विविध उपन्यास >> मैं मैंविमल मित्र
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विमल मित्र का यह प्रयोगधर्मी उपन्यास, मैं हमारे समय के राजनीतिक एवं सामाजिक यथार्थ को परत-दर-परत सामने लाता है
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
विमल मित्र का यह प्रयोगधर्मी उपन्यास, मैं हमारे समय के राजनीतिक एवं सामाजिक यथार्थ को परत-दर-परत सामने लाता है। स्वतंत्रता-पूर्व और पश्चात की स्थितियों के जो चित्र इस कृति में मौजूद हैं वे अपने आप में ऐतिहासिक तथ्य हैं। इनमें एक तरफ दिगम्बर व नुटु का जीवन-संघर्ष है तो दूसरी ओर ज्योर्तिमय सेन का अन्तर्द्वन्द्व भी है जो सही व गलत के बीच अक्सर अनिर्णय का शिकार होकर यथास्थितिवादी बना रहता है।
दो पुरुष और एक इतर प्राणी को केन्द्र मानकर चलती इसकी कथा अपने परिवेश से असंपृक्त नहीं रहती। इसमें एक ओर मानवीय प्रेम, अस्मिता तथा स्वतंत्रता का संघर्ष है तो दूसरी ओर व्यवस्था का निरंकुश अमानवीय चरित्र उद्घाटित होता है। कुल मिलाकर तीन प्राणियों को केन्द्र मानकर चलने के बावजूद यह कृति आत्मकथात्मक न होकर बीसवीं शताब्दी के भारत की महागाथा है। विविध आयामी यथार्थ चरित्रों के माध्यम से विमल मित्र एक ऐसा संसार रचते हैं, जिससे प्रेम और वितृष्णा एक साथ उत्पन्न होते हैं।
दो पुरुष और एक इतर प्राणी को केन्द्र मानकर चलती इसकी कथा अपने परिवेश से असंपृक्त नहीं रहती। इसमें एक ओर मानवीय प्रेम, अस्मिता तथा स्वतंत्रता का संघर्ष है तो दूसरी ओर व्यवस्था का निरंकुश अमानवीय चरित्र उद्घाटित होता है। कुल मिलाकर तीन प्राणियों को केन्द्र मानकर चलने के बावजूद यह कृति आत्मकथात्मक न होकर बीसवीं शताब्दी के भारत की महागाथा है। विविध आयामी यथार्थ चरित्रों के माध्यम से विमल मित्र एक ऐसा संसार रचते हैं, जिससे प्रेम और वितृष्णा एक साथ उत्पन्न होते हैं।
प्राक्कथन
शिवनाथ शास्त्री के किसी लेख में एक बार पढ़ा था कि खेलने की जानकारी रहे तो कानी कौड़ी लेकर भी खेला जा सकता है। यानी कौड़ी के खेल में कौड़ी उपलक्ष्य है और असली चीज है खेल। परन्तु साहित्य न तो कानी कौड़ी है और न खेलने की वस्तु ही। फिर भी यह बात मुझे इसलिए याद आयी कि बहुत दिन पहले-सम्भवत: सन् 1958-59 में दो मित्रों से उपन्यास-साहित्य पर चर्चा चल रही थी। जहाँ तक स्मरण है, मैंने उस दिन कहा था कि उपन्यास एक ऐसी विधा है जिसे व्याकरण की बेड़ी से जकड़ा नहीं जा सकता है। उसके विस्तार एवं विकास की बँधी-बँधायी परिपाटी से सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता। वह अपने-आपमें एक स्वाधीन और स्वतन्त्र सत्ता है। उपन्यास के