| नारी विमर्श >> आपका बंटी आपका बंटीमन्नू भंडारी
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आपका बंटी मन्नू भंडारी का एक बहुत ही रोचक उपन्यास है...
चार
      आज पापा आनेवाले हैं।
      
      दस बजे बंटी को सरकिट हाउस पहँच जाने को लिखा है। ममी हैं कि पता नहीं कैसा
      मुँह लिए घूम रही हैं। न हँसती हैं, न बोलती हैं। बस गुमसुम। इस बार वकील
      चाचा के जाने के बाद से ही ममी ऐसी हो गई हैं। वकील चाचा भी एक ही हैं बस।
      ख़ुद तो बोल-बोलकर ढेर कर देंगे और ममी बेचारी की बोलती बंद कर जाएँगे। पता
      नहीं क्या हो गया है ममी को ? उसे देखना शुरू करेंगी तो देखती ही रहेंगी, ऐसे
      मानो उसके भीतर कुछ ढूँढ़ रही हों। रात को कहानी भी नहीं सुनातीं। ज़्यादा
      कहो तो कह देती हैं, 'सो जा, कल सुनाऊँगी। वह तो सो ही जाता है, पर ममी को
      ऐसा करना चाहिए ?
      
      उस दिन रात में पता नहीं कब बंटी की नींद खुल गई। देखा, दूर पेड़ के नीचे कोई
      खड़ा है। डर के मारे उससे तो चीख़ा तक नहीं गया था, बस साँस जैसे घुटकर रह गई
      थी। और वे ममी निकलीं। उसके बाद कितनी देर तक ममी उसे थपकती रहीं, दिलासा
      देती रहीं, पर भीतर दहशत जैसे जमकर बैठ गई थी। आधी रात को ऐसे कहीं घूमा जाता
      होगा ? चाचा जो कह गए थे गड़बड़ होने की बात। वह बिलकुल ठीक है। ज़रूर कुछ
      गड़बड़ हुआ है। ममी पहले तो ऐसी नहीं थीं। पर वह क्या करे ? ममी जब चुप-चुप
      हो जाती हैं तो उसका मन बिलकुल नहीं लगता।
      
      परसों ही तो पापा की चिट्ठी आई थी। लिफ़ाफ़े पर ममी का नाम लिखा था। पिछली
      बार तो लिफ़ाफे पर भी उसका नाम था। अंदर भी दो काग़ज़ निकले, एक ममी खुद
      पढ़ने लगीं, दूसरा उसे पकड़ा दिया। तो क्या ममी के पास भी पापा की चिट्ठी आई
      है ? ममी-पापा क्या दोस्ती करनेवाले हैं ? उसने अपनी चिट्ठी पढ़ ली और फिर
      ममी की ओर ध्यान से देखने लगा। ममी क्या ख़ुश नज़र आ रही हैं ? कहीं कुछ
      नहीं, बस वैसे ही चुप बैठी हैं, मानो पापा की कोई चिट्ठी ही नहीं आई हो। एक
      बार उसकी चिट्ठी पढ़ने तक के लिए नहीं माँगी। पिछली बार तो केवल उसी के पास
      चिट्ठी आई थी और उसे पढ़कर ही ममी कितनी प्रसन्न हुई थीं। पापा के पास भेजने
      से पहले उसे अपनी बाँहों में भरकर इतना प्यार किया था, इतना प्यार किया था,
      मानो वह कहीं भागा जा रहा हो। और जब वह लौटकर आया था तो ममी उससे सवाल पर
      सवाल पूछे जा रही थीं... 'और क्या कहा और क्या कहा'... के मारे परेशान कर
      दिया था।
      
      ममी से छिपकर उसने ममीवाला पत्र उठाकर देखा, घसीटी हुई अंग्रेज़ी की चार-छह
      लाइनें थीं, वह कुछ भी समझ नहीं सका। उसका पत्र हिंदी में था और बड़े-बड़े
      साफ़ अक्षरों में।
      
      परसों रात को जब वह सोया तो बराबर उम्मीद कर रहा था कि ममी ज़रूर पहले की तरह
      प्यार करेंगी, कुछ कहेंगी। पर उन्होंने कुछ नहीं कहा, सिर्फ पूछा, 'त जाएगा
      पापा के पास ?' यह भी कोई पूछने की बात थी भला ! पापा आ रहे हैं और वह जाएगा
      नहीं ? उसके बाद ममी बोली नहीं।
      
      इस समय ममी उदास बिलकुल नहीं हैं। ममी की उदासी वह खूब पहचानता है। बिना आँसू
      के भी आँखें कैसी भीगी-भीगी हो जाती हैं। 
      
      अच्छा है, बैठी रहें ऐसी ही। वह तब पापा के पास जाकर खूब घूमेगा, चीजें
      खरीदेगा, हाँ, नहीं तो।
      
      वह जल्दी-जल्दी तैयार हो रहा है और मन ही मन कहीं उन चीज़ों की लिस्ट तैर रही
      है जो उसे माँगनी है। कैरम-बोर्ड जरूर लेगा, एक व्यू मास्टर भी।
      
