है कि...

“यही करीब... ढाई सौ के करीब। लेकिन...” और पापा ने बात बीच में ही छोड़ दी।

हॉस्टल !

और रोशनी के चौखटों पर जैसे कहीं से एक धुंध की परत छा गई। लेटा तो साथ-साथ दौड़ते हुए रोशनी के सारे के सारे चौखटे स्याह अँधेरे में ही घल गए। वह चमकता हुआ लाल तारा भी ड्रबा। और बंटी उस अँधेरे में डूबता ही चला गया। फिर उस अँधेरे में से ही एक और अँधेरा उभरा...

सारा हॉल अँधेरा घुप्प ? केवल आवाज़ तैर रही है। बंटी को अजीब-सी धुकधुकी हो रही है। कैसा जादू होगा ? देखते ही देखते एक बड़ा फीका, हलका-सा प्रकाश फैला और सिर पर नीला आसमान तन गया। झिलमिल-झिलमिल सितारे चमकने लगे।

बंटी चकित, जादू में बँधा हुआ। अलग-अलग तारों के नाम और भी जाने क्या-क्या और धीरे-धीरे वह भूल ही गया कि वह प्लेनेटोरियम में बैठा हुआ है।

बंगाल का जादू ! दिन में ही रात, छत में सितारे। सिनेमावाले नहीं सच्ची-मुच्ची के। बंटी पुलकित, उसने जादू देखा।

प्लेनेटोरियम से विक्टोरिया-मेमोरियल तक बंटी पापा के साथ छलाँग लगालगाकर चलता रहा। वहाँ 'वे' बहादुर और चीन के साथ बैठी हुई हैं। चारों तरफ़ ढेर-ढेर लोग। यहाँ के लोग घरों में कभी बैठते ही नहीं क्या ?

'उन्होंने' चीनू को पापा की गोद में बिठा दिया।

मोशला मूड़ी...चीना बदाम।

मुरमुरे और मूंगफली ! धत्तेरे की, यह भी कोई नाम हुए। बड़ी देर तक बंटी को जैसे हँसी आती रही।

पास ही उगी हुई कदली की क्यारियों में कितनी घास-फूस उग आई। बंटी गया और क्यारी की सफ़ाई करने लगा। छी-छी, इतनी गंदी क्यारी।

“अरे बच्चा ! वहाँ मिट्टी क्यों खोदा-खादी कर रहे हो, हाथ गंदे हो जाएँगे।" झट से बंटी ने हाथ खींच लिए।

“क्यारी बहुत गंदी थी पापा, पौधे खराब नहीं हो जाएँगे।" उसने पापा को जैसे सफ़ाई दी।

पापा एक क्षण उसकी ओर देखते रहे, फिर उनका चेहरा जाने कैसा-कैसा हो गया। बंटी ने कुछ गलत कर दिया ? नहीं, पापा ने तो उसे गोद में बिठाकर प्यार किया।

रात में सोया तो छत पर फिर तारे झिलमिलाने लगे। ज़मीन पर चाबीवाली मोटर दौड़ने लगी। फ्लाइंग प्लेट घूमने लगी। दो पहलवान बॉक्सिंग करने लगे। चीनू की किलकारियाँ गूंजने लगीं। हम भी चलाएगा शाब, हम भी चलाएगा। अपनी मिचमिची आँखों को झपकते-खोलते बहादुर हर चीज़ को बड़े कौतुक से देखने लगा। हवा के बीच में ही कहीं मोगरा खिल आया तो कहीं डहेलिया।

"तुम बहस मत करो मीरा, इस बात पर कुछ भी मत कहो।" एकाएक सारे तारे बुझ गए। मोगरा और डहेलिया गायब हो गए। सारा दृश्य जहाँ का तहाँ स्थिर हो गया। सिर्फ पापा की आवाज़ यहाँ से वहाँ तक गूंजती रही, गुस्से से भरी हुई आवाज़।

“मुझे किसी और स्कूल में कोशिश नहीं करनी, उसे हॉस्टल ही भेजना है। यहाँ घर में रखने के लिए मैं उसे नहीं लाया हूँ। मैं क्या जानता नहीं कि इस घर में..."