संबंध में यद्यपि ऐसा मत किसी शास्त्र में लिपिबद्ध नहीं है, फिर भी उसके जन्म और विकास के इतिहास के पर्यवेक्षण के पश्चात् मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ। एक या दो नायक तथा एक या दो नायिकाएँ और फिर उनके मिलन और विरह में उलट-फेर को मद्देनजर रखकर करोड़ों उपन्यास लिखे गये हैं। कभी नायक के स्थान पर देश या इतिहास और कभी अतीत या वर्तमान को व्याख्यायित किया गया है। कभी-कभी उपन्यासकारों ने कला के साथ-साथ समाजशास्त्र के उद्देश्यों की पूर्ति करने की कोशिश की है।
मेरे मित्रों का कहना था कि उपन्यास-साहित्य की आयु ढल चुकी है और अब उसकी कार्य-क्षमता क्षीण हो गयी है। अत: अब उसे अवकाश ग्रहण कर लेना चाहिए। उनका मत था कि उन्हें सारे के सारे उपन्यास चर्चित-चवर्ण प्रतीत होते हैं।
मैंने उस दिन कहा था कि खेलने की जानकारी रहे तो कानी कौड़ी लेकर भी खेला जा सकता है।
अपनी युक्ति की सार्थकता प्रमाणित करने के उद्देश्य से मैंने दो पुरुष और एक मानवेतर प्राणी पर केन्द्रित एक साधारण-सी कहानी का दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए कहा था कि इस कानी कौड़ी को लेकर भी मैं उपन्यास लिखने की चेष्टा कर सकता हूँ।
मेरे मित्र मेरे विचारों से सहमत नहीं हुए थे और कहा था कि इस घटना को लेकर उपन्यास लिखा नहीं जा सकता।
लेकिन वह साधारण-सी कहानी चौदह वर्षों तक मेरे भाव-जगत् को आन्दोलित करती रहेगी, इसकी मैंने कल्पना तक नहीं की थी। तब मेरी स्थिति यह थी कि सोते-जागते मैं इससे पिंड छुड़ा नहीं पा रहा था। अन्तत: 1963 ईस्वी में एक पत्रिका के छह-सात अंकों में इस ‘मैं’ उपन्यास का प्रकाशन-क्रम चला और फिर एक दिन अचानक रुक गया।
1965 ईस्वी में एक दूसरी पत्रिका में प्रकाशित होता रहा लेकिन वहाँ भी अधिक दिनों तक चलाना संभव न हुआ। अन्त में सन् 1968 से 1971 के सितम्बर मास तक तीसरी पत्रिका में ढाई वर्षों तक धारावाहिक प्रकाशन चलता रहा, पर फिर सहसा उसकी गति रुक गयी। बाकी बचे अंश को मैंने 1972 ईस्वी के अगस्त महीने में समाप्त किया। इस अवधि में मेरे जीवन में इतनी विपत्तियाँ, इतने दुर्दिन और इतनी दुर्घटनाएँ आयीं, जिनका कोई अन्त नहीं। अनेकानेक स्थितियों में मेरे जैसा कर्म-विमुख व्यक्ति भी इस दुरूह संकल्प से क्यों नहीं विचलित हुआ, यह मेरे लिए भी घोर विस्मय की बात है। इस कृति का श्रेय किसे है, मुझे मालूम नहीं। एक बात और। जिन व्यक्तियों से चर्चा-परिचर्चा के फलस्वरूप ‘मैं’ का जन्म हुआ वे आज इस दुनिया में मौजूद नहीं हैं। रहते तो उनसे एक ही बात पूछता और वह यह कि कानी कौड़ी लेकर मैं खेलने में सफल हो सका हूँ या नहीं !