      “दूध-दलिया खा लो।" फूफी अलग ही अपना मुँह फुलाए घूम रही है। पिछली बार भी
      पापा आए थे तो यह ऐसे ही भन्ना रही थी, जैसे इसकी भी पापा से लड़ाई हो। 
      
      “मैं नहीं खाता दूध-दलिया। बस रोज़ सड़ा-सा दूध-दलिया बनाकर रख देती है।"
      
      “बंटी, क्या बात है ?" कैसी सख्त आवाज़ में बोल रही हैं ममी। बंटी भीतर ही
      भीतर सहम गया। धीरे-से बोला, “हमें अच्छा नहीं लगता दूध-दलिया।"
      
      "क्यों, दूध-दलिया तो तुझे खूब पसंद है। एक दिन भी न बने तो शोर मचा देता है।
      आज ही क्या बात हो गई ?"
      
      "पसंद है तो रोज-रोज वही खाओ, एक ही चीज बस। मैं नहीं खाता।"
      
      "देख रही हूँ जैसे-जैसे तू बड़ा होता जा रहा है, वैसे ही वैसे ज़िद्दी और ढीठ
      होता जा रहा है। अच्छा है, भद उड़वा सबके बीच मेरी।"
      
      कैसे बोल रही हैं ममी ! इसमें भद्द उड़वाने की क्या बात हो गई ! वह नहीं
      खाएगा दूध-दलिया, बिना नाश्ता किए ही चला जाएगा।
      
      वह मेज़ से उठ गया तो ममी ने एक बार भी नहीं कहा कि कुछ और बना दो ! न कहें,
      उसका क्या जाता है ?
      
      हीरालाल को कल ही कह दिया था कि ठीक नौ बजे आ जाना। साढ़े नौ बज रहे हैं, पर
      उसका पता नहीं। बंटी बेचैनी से इधर-उधर घूम रहा है। थोड़ी-थोड़ी देर में घड़ी
      देख लेता है। ममी किताब लेकर ऐसे बैठ गई हैं, जैसे समय का उन्हें कुछ होश ही
      नहीं हो। वह बताए कि साढ़े नौ बज गए। पर क्या फ़ायदा, कह देंगी अभी आता होगा।
      
      वह सब समझता है। अब उतना बुद्ध नहीं है। ममी को शायद अच्छा नहीं लग रहा है कि
      बंटी पापा के पास जा रहा है। पर क्यों नहीं लग रहा है ? उसकी तो पापा से
      लड़ाई नहीं है। पर ऐसा होता है शायद !
      
      एक बार क्लास में विभू से उसकी लड़ाई हो गई थी तो उसने अपने सब दोस्तों की
      विभू से कुट्टी नहीं करवा दी थी ? शायद ममी भी चाहती हैं कि वह भी पापा से
      कुट्टी कर ले। तो ममी उसे कहतीं। अच्छा मान लो ममी उससे कहती तो वह कुट्टी कर
      लेता ? और उसके मन में न जाने कितनी चीजें तैर गईं-कैरम-बोर्ड,
      व्यू-मास्टर...मैकेनो...ग्लोब... 
      
      तभी हीरालाल की छोटी लड़की आई, “बापू को ताप चढ़ा है, वे नहीं आ सकेंगे।"
      
      "क्या हो गया ?" ममी की आवाज़ में जरा भी परेशानी नहीं है। हाँ, उनका क्या
      बिगड़ता है। वे तो चाहती ही हैं कि मैं नहीं जाऊँ। मैं ज़रूर जाऊँगा, चाहे
      कुछ भी हो जाए। 
      
      “भोत ज़ोर का ताप चढ़ा है, सीत देकर। वे तो गुदड़े ओढ़कर पड़े हैं, मुझे
      इत्तिला देने को भेजा है।" और वह चली गई।
      
      “अब ?" बंटी रोने-रोने को हो आया।
      
      ममी एक क्षण चुप रहीं। फिर फूफी को बुलाकर कहा तो फूफी अलग मिज़ाज दिखाने
      लगी, "बहुजी, मैं नहीं जाऊँगी वहाँ।"
      
      "क्यों ? बस तुम ही मुझे छोड़कर आओगी।" बंटी फूफी का हाथ पकड़कर झूल आया,
      "जल्दी चलो, अभी चलो।"
      
      “छोड़ आओ फूफी, वरना कौन ले जाएगा ?” कैसी ठंडी-ठंडी आवाज़ में बोल रही हैं।
      जैसे, कहना है, इसलिए कह रही हैं बस। ले जाए, न ले जाए, कोई फ़रक नहीं
      पड़ेगा।
      
      फूफी एकदम बिफर पड़ी, “कोई नहीं है ले जानेवाला तो नहीं जाएगा। मिलने की ऐसी
      ही बेकली है तो ख़ुद आकर ले जाएँगे। इस घर में आ जाने से तो कोई धरम नहीं
      बिगड़ जाएगा। आप जो चाहे सज़ा दे लो बहूजी, मैं वहाँ नहीं जाऊँगी। मुझसे तो,
      आप जानो..."
      