और फिर बातों के टुकड़े-टुकड़े-एबनॉर्मल...महीना कैसे चलेगा...तुम्हारी ज़िद...मेरा तो कुछ कहना ही गलत...

और फिर केवल आवाजें, बिना शब्दों की आवाजें-कभी ज़ोर-ज़ोर की, कभी दबी-दबी, फुसफुसाती हुईं।

और फिर सन्नाटा। तो पापा उसे सचमुच हॉस्टल भेज देंगे ? हॉस्टल भेजने के लिए ही यहाँ लाए हैं?

सन्नाटा और ज्यादा गहरा हो गया !

बंटी ने अपने दोनों पैर सिकोड़कर पेट से सटा लिए और दोनों हथेलियों को जाँघों के बीच दबोचकर अपने को पूरी तरह समेट लिया।

न्यू मार्केट की भीड़-भाड़, चहल-पहल ! बाज़ार नहीं, जैसे कोई प्रदर्शनी हो। पापा के हाथ में लिस्ट है और चीजें खरीदी जा रही हैं। बंडल हैं कि बढ़ते ही जा रहे हैं।

बंटी कभी दर्जी के यहाँ खड़ा नाप दे रहा है, कभी जूतेवाले के यहाँ जूते पहनकर देख रहा है।

“एक साइज़ बड़ा ही दो, बच्चों को बढ़ते देर नहीं लगती...'

जूते, मोज़े, बनियान, पैंट्स, शर्ट्स, जाने कितनी चीजें हैं !

बंटी को सिर्फ पापा के साथ रहना है, अपना नाप देना है। चुनने का तो कोई प्रश्न ही नहीं। कपड़ा, रंग, डिज़ाइन, संख्या, सबकुछ पहले से ही तय है...

ये वाला नहीं वो वाला। नीला नहीं ब्राऊन, बटन नहीं जिप। एक नहीं दो ...ममी को तो वह परेशान कर देता था।

लिस्ट पर टिक मार्क लगता जा रहा है। सूटकेस, अटैची, एयर-बैग, होल्डॉलसब पर बंटी का नाम, पता ! पता देखकर ही बंटी को मालूम हुआ कि पापा आजकल चौरंगी रोड पर रहते हैं। वह तो इसे अब तक एलगिन रोड ही समझे था।

बाहर की भीड़-भाड़ से लौटते तो घर बड़ा सुनसान-सा लगता है। एक अजीब-सा सन्नाटा ! जहाँ कहीं भी 'वे', पापा और बंटी बैठते, जाने कहाँ से बंटी के मन में अ-ब-स उभर आता। उसके बाद बराबर लगता कि पापा की आँखें भी सब तरफ़ से बस उसे ही देख रही हैं। पर ममी की तरह पापा की आँखों को उसने कभी नहीं देखा-न प्लेट में, न इधर-उधर।

ममी की आँखों को देखे भी कितने दिन हो गए।

"बंटी की सारी चीज़ों पर नाम टॅक गए ?"

“आज रात को टाँक दूंगी।"

“आज रात को ज़रूर टाँक देना। इट इज़ ए मस्ट।"

"मुझे मालूम है।"

और रात में बंटी बाथरूम जाने के लिए उठा तो देखा अपने चारों ओर ढेर सारे कपड़े फैलाए 'वे' नाम टाँक रही हैं। बंटी एक क्षण ठिठककर देखता रहा...