मेरे मित्रों का कहना था कि उपन्यास-साहित्य की आयु ढल चुकी है और अब उसकी कार्य-क्षमता क्षीण हो गयी है। अत: अब उसे अवकाश ग्रहण कर लेना चाहिए। उनका मत था कि उन्हें सारे के सारे उपन्यास चर्चित-चवर्ण प्रतीत होते हैं।
मैंने उस दिन कहा था कि खेलने की जानकारी रहे तो कानी कौड़ी लेकर भी खेला जा सकता है।
अपनी युक्ति की सार्थकता प्रमाणित करने के उद्देश्य से मैंने दो पुरुष और एक मानवेतर प्राणी पर केन्द्रित एक साधारण-सी कहानी का दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए कहा था कि इस कानी कौड़ी को लेकर भी मैं उपन्यास लिखने की चेष्टा कर सकता हूँ।
मेरे मित्र मेरे विचारों से सहमत नहीं हुए थे और कहा था कि इस घटना को लेकर उपन्यास लिखा नहीं जा सकता।
लेकिन वह साधारण-सी कहानी चौदह वर्षों तक मेरे भाव-जगत् को आन्दोलित करती रहेगी, इसकी मैंने कल्पना तक नहीं की थी। तब मेरी स्थिति यह थी कि सोते-जागते मैं इससे पिंड छुड़ा नहीं पा रहा था। अन्तत: 1963 ईस्वी में एक पत्रिका के छह-सात अंकों में इस ‘मैं’ उपन्यास का प्रकाशन-क्रम चला और फिर एक दिन अचानक रुक गया।
1965 ईस्वी में एक दूसरी पत्रिका में प्रकाशित होता रहा लेकिन वहाँ भी अधिक दिनों तक चलाना संभव न हुआ। अन्त में सन् 1968 से 1971 के सितम्बर मास तक तीसरी पत्रिका में ढाई वर्षों तक धारावाहिक प्रकाशन चलता रहा, पर फिर सहसा उसकी गति रुक गयी। बाकी बचे अंश को मैंने 1972 ईस्वी के अगस्त महीने में समाप्त किया। इस अवधि में मेरे जीवन में इतनी विपत्तियाँ, इतने दुर्दिन और इतनी दुर्घटनाएँ आयीं, जिनका कोई अन्त नहीं। अनेकानेक स्थितियों में मेरे जैसा कर्म-विमुख व्यक्ति भी इस दुरूह संकल्प से क्यों नहीं विचलित हुआ, यह मेरे लिए भी घोर विस्मय की बात है। इस कृति का श्रेय किसे है, मुझे मालूम नहीं। एक बात और। जिन व्यक्तियों से चर्चा-परिचर्चा के फलस्वरूप ‘मैं’ का जन्म हुआ वे आज इस दुनिया में मौजूद नहीं हैं। रहते तो उनसे एक ही बात पूछता और वह यह कि कानी कौड़ी लेकर मैं खेलने में सफल हो सका हूँ या नहीं !
विमल मित्र
अनुवादक की ओर से
महान् कलाकार देश और काल की सीमा लाँघकर सार्वदेशिक और सार्वकालिक होते हैं। बँगला के श्रेष्ठ उपन्यासकार विमल मित्र के संबंध में यह उक्ति अक्षरश: सत्य प्रतीत होती है। वह बँगला के अतिरिक्त हिन्दी और तमिल के पाठकों के बीच समान रूप में लोकप्रिय हैं। उनकी लोकप्रियता उस कोटि की नहीं है जो साधारण स्तर के पाठकों को छूकर रह जाती है, बल्कि उस कोटि की है जो सामान्य और विशिष्ट दोनों वर्गों को अभिभूत कर लेती है। विमल मित्र की प्रतिभा बुद्धिजीवियों के हृदय को भिझोड़कर उन्हें विस्मय की स्थिति में लाकर छोड़ देती है।