      और बड़बड़ाती हुई फूफी चली गई। ममी ने कुछ भी नहीं कहा। ममी का अपना काम होता
      तो कैसे बिगड़तीं। अब फूफी को कहो न कि बिगड़ती जा रही है, ढीठ होती जा रही
      है। बस डाँटने के लिए मैं ही हूँ। ठीक है कोई मत ले जाओ मुझे। और बंटी एकदम
      वहीं पसरकर रोने लगा। 
      
      “रो क्यों रहा है ? यह भी कोई रोने की बात है भला ? ठहर जा, कॉलेज के माली को
      बुलवाती हूँ।"
      
      ममी माली को समझा रही हैं, “देखो, कह देना कि आठ बजे तुम लेने आओगे इसलिए
      जहाँ कहीं भी हों, आठ बजे तक सरकिट हाउस पहुँच जाएँ। तू भी कह। देना रे। आठ
      से देर नहीं करें, समझे !' कैसी सख्त-सख्त आवाज़ में बोल रही हैं, एकदम
      प्रिंसिपल की तरह।
      
      रास्ते में भी बंटी सोचता गया कि बहुत सारी बातें हैं जो वह पापा से पूछेगा।
      ममी से पूछी नहीं जातीं। कभी शुरू भी करता है तो या तो ममी उदास हो जाती हैं
      या सख्त। उदास ममी बंटी को दुखी करती हैं और सख्त ममी उसे डराती हैं। और इधर
      तो ममी को पता नहीं क्या कुछ होता जा रहा है। पास लेटी ममी भी उसे बहुत दूर
      लगती हैं। उसके और ममी के बीच में ज़रूर कोई रहता है। शायद वकील चाचा की कही
      हुई कोई बात, शायद कोई गड़बड़ी। उसे कोई कुछ नहीं बताता, वह अपने-आप समझे भी
      क्या ? ममी की बात तो पापा से भी नहीं पूछी जा सकती है।
      
      पर एक बात वह ज़रूर पूछेगा कि क्या तलाकवाली कुट्टी में कभी अब्बा नहीं हो
      सकती ? अगर पापा भी साथ रहने लगें तो कितना मज़ा आए ! पर ऐसी बात पूछने पर
      पापा ने डाँट दिया तो ? 
      
      पापा बाहर ही मिल गए। बंटी देखते ही दौड़ गया और पापा ने उठाकर छाती से लगा
      लिया, "बंटी बेटा !" और दोनों गालों पर ढेर सारे किस्सू दे दिए।
      
      "इतनी देर क्यों कर दी, हम तो कब से राह देख रहे हैं तुम्हारी।" 
      
      “हीरालाल बीमार पड़ गया, कोई लानेवाला ही नहीं था।"
      
      माली ने आठ बजेवाली बात कही तो पापा बड़ी लापरवाही से बोले, "हाँ-हाँ, ठीक
      है, आ जाना आठ बजे !" और बंटी को लेकर भीतर आ गए।
      
      कुछ किताबें, एक मैकेनो और टाफ़ी का एक डिब्बा बंटी के सामने फैले पड़े हैं।
      
      "पसंद हैं सब ?" 
      
      “मुझे कैरम-बोर्ड और व्यू-मास्टर चाहिए।" बड़े शरमाते हुए बंटी ने कहा। 
      
      “अरे, तो तुम हमको लिख भेजते। तुम तो हमें कभी चिट्ठी ही नहीं लिखते।
      
      अच्छा कोई बात नहीं, अगली बार दिलवाएँगे।" 
      
      बंटी का मन हुआ कि यहीं से दिलवाने को कह दें। पर कहा नहीं गया। ममी होतीं तो
      ज़िद करके ले लेता। 
      
      “तुम तो इस बार बहुत बड़े हो गए।" पापा उसे एकटक देख रहे हैं। वह झेंप गया।
      पापा हैं कि एक के बाद एक प्रश्न पूछे जा रहे हैं।
      
      “पढ़ाई कैसी चल रही है ? अच्छे नंबर लाते हो न ?''
      
      “कल हमारे यहाँ इन्स्पेक्शन था। मैंने खूब अच्छे जवाब दिए तो इन्स्पेक्टर
      साहब ने मुझे शाबाशी दी और सर ने भी।" 
      
      "शाबाश ! लो हमने भी शाबाशी दे दी !" और पापा ने उसकी पीठ थपथपा दी।
      
      “और खेल कौन-कौन से खेलते हो ?'' 
      
      “ताश, लूडो, कैरम..."
      
      “क्या कहा, ताश लूडो, कैरम-धत्तेरे की ! यह भी कोई खेल हुए, लड़कियों के।
      क्रिकेट खेलो, हॉकी खेलो, कबड्डी खेलो, लड़कोंवाले खेल खेलो। घर से बाहर
      निकलकर भागने-दौड़नेवाले..
      
      “अच्छा, पेड़ पर चढ़ सकते हो ?'' 
      
      "नहीं, ममी डाँटती हैं, कहती हैं, गिर जाएगा !" 
      
      "तैरना सीखा ? तैरने की कोई जगह है ?"
      
      "पता नहीं।" 
      
      “साइकिल चलाना आता है छोटी, दो पहिएवाली ?" 
      
      “ममी कहती हैं, जब दस साल का हो जाऊँगा तब दिलवाएँगी।" 
      
      "दोस्त कितने हैं ?" 
      