'जा बेटे, तू जाकर खाना खा ले और सो जा। मैं सब कवर चढ़ा दूंगी।' क्षण-भर को दोनों चेहरे, दोनों दृश्य एक-दूसरे में घुल-मिल गए।

सामान बँध रहा है। उसके पुराने कपड़े, उसके खिलौने, उसका बक्सा सब अलग करके रख दिए गए हैं।

बंटी चुपचाप बैठा बस देख रहा है और कहीं उभर रहा है-ये सब खिलौने इस टोकरी में जमा दो बंसीलाल, ये सब बंटी की पसंद के खिलौने हैं। बंदूक नहीं आ रही तो हाथ में ले जाएगा। यह तो उसकी ख़ास चीज़ है।

बहादुर और चीनू उन खिलौनों पर जुटे हुए हैं।

टैक्सी नीचे खड़ी है। बहादुर सामान उतार रहा है। सारा नया-नया सामान। उसका नाम न हो तो वह इनमें से एक भी चीज़ को पहचान भी न पाए।

'वे' नीचे खड़ी हैं। बहादुर चीनू को लिए खड़ा है। पापा पीछे सामान जमा रहे हैं। प्यार करवाकर और नमस्ते करके बंटी टैक्सी में बैठ गया।

जाने कैसे ममी का चेहरा रह-रहकर 'उनके चेहरे पर चिपक जाता है। पूरा का पूरा दृश्य किसी और दृश्य के साथ घुल-मिल जाता है। कभी 'वे' ममी बन जाती हैं, कभी वे 'वे' रह जाती हैं।

टैक्सी चली तो 'उन्होंने' हाथ ज़रा-सा ऊपर उठाकर हिला दिया। 'वे', बहादुर, चीनू-सब पीछे छूट गए। एक क्षण को आँखों के सामने वह कमरा उभर आया जिसमें अभी-अभी वह अपना सारा सामान और सारे खिलौने छोड़कर आया है। अब शायद वह कभी अपनी बंदूक नहीं चला पाएगा।

बार-बार उसे लग रहा है, जैसे पापा उसे बाँहों में समेटकर अपने पास खींच लेंगे, कुछ कहेंगे। नहीं, ऐसा तो ममी करती थीं। पता नहीं क्यों पापा का, ममी का, 'उनका'-सबके चेहरे एक-दूसरे से गड़बड़ होते जा रहे हैं...

'हरे कृष्ण। हरे कृष्ण। कृष्णा-कृष्णा हरे-हरे'...ज़ोर-ज़ोर से कहीं गाने की आवाज़ आ रही है।

बंटी की आँख खुल गई-ओह ! वह गाड़ी में है। गाड़ी शायद खड़ी है। डिब्बे में ही कोई गा रहा है। बंटी उठकर बैठ गया।

दो लड़के लकड़ी की टिकटी बजा-बजाकर गा रहे हैं-झूम-झूमकर।

“पानी पिओगे बेटा ?” उसे उठा देखकर पापा ने पूछा। पापा के पूछने से ही लगा कि उसे प्यास लग रही है, शायद बहुत देर से प्यास लग रही है।

पानी पीकर बंटी फिर सो गया। वे लड़के उतर गए पर हरे-हरे की आवाज़ जैसे सारे डिब्बे में भर गई है, हर तरफ़ से जैसे वही आवाज़ आ रही है। संगीत की लय, गाड़ी के हिचकोलों के साथ-साथ बंटी जैसे कहीं गहरे में डूबता जा रहा है।

गाने की आवाज़ में ढेर-ढेर आवाजें मिलती जा रही हैं। आवाजें आकार ले रही हैं...चॉलबे ना, चॉलबे ना, हॉबे ना, हॉबे ना...इंकलाब जिंदाबाद। क़तार बाँधकर हवा में मुट्ठियाँ उछालते हुए लोग चले जा रहे हैं, लाल झंडियाँ लिए।

“यह कम्युनिस्टों का जुलूस है। कलकत्ता जुलूसों का शहर है।" पापा बता रहे हैं।

बंटी रोज़ जुलूस देखता है और लोगों के साथ-साथ ख़ुद भी चिल्लाता है। उसने चॉलबे ना, हॉबे ना सीख लिया है। पर बस मन ही मन में। रोज़ सोचता कि वह भी ज़ोर से चिल्लाएगा, हवा में मुट्ठी उछालकर...चॉलबे ना...चॉलबे ना। पर एक दिन भी चिल्ला नहीं पाया।