‘मैं’ विमल मित्र के सर्वश्रष्ठ उपन्यास ‘आमि’ का हिन्दी रूपान्तर है। यों विमल मित्र एक प्रयोगधर्मा उपन्यासकार हैं और उनके अन्वेषण की प्रक्रिया अब तक जारी है, लेकिन उनका यह ‘मैं’ उपन्यास समकालीन औपन्यासिक परम्परा से बिलकुल भिन्न है-यह भिन्नता न केवल इसके कथ्य, शिल्प, संरचना और बुनावट तक ही सीमित है वरन् इसका कथानक भी परम्परित उपन्यासों से भिन्न है। उपन्यास की कथा केवल दो पुरुष और एक इतर प्राणी को केन्द्र मानकर चलती है, फिर भी इतने तंग दायरे में ही उन्होंने आज के मानव की विशेषकर भारतीय जनता की तमाम समस्याओं और जटिलताओं को विश्व-इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देखा है और उनकी गहराई तक जाकर रेशे-रेशे को उधेड़कर छान-बीन की है तथा सत्य को उद्घाटित करने का प्रयत्न किया है।
आधुनिक जीवन में तमाम प्रश्नों-जैसे मनुष्यों के अस्तित्व, अस्मिता, स्वतन्त्रता, मूल्य इत्यादि से उन्होंने साक्षात्कार किया है और उनकी विसंगतियों और विघटन को तटस्थता के साथ उकेरा है। ‘मैं’ में विमल मित्र के वैचारिक व्यक्तित्व के अनेक रूप हैं : उनका इतिहासवेत्ता, समाजशास्त्री, मानविकीवेत्ता- रचना के स्तर पर उपन्यासकार विमल मित्र में समाहित हो जाते हैं।
वास्तव में ‘मैं’ बीसवीं शताब्दी के भारत की महागाथा है-एक कालजयी कृति। ‘मैं’ के दिगम्बर और नुटु भारतीय गाँवों के सर्वहारा वर्ग के प्रतीक हैं जिन्हें व्यवस्था पग-पग पर तोड़ती है और एक दयनीय स्थिति में लाकर छोड़ देती है। यों विमल मित्र को जीवित रखने के लिए ‘साहब बीबी गुलाम’, ‘एकाई-दहाई-सैकड़ा’, ‘खरीदी कौड़ियों के मोल’ जैसी कृतियाँ पर्याप्त हैं, फिर भी ‘मैं’ के अतिरिक्त उनकी समस्त कृतियों को नष्ट भी कर दिया जाये तो वह साहित्य-जगत में अमर रहेंगे। एक सफल गोताखोर की तरह समय के अतल में प्रवेश कर उन्होंने बोध के मोती चुने हैं। ‘मैं’ एक समग्र काल-बोध है। और यह समग्र काल-बोध एक रचना ही नहीं है, बल्कि समस्त रचनाओं के लिए एक चुनौती भी है।
‘मैं’ विमल मित्र के सर्वश्रष्ठ उपन्यास ‘आमि’ का हिन्दी रूपान्तर है। यों विमल मित्र एक प्रयोगधर्मा उपन्यासकार हैं और उनके अन्वेषण की प्रक्रिया अब तक जारी है, लेकिन उनका यह ‘मैं’ उपन्यास समकालीन औपन्यासिक परम्परा से बिलकुल भिन्न है-यह भिन्नता न केवल इसके कथ्य, शिल्प, संरचना और बुनावट तक ही सीमित है वरन् इसका कथानक भी परम्परित उपन्यासों से भिन्न है। उपन्यास की कथा केवल दो पुरुष और एक इतर प्राणी को केन्द्र मानकर चलती है, फिर भी इतने तंग दायरे में ही उन्होंने आज के मानव की विशेषकर भारतीय जनता की तमाम समस्याओं और जटिलताओं को विश्व-इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देखा है और उनकी गहराई तक जाकर रेशे-रेशे को उधेड़कर छान-बीन की है तथा सत्य को उद्घाटित करने का प्रयत्न किया है।
आधुनिक जीवन में तमाम प्रश्नों-जैसे मनुष्यों के अस्तित्व, अस्मिता, स्वतन्त्रता, मूल्य इत्यादि से उन्होंने साक्षात्कार किया है और उनकी विसंगतियों और विघटन को तटस्थता के साथ उकेरा है। ‘मैं’ में विमल मित्र के वैचारिक व्यक्तित्व के अनेक रूप हैं : उनका इतिहासवेत्ता, समाजशास्त्री, मानविकीवेत्ता- रचना के स्तर पर उपन्यासकार विमल मित्र में समाहित हो जाते हैं।