      "टीटू !" 
      
      "कौन है टीट् ?"
      
      “घर के पास रहता है। हमारे स्कूल में पढ़ता है, पर मुझसे एक क्लास आगे है। और
      कुन्नी है।"
      
      “कुन्नी कौन ?''
      
      "शर्मा साहब की लड़की है, मेरी दोस्त। उनका घर भी उधर ही है। हमारे घर के
      पीछे चलिए, फिर इधर को मुड़िए, फिर थोड़ा-सा चलिए, बस उनका घर आ जाता है।"
      
      इतनी अच्छी तरह समझाया फिर भी पापा हँस रहे हैं। “और कौन दोस्त है ?" "कोई
      नहीं।"
      
      "बस, कुल दो दोस्त !" 
      
      “नहीं, स्कूल में तो बहुत सारे हैं। पर उनके घर तो दूर-दूर हैं।"
      
      "तुम्हारा मन कैसे लगता है सारे दिन ? बच्चों को तो खूब दोस्तों के साथ रहना
      चाहिए, खूब खेलना चाहिए।"
      
      "लग जाता है। ममी खूब कहानियाँ सुनाती हैं, खूब ! ताश भी खेलती हैं। फिर मैं
      किताबें पढ़ता हूँ। ड्राइंग बनाता हूँ। खूब सारी पेंटिंग बना रखी हैं मैंने।
      अच्छी-अच्छी तो ममी ने कमरे में लगा दीं।"
      
      “अच्छा, इस बार हमारे लिए भी एक बनाना। हम भी अपने कमरे में लगाएँगे।"
      
      तो एक क्षण को बंटी पापा का चेहरा देखता रहा। कह दे कि पापा हमारे साथ क्यों
      नहीं रहते ? इस घर में तो मेरी पेंटिंग लगी ही हुई हैं। पापा इसी घर को अपना
      घर क्यों नहीं बना लेते ? अलग घर में क्यों रहते हैं ? इस घर में मेरा बगीचा
      भी तो है-खूब सुंदर-सा।
      
      "इस बार छुट्टियों में कलकत्ता चलोगे हमारे साथ ?"
      
      बंटी ने बड़ी सशंकित-सी नज़र से पापा की ओर देखा। उसे साथ चलने को क्यों कह
      रहे हैं, पहले तो कभी नहीं कहा ?
      
      "बहुत मज़ा आएगा, खूब घूमेंगे। बोलो ?"
      
      “ममी चलेंगी तो चलूँगा।" 
      
      “छी-छी, इतने बड़े होकर भी ममी के बिना नहीं रह सकते। यह गंदी बात है बेटे !
      अब तुम्हें ममी के बिना रहने की आदत डालनी चाहिए। तुम क्या लड़की हो जो ममी
      से चिपटे-चिपटे फिरते हो ?''
      
      बंटी बहुत संकुचित हो आया। भीतर ही भीतर कहीं गुस्सा भी आने लगा। फूफी ऐसा
      कहती तो मज़ा चखा देता। पापा से क्या कहे ? पर पापा ऐसी बात कहते ही क्यों
      हैं ? ख़ुद तो ममी के साथ नहीं रहते, चाहते हैं वह भी नहीं रहे। बहुत चालाक
      हैं। एकाएक उसके मन में सामने बैठे पापा के लिए गुस्सा उफनने लगा। बहुत मन
      हुआ पूछे, आप ममी को भी साथ लेकर क्यों नहीं चलते ? उसने एक उड़ती-सी नज़र
      डाली। पता नहीं पापा उसकी बात से कहीं नाराज़ हो जाएँ तो ? वह पापा को जानता
      ही कितना है ? ममी की तो हर बात का उसे पता है, पर पापा... 
      
      “बोलो, इस बार छुट्टियों में तुम्हें वहाँ बुलवाने का इंतज़ाम करें ?
      छुट्टियाँ ख़त्म हो जाएँगी तो वापस भिजवा देंगे। नई-नई चीजें
      देखोगे-विक्टोरिया मेमोरियल, बोटेनिकल गास, लेक्स, जू...।"
      
      और पापा एक-एक चीज़ के बारे में विस्तार से बताने लगे। बड़ा शहर, बड़े शहर की
      बड़ी-बड़ी इमारतें, बड़ी-बड़ी बातें। और थोड़ी देर पहले समाया हुआ बंटी के मन
      का संकोच और भय इन बातों के बीच घुलने लगा। एक-एक जगह के कई-कई चित्र उसकी
      आँखों के सामने बनने-बिगड़ने लगे।
      
      मन में एक साथ ही जाने कितना उत्साह और कौतूहल जाग उठा। 
      
      "वहाँ सब बँगला में बोलेंगे तो मैं क्या करूँगा ?"
      
      "वहाँ सब मछली-भात खाते हैं ? तब तो सारे शहर में भछली की बदबू है। आती रहती
      होगी !" 
      
      "तेरह-चौदह तल्ले का मकान कितना ऊँचा होगा ?" और वह नज़र ऊँची करके अंदाज़
      लगाने लगा।
      
      “हुगली में जहाज भी तो चलते हैं ? हम देख सकते हैं भीतर तक जाकर ?''
      
