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उपन्यास >> कोई बात नहीं

कोई बात नहीं

अलका सरावगी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3206
आईएसबीएन :9788126728763

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मोटे तौर पर इसे शरीरिक रुप से कुछ अक्षम एक बेटे और उसकी माँ के प्रेम और दुःख की साझेदारी की कथा के रुप में देखा जा सकता है, पर इसका मर्म एक सुन्दर और सम्मानपूर्ण जीवन की आकांक्षा है, बल्कि इस हक की माँग है।

Koi Bat Nahin

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘तभी हवा का एक झोंका न जाने क्या सोचकर एक बड़े से कागज के टुकड़े को शशांक के पास ले आया। उसने घास से उठाकर उसे पढ़ा-‘आदमी का मन एक गाँव है, जिसमें वही एक अकेला नहीं रहता।’ यह भी भला कोई बात है, शशांक ने सोचा, आदमी मन में ही तो अपने को और अपनी सारी बातों को छिपाकर रख सकता है...’’

‘कोई बात नहीं जैसा एक मंत्र है-हार न मानने की जिद और नई शुरुआतों के नाम। समय के एक ऐसे दौर में जब प्रतियोगिता जीवन का परम मूल्य है और सारे निर्णय ताकतवर और समार्थ के हाथों में है, वेदना, जिजीविषा और सहयोग का यह आख्यान ऐसे तमाम मूल्यों का प्रत्याख्यान है।

मोटे तौर पर इसे शरीरिक रुप से कुछ अक्षम एक बेटे और उसकी माँ के प्रेम और दुःख की साझेदारी की कथा के रुप में देखा जा सकता है, पर इसका मर्म एक सुन्दर और सम्मानपूर्ण जीवन की आकांक्षा है, बल्कि इस हक की माँग है।
शशांक सतरह साल का एक लड़का है जो दूसरों से अलग है क्योंकि वह दूसरों की तरह चल और बोल नहीं सकता। कलकत्ता के एक नामी मिशनरी स्कूल में पढ़ते वक्त अपनी गैरबराबरी के जीते हुए, उसका साबिका उन तरह-तरह की दूसरी गैरबराबरियों से भी होता रहता है जो हमारे समाज में आस-पास कुलबुलाती रहती हैं। स्कूल में शशांक का एक मात्र दोस्त है एंग्लो-इंडियन लड़का आर्थर सरकार, जो उसी की तरह एक किस्म का जाति-बाहर या आउटकस्ट है- अलहत्ता बिलकुल अलग कारणों से।

शशांक का जीवन चारों तरफ से तरह-तरह के कथा-किस्सों से घिरा है। एक तरह उसकी आरती मौसी है, जिसकी प्रायः खेदपूर्वक वापस लौट आनेवाली कहानियों का अन्त और आरम्भ शशांक को कभी भी समझ में नहीं आता। दूसरी तरफ उसकी दादी की कहानियाँ हैं-दादी के अपने घुटने-भरे बीते जीवन की, बार-बार उन्हीं शब्दों और मुहावरों मे दोहराई जाती कहानियाँ, जिनका कोई शब्द कभी अपनी जगह नहीं बदलता। लेकिन सबसे विचित्र कहानियाँ उस तक पहुँचती हैं जतीन दा के मार्फत, जिससे वह किना किसी और के जाने, हर शनिवार ‘विक्टोरिया मेमोरिय’ के मौदान में मिलती है। ये सभी कहानियाँ आतंक और हिंसा के जीवन से जुड़ी कहानियाँ हैं जिनके बारे में हर बार शशांक को सन्देह होता है कि वे आत्मकथात्मक हैं, पर इस सन्देह का निराकरण का उसके पास कोई रास्ता नहीं हैं।

तभी शशांक के जीवन में भयानक घटना घटित होती है जिससे उसके जीवन के परखच्चे उड़ जाते हैं। ऐसे समय में यह कथा-अमृत ही है जो उसे इस आघात से उबारता है; साथ ही उसे सजीवन मिलता है उस सरल निश्छल, अद्भुत प्रेम और सहयोग से जो सब कुछ के बावजूद दुनिया को बचाए रखता आ रहा है।

और तब उसकी यह अपनी कथा, जो आरती मौसी द्वारा लिखी जा रही था, पुनः जीवित हो उठती है-कथामृत के आस्वादन से जागी कथा।

 

अकथ कहानी : पुनर्वाचन

 

 

यह कथा एक तरह से कही जा रही थी कि तभी वह भीषण विस्फोट हुआ, जिसने इस कथा के परखच्चे उड़ा दिए। अब इस कथा-जो झुटपुटे अँधेरे के ताने में उम्मीद और रोशनी का बाना लगाकर बुनी जा रही थी-के हजारों-हजार टुकड़े हो गए और वे सारे टुकड़े इस कदर छितर-बितर गए कि उन्हें पहचानना