'बोलो हरि, हरि बोऽल...बोलो हरि, हरि बोऽल' साथ में घंटी टुनटुना रही है।

“मरे हुए आदमी को यहाँ इसी तरह से ले जाते हैं।" पापा ने बताया तो बंटी एक क्षण को सकते में आ गया। अनायास ही दोनों उँगलियाँ जड़ गईं। स्काउट मास्टर ने बताया था कि डेड-बॉडी को देखकर सेल्यूट करना चाहिए।

मुँह भी खुला हुआ ! मरा हुआ आदमी क्या जिंदा आदमी की तरह ही होता है ? कहीं जिंदा आदमी को ही तो नहीं ले जा रहे ?

दो-तीन दिन तक उठते-बैठते, सोते-जागते 'हरि बोल' ही गूंजता रहा। साथ ही एक अजीब-सा डर।

धीरे-धीरे सारी आवाजें भी गायब हो गईं।

वह पापा के साथ चला जा रहा है। एकदम नई और सुनसान जगह है।

"वह सामने तुम्हारा हॉस्टल है।" पापा ने कहा तो बंटी की आँखें ऊपर उठ गईं। कहीं भी तो कुछ नहीं।

"तुम्हें प्रिंसिपल से मिलवाकर, सबसे जान-पहचान करवाकर शाम को हम चले जाएँगे।" और पता नहीं बंटी को क्या हुआ कि पापा जाएँ उसके पहले वही पापा को छोड़कर दौड़ पड़ा है। वह दौड़ता जा रहा है, बिना पीछे मुड़े-बस आगे ही आगे। नदी-नाले, पहाड़-मैदान-सब पार करता जा रहा है और फिर पता नहीं कहाँ गिर जाता है।

सफ़ेद दाढ़ी, सफ़ेद जटा, खड़ाऊँ, कमंडल...एक साधु उसके पास खड़े हैं। वह डर नहीं रहा है। इन साधु को तो उसने कई बार देखा है, पर याद नहीं आ रहा, कहाँ-कब...

"तुम कौन हो बेटा ? कहाँ से आए हो ?''

बंटी याद करने की कोशिश कर रहा है, पर जैसे उसे कुछ याद भी नहीं आ रहा।

“बोलो बेटा, बताओ !"

वह बहुत ज़ोर लगा रहा है...वह कहाँ से आया है, कहाँ से...और उसके मन में एक अजीब-सी दहशत भरने लगी है।

"डरो नहीं, बताओ बेटा।" वे उसका कंधा थपथपा रहे हैं। "बंटी, उठो बेटा, अब उतरना है।" कोई उसे कंधों से पकड़े हुए है और वह याद करने की कोशिश कर रहा है कि वह कुछ जवाब दे सके...

उसे गोद में उठाकर किसी ने खड़ा कर दिया। सफ़ेद दाढ़ीवाले चेहरे में से एक और चेहरा उभर आया-पापा !

“जल्दी से मुँह धो लो, नींद उड़ जाएगी। पाँच-सात मिनट में ही स्टेशन आनेवाला है।"

तो बंटी धीरे-धीरे जैसे अपने में लौट आया। रेल का डिब्बा, डिब्बे में बैठे हुए लोग, सामान बाँधते हुए पापा। सवेरे का उजास चारों ओर फैल गया था।

पता नहीं क्या हुआ कि इतनी देर में मन पर रखा हुआ पत्थर जैसे एकाएक ही दरक गया। और ढेर-ढेर आँसू उफन आए। भीतर की आँखों में ही नहीं बाहर की आँखों में भी।

आँसू-भरी आँखों के सामने डिब्बे की हर चीज़, बैठे हुए अजनबी लोगों के चेहरे पहले धुंधले हुए, और धुंधले हुए और फिर एक-दूसरे में मिल गए। पापा का चेहरा भी उन्हीं में मिल गया और फिर धीरे-धीरे सारे चेहरे एक-दूसरे में गड्डमड्ड हो गए।

***

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