      "पी.सी. सरकार भी तो वहीं रहता है ? आपने जादू देखे हैं उनके ? कमाल ? सात
      बौनोंवाली कहानी के जादूगर जैसा है पी.सी. सरकार। अच्छा पापा, बंगाल की
      जादूगरनियाँ देखी हैं आपने, जो आदमी को भेड़ बनाकर रख लेती हैं ? जादू के
      ज़ोर से आदमी वेश बदल सकता है ?"
      
      और हर उत्तर के साथ उसके सामने कौतूहल-भरी एक नई दुनिया खुलती जा रही है। वह
      मुग्ध-सा सुन रहा है और कल्पना की आँखों से बहुत कुछ देख भी रहा है।
      
      पर 'बोलो आओगे छुट्टियों में ?' के साथ ही सारा जादू एक झटके के साथ टूट गया।
      नहीं बिना ममी के वह नहीं जाएगा, जा ही नहीं सकता।
      
      खाना खाकर पापा ने कहा, “चलो, थोड़ी देर सो लेते हैं। शाम को फिर घूमने
      चलेंगे। दोपहर में तो सोते हो न ?"
      
      उसने यों ही सिर हिला दिया। पापा ने उसे पलंग पर लिटा दिया और खुद नीचे लेट
      गए। ममी होती तो साथ ही सला लेतीं। लेटते ही पापा को नींद आ गई। बंटी क्या
      करे, उसे नींद ही नहीं आती। यहाँ से तो निकलकर भी नहीं जा सकता। थोड़ी देर तो
      वह चुपचाप लेटा-लेटा कलकत्ता ही देखता रहा, फिर एकाएक उसे घर की याद आने लगी।
      ममी की याद आने लगी। वह शाम को आता तभी ठीक था।
      
      लो, पापा की तो नाक भी बजने लगी-घुर्रऽऽऽऽ खू, घुर्रऽऽऽऽ खूँ।
      
      बंटी को हँसी आने लगी। वह एकटक पापा के चेहरे की ओर देखने लगा। बिना चश्मे के
      कैसा लग रहा है पापा का चेहरा ? उसे ख़याल आया उसने इतने गौर से तो पापा का
      चेहरा कभी देखा ही नहीं।
      
      ममी के चेहरे की तो एक-एक लाइन उसकी जानी-पहचानी है। पापा के हाथों में बाल
      कितने बड़े-बड़े हैं। और तभी आँखों के सामने ममी की चूड़ीवाली कलाई उभर आई।
      बंटी बहुत ऊबने लगा तो पापा की लाई हुई किताबों में से एक किताब शुरू कर दी।
      
      शाम को ताँगे में बिठाकर पापा ने उसे घुमाया। आइसक्रीम खिलाई, चाट खिलाई।
      गन्ने का रस पिलाया। बंटी सोच रहा था कि पापा शायद कुछ चीजें और दिलवाएँगे।
      लेकिन उन्होंने कुछ नहीं दिलवाया तो बंटी को थोड़ी-सी निराशा हुई। पर फिर भी
      उससे माँगा नहीं गया। खा-पीकर, घूम-फिरकर शाम को वे लोग वापस आ गए। ताँगे से
      उतरकर बंटी भीतर जाने लगा कि एकदम पापा की चिल्लाहट सुनाई दी। मुड़कर देखा।
      पापा ताँगेवाले को डाँट रहे थे। पता नहीं ताँगेवाले ने क्या कहा कि पापा और
      ज़ोर से चिल्लाए, “झूठ बोलते हो ? घड़ी देखकर ताँगा किया था। मैं एक पैसा भी
      ज़्यादा नहीं दूंगा।"
      
      बंटी सहमकर जहाँ का तहाँ खड़ा हो गया।
      
      ताँगेवाले ने कुछ कहा और कूदकर ताँगे से नीचे उतर आया। पापा एकदम चीख पड़े,
      “यू शट अप ! ज़बान सँभालकर बात करो। जितना रहम खाओ उतना ही सिर पर चढ़े जा
      रहे हैं, जूते की नोक पर ही ठीक रहते हैं ये लोग..." पापा का चेहरा एकदम
      सुर्ख हो रहा था और आँखों से जैसे आग बरस रही थी। बंटी की साँस जहाँ की तहाँ
      रुक गई। चपरासी और दरबान ने बीच-बचाव करके ताँगे को रवाना किया।
      
      पापा अभी भी जैसे हाँफ रहे थे और बंटी सहमा हुआ था। उसने पापा को कभी गुस्सा
      होते हुए तो देखा ही नहीं। एकाएक ख़याल आया, कभी इस तरह उस पर गुस्सा हों तो
      ? वह भीतर तक काँप गया। एकाएक उसे बड़ी ज़ोर से ममी की याद आने लगी। अब वह
      एकदम ममी के पास जाएगा। माली आया या नहीं ?
      