वास्तव में ‘मैं’ बीसवीं शताब्दी के भारत की महागाथा है-एक कालजयी कृति। ‘मैं’ के दिगम्बर और नुटु भारतीय गाँवों के सर्वहारा वर्ग के प्रतीक हैं जिन्हें व्यवस्था पग-पग पर तोड़ती है और एक दयनीय स्थिति में लाकर छोड़ देती है। यों विमल मित्र को जीवित रखने के लिए ‘साहब बीबी गुलाम’, ‘एकाई-दहाई-सैकड़ा’, ‘खरीदी कौड़ियों के मोल’ जैसी कृतियाँ पर्याप्त हैं, फिर भी ‘मैं’ के अतिरिक्त उनकी समस्त कृतियों को नष्ट भी कर दिया जाये तो वह साहित्य-जगत में अमर रहेंगे। एक सफल गोताखोर की तरह समय के अतल में प्रवेश कर उन्होंने बोध के मोती चुने हैं। ‘मैं’ एक समग्र काल-बोध है। और यह समग्र काल-बोध एक रचना ही नहीं है, बल्कि समस्त रचनाओं के लिए एक चुनौती भी है।
योगेन्द्र चौधरी
एक
सुख के बारे में बहुतों ने बहुत कुछ सोचा है, बहुत माथापच्ची की है। सुख के पीछे-पीछे बहुत लोग भागते चले हैं। सुख की उम्मीद में गृहस्थी से नाता तोड़कर वन चले गये हैं, इसका दृष्टान्त इतिहास में मिलता है। लेकिन दुख ? दुखी मनुष्य की बात कुछ और ही है। दुनिया में एक से दूसरे की कोई समानता नहीं होती है। दुनिया में सुख की मात्रा न कम होती है, न अधिक; इसलिए सुखी आदमी पर नज़र पड़ते ही वह पहचान में आ जाता है। लेकिन दु:ख उसके बनिस्बत कहीं गहरा, कहीं व्यापक होता है। दुख मनुष्य को स्वतन्त्र बनाता है, व्यक्तित्व प्रदान करता है। सुख का अन्त खोजने पर मिल भी सकता है लेकिन दु:ख का अनन्त होता है। सुख की कामना करने पर वह प्राप्त भी होता है लेकिन दु:ख दुर्लभ होता है। सुख चाहने पर सुख न मिले, फिर भी लोग मन-प्राणों से सुख की ही कामना करते हैं। और, दुख बिन माँगे मिलता है, इसीलिए उसको अनादर की दृष्टि से देखा जा सकता है। लेकिन उसी अनादर की वस्तु को पूँजी के रूप में लगाकर कितने ही लोगों को पर्याप्त लाभांश मिला है और महाजन बन गये हैं। इतिहास में इसकी बेहिसाब मिसालें हैं।
आज मुझे गाली-गलौज करने वाले लोगों की कमी नहीं है। प्रशंसा करने वालों की तदाद भी बढ़ गयी है। रात-दिन केवल आदमी से ही घिरा रहता हूँ। खाने के वक्त भी कोई एकान्त में चुपचाप खाने नहीं देता है। सामने आकर बैठ जाता है और कहता है, ‘‘यह आपका खान-पान कैसा है ? इस तरह आपका स्वास्थ्य कैसे अच्छा रहेगा ज्योतिदा ?’’
कोई कहता है, ‘‘ज्योतिदा....’’
और कोई कहता है, ‘‘ज्योतिर्मय बाबू....’’
आज मुझे गाली-गलौज करने वाले लोगों की कमी नहीं है। प्रशंसा करने वालों की तदाद भी बढ़ गयी है। रात-दिन केवल आदमी से ही घिरा रहता हूँ। खाने के वक्त भी कोई एकान्त में चुपचाप खाने नहीं देता है। सामने आकर बैठ जाता है और कहता है, ‘‘यह आपका खान-पान कैसा है ? इस तरह आपका स्वास्थ्य कैसे अच्छा रहेगा ज्योतिदा ?’’
कोई कहता है, ‘‘ज्योतिदा....’’
और कोई कहता है, ‘‘ज्योतिर्मय बाबू....’’
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