      तभी चपरासी ने कहा, “बाबा को लेने के लिए आदमी आया था। आधा घंटे तक बैठा भी
      रहा, अभी-अभी गया है, बस आपके आने के पाँच मिनट पहले ही।" 
      
      बंटी की आँखों में आँसू आ गए। किसी तरह उन्हें आँखों में ही पीता हुआ वह बड़ी
      असहाय-सी नज़रों से पापा की ओर देखने लगा। मन में समाया हुआ एक अनजान डर जैसे
      फैलता ही जा रहा था।
      
      पापा ने एक बार घड़ी की तरफ़ नज़र डाली, “चपरासी चला गया तो ? यह भी अच्छा
      तमाशा है, घड़ी देखकर घर में घुसो। जो समय उधर से दिया गया है उसी में
      घूमो-फिरो और लौट आओ। नॉनसेंस !"
      
      एकाएक ही बंटी की छलछलाई आँखें बह गईं। पता नहीं माली के लौट जाने की बात
      सुनकर या पापा का गुस्सा देखकर या कि इस भय से कि पापा कहीं रात में यहीं
      रहने को न कह दें। दो दिन से पापा को लेकर जो उत्साह मन में समाया हुआ था, वह
      एकदम बुझ गया और सामने खड़े पापा उसे निहायत अजनबी और अपरिचित-से लगने लगे।
      
      “अरे तुम रो क्यों रहे हो ? रोने की बात क्या हो गई ?" 
      
      "माली चला गया, अब मैं घर कैसे जाऊँगा ?" सिसकते हुए बंटी ने कहा। 
      
      “पागल कहीं का ! यहाँ क्या जंगल में बैठा है ? मैं नहीं हूँ तेरे पास ?" 
      "ममी के पास जाऊँगा।" रोते-रोते ही बंटी ने कहा। 
      
      "हाँ-हाँ, तो मैंने कब कहा कि ममी के पास नहीं जाओगे।" 
      
      “पर माली तो चला गया ?" 
      
      "चला गया तो क्या ? मैं तुम्हें छोड़कर आऊँगा, बस।"
      
      बंटी ने ऐसे देखा जैसे विश्वास नहीं कर रहा हो। कहीं उसे बहका तो नहीं रहे।
      अभी चुप करने के लिए कह दें और फिर कहने लगें कि सो जाओ।
      
      पापा ने पास आकर उसका माथा सहलाया, गाल सहलाए तो टूटा विश्वास जैसे फिर
      जुड़ने लगा। पापा फिर अपने लगने लगे।
      
      “पागल कहीं का ! इतना बड़ा होकर रोता है ममी के लिए।" तो अँसुवाई आँखों से ही
      बंटी हँस दिया। भीतर ही भीतर बड़ी शरम महसूस हुई अपने ऊपर। सचमुच उसे इतनी
      जल्दी रोना नहीं चाहिए। बच्चे रोया करते हैं बात-बात पर तो, वह तो अब बड़ा हो
      गया है। अब कभी नहीं रोएगा इस तरह। 
      
      बंटी पापा के साथ ताँगे में बैठा तो मन एकदम हलका होकर दूसरी ओर को दौड़ गया।
      पापा को देखकर ममी को कैसा लगेगा ? एकदम खुश हो जाएँगी। वह खींचकर पापा को
      अंदर ले जाएगा और ममी का हाथ, पापा का हाथ मिला देगा-चलो कुट्टी ख़तम। फिर
      ममी और वह मिलकर पापा को जाने ही नहीं देंगे। सोते, घूमते-फिरते कितनी बार मन
      हुआ था कि ममी की बात करे। पापा से वह सब पूछे, जो ममी से नहीं पूछ पाता है।
      पर पापा का चेहरा देखता और बात भीतर ही घुमड़कर रह जाती। पर पापा को साथ लाकर
      और दोस्ती की बात सोच-सोचकर उसका मन थिरकने लगा।
      
      जाने कैसे-कैसे चित्र आँखों के सामने उभरने लगे। पापा, ममी और वह घूमने जा
      रहे हैं। वह पापा के साथ मिलकर ममी को चिढ़ा रहा है या कभी ममी के साथ मिलकर
      पापा को। 
      
      अजीब-सा उत्साह है, जो मन में नहीं समा रहा है। कहानियों के न जाने कितने
      राजकुमार मन में तैर गए, जो अपनी-अपनी माँ के लिए समुद्र तैर गए थे या पहाड़
      लाँघ गए थे। वह भी किसी से कम नहीं है। माँ के लिए पापा को ले आया। अब दोस्ती
      भी करवा देगा। वरना कोई ला सकता था पापा को ? अब चिढ़ाए फूफी कि बंटी लड़की
      है। अब ममी कभी उदास नहीं होंगी। लेटे-लेटे छत या आसमान नहीं देखेंगी। टीटू
      की अम्मा यह नहीं पूछेगी, “आते हैं तुम्हारे पापा यहाँ ?"
      
      उसने बड़े थिरकते मन से पापा की ओर देखा। पापा एकदम चुप क्यों हैं ? अँधेरे
      में चेहरा ठीक से नहीं दिखाई दे रहा है। वह चाहता है, पापा कुछ बोलते चलें,
      कलकत्ता चलने की बात ही कहें या कि उसे लड़केवाले खेल खेलने की बात ही कहें,
      पर कुछ तो कहें। बोलते हुए पापा उसे अपने बहुत पास लगने लगते हैं। चुप हो
      जाते हैं तो लगता है जैसे पापा कहीं दूर चले गए। जैसे उसके और पापा के बीच
      में कोई और आ गया।
      
      उसी निकटता को महसूस करने के लिए उसने अनायास ही पापा का हाथ पकड़ लिया।
      
      पर पापा हैं कि बिलकुल चुप ! पापा की चुप्पी से बंटी के मन में अजीब तरह की
      बेचैनी घुलने लगी। कहीं दोस्ती की बात करते ही पापा चिल्लाने लगें आँखें
      लाल-लाल करके तो ? पापा का वही चेहरा उभर आया। ऐसे चिल्लाते होंगे तभी शायद
      ममी ने कुट्टी कर ली होगी। बंटी ने फिर एक बार पापा की ओर देखा। अँधेरे में
      पापा का चेहरा दिखाई नहीं दे रहा।
      
      "बस, बस यहीं घर है, बाईं तरफ़वाला।" कॉलेज के पास आते ही ताँगा थम गया था।
      बंटी ने कहा तो ताँगेवाले ने बाईं तरफ़ को लगा दिया।
      
      बंटी ने हाथ और कसकर पकड़ लिया। हाथ पकड़े-पकड़े ही वह ताँगे से नीचे उतरा और
      एक तरह से पापा को खींचता हुआ गेट की तरफ़ चला। उसे लग रहा था कि यदि उसकी
      पकड़ ज़रा भी ढीली हुई तो पापा छूटकर चल देंगे।
      
      सड़क पर से वह चिल्लाया, “ममी, पापा आए हैं।"
      
      लॉन में से एक छायाकृति तेज़-तेज़ क़दमों से फाटक की ओर आई। फाटक खुला और ममी
      सामने आ खड़ी हुईं। ममी को देखते ही बंटी का हौसला बढ़ गया। लगा, जैसे वह
      अपनी सुरक्षित सीमा में आ गया है। पापा के हाथ को पूरी तरह खींचता हुआ बोला,
      "भीतर चलिए न पापा ? मैं अपना बगीचा दिखाऊँगा। मोगरा खूब फूला है।"
      
      पर ममी और पापा जहाँ के तहाँ खड़े हुए हैं, चुप और जड़ बने हुए।
      
      “मैंने आदमी भेजा था। आपको शायद लौटने में देर हो गई। सो वह राह देखकर चला
      आया। आपको तकलीफ़ करनी पड़ी।"
      
      "कोई बात नहीं।" बंटी ने चौंककर पापा की ओर देखा। यह पापा बोले थे? 
      
      एकदम बदला हुआ स्वर। न प्यारवाला, न गुस्सेवाला। पता नहीं उस स्वर में ऐसा
      क्या था कि बंटी की पकड़ ढीली हो गई। फिर भी उसने कहा, “पापा, एक बार भीतर
      चलिए न ! ममी, तुम कहो न !" बंटी रुआँसा हो आया।
      
      "कुछ देर बैठ लीजिए। बच्चे का मन रह जाएगा।" ममी कैसे बोल रही हैं ? किसी को
      ऐसे कहा जाता होगा ठहरने के लिए ? 
      
      "रात हो गई है, फिर लौटने में बहुत देर हो जाएगी।"
      
      “इसी ताँगे को रोक लीजिए, अभी कहाँ देर हुई है, चलिए न !” हाथ पर झूलते हुए
      बंटी ने पापा को भीतर खींच ही लिया।
      
      पापा भीतर आए। लॉन में ही ममी-पापा आमने-सामने कुर्सी पर बैठ गए। बंटी
      पुलकित। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करे और कैसे करे।
      
      "कल दस बजे ही पहुँच जाना। दूसरा ही नंबर है, पंद्रह-बीस मिनट में नंबर आ ही
      जाएगा। अपने-आप आ सकोगी न ?”
      
      “हाँ, पहुँच जाऊँगी।"
      
      अँधेरे में दोनों के चेहरे नहीं दिखाई दे रहे, पर आवाजें कैसी बदली हुई हैं।
      पापा ने कहाँ आने को कहा है ? मन हुआ पूछे, पर हिम्मत नहीं हुई। ममी-पापा की
      कोई बात है, उसे बीच में नहीं बोलना चाहिए।
      
      तभी एकदम दौड़कर गया। रात में पौधे सोते हैं, उन्हें छूने से भी पाप लगता है
      और अगर फूल-पत्ता तोड़ो तब तो बहुत बड़ा, कालावाला पाप लगता है, यह बात अच्छी
      तरह जानते हए भी बंटी अपने को रोक नहीं सका। चार-पाँच पत्तियों के बीच में
      तीन बड़े-बड़े मोगरे सवेरे ही खिले थे, उन्हें ही लंबी डंडी के साथ तोड़
      लिया। 
      
      “कहाँ लगाऊँ, बुश्शर्ट में कहीं फूल लगेगा ?" उसकी समझ में नहीं आ रहा था,
      कैसे ख़ातिर करे वह पापा की ! 
      
      “लाओ, हाथ में दे दो।" पापा उठ खड़े हुए।
      
      "यह मेरा बोया हुआ मोगरा है, मैं ही इन्हें सींचता हूँ रोज़। दिन में आकर
      देखिए।"
      
      बंटी ने फिर हाथ पकड़ लिया। वह जैसे पापा को जाने नहीं देना चाहता है।
      
      ममी भी साथ-साथ चलीं। फाटक पर आकर पापा ने एक बार उसके गाल थपथपाए, पीठ पर
      हाथ फेरा और फिर धीरे-से हाथ छुड़ाकर ताँगे में जा बैठे। ताँगा चल दिया। 
      
      बंटी सन्न-सा रह गया। ममी का चेहरा नहीं दिख रहा, पर उसकी अपनी आँखों में
      आँसू आ गए और आँसुओं के साथ-साथ थोड़ी देर पहले ममी-पापा के साथ रहने के जो
      चित्र मन में बने थे, सब बह गए। वह और ममी-पहले की तरह, बिलकुल अकेले-अकेले।
      
      उसने बड़ी ही निरीह-बेबस नज़रों से ममी को देखा। ममी शायद उधर देख रही थीं,
      जिधर ताँगा गया था। फिर धीरे-से घूम गईं।
      
      "चल, भीतर चलकर कपड़े बदल।" मरी-मरी-सी आवाज़ में ममी ने कहा और उसकी पीठ पर
      हाथ रखकर उसे सहारा देती-सी भीतर ले चलीं। ममी का हाथ उसकी पीठ पर रखा था,
      फिर भी किसी स्पर्श का एहसास उसे नहीं हो रहा था, कम से कम ममी के स्पर्श का
      नहीं।
      
      तो क्या ममी उससे नाराज हैं ? सवेरे की अनमनी ममी उसकी आँखों के सामने एक बार
      फिर घूम गईं।
      
      उसने कुर्सी पर रखे डिब्बे और किताबें उठाईं और ममी के साथ-साथ भीतर आया।
      कमरे में पहुँचकर जैसे ही बत्ती जलाई, बंटी ने देखा ममी की आँखें लाल हैं। तो
      ममी रोई हैं, शायद बहुत ज़्यादा रोई हैं। जाने क्यों उसका अपना मन रोने-रोने
      को हो आया। एक अजीब-सी अपराध भावना मन में घुलने लगी। जैसे वह कोई बहुत ही
      गलत काम करके आ रहा हो। वह ममी को छोड़कर क्यों गया ? सचमुच अब ममी की तरफ़
      देखने की हिम्मत भी नहीं हो रही।
      
      ममी कुछ बोल भी तो नहीं रहीं। बस, चपचाप कपडे निकालकर दे दिए और ऐसे ही बाहर
      देखने लगीं। शायद नहीं चाहती कि बंटी उनकी ओर देखे। एक बार उसका मैकेनो तो
      देखतीं। कित्ता बड़ा है ! 
      
      “बदल लिए कपड़े ? बस्ता भी अभी से जमाकर रख ले, सवेरे फिर जल्दी नहीं उठा गया
      तो ?"
      
      "कल छुट्टी नहीं है, इन्स्पेक्शन की !''
      
      “ओह ! मैं भूल गई थी।" 
      
      ममी ने जल्दी से बत्ती बुझा दी और उसे लेकर बाहर आ गईं। बंटी और ममी के पलंग
      पास-पास बिछे हुए हैं। पर बंटी हमेशा पहले ममी के पलंग पर ही सोता है। ममी
      कहानी सुनाती हैं। फिर दोनों दुनिया भर की बातें करते हैं, उसके बाद बंटी
      अपने पलंग पर जाता है। कभी-कभी तो वह कहानी सुनते-सुनते ममी के पलंग पर ही सो
      जाता है, ममी बाद में उसे उसके पलंग पर लिटा देती हैं।
      
      पता नहीं क्यों उसे लग रहा है कि आज वह जैसे ही ममी के पलंग पर सोएगा ममी मना
      कर देंगी। कहेंगी, अपने ही पलंग पर सोओ, इतने बड़े हो गए, अभी तक ममी के साथ
      सोते हो, या ऐसे ही कुछ भी। एक क्षण वह दुविधा में खड़ा रहा, फिर धीरे से
      अपने ही पलंग पर लेट गया, इस आशा के साथ कि ममी उसे अपने पास बुलाएँगी। उससे
      कुछ तो बात करेंगी। आज सारे दिन उसने क्या-क्या किया, कहाँ घूमा, क्या खाया !
      
      पर ममी चुप !
      
      ममी शायद मुझसे नाराज़ हैं तो डाँट क्यों नहीं लेतीं ? मैं क्या मना करता हूँ
      ? पर कुछ तो बोलें।
      
      वह तो पापा और ममी की दोस्ती कराने की बात सोच रहा था, अब तो ममी ने भी उससे
      कुट्टी कर ली। उसकी आँखों में आँसू आ गए। पर ममी उससे नाराज़ क्यों हैं ? और
      उस 'क्यों' का बोझ लिए-लिए ही सारे दिन के थके-माँदे बंटी की आँखें झपकने
      लगीं-और वह सो गया। गाल पर बह आए आँसू भी धीरे-धीरे सूख गए। 
      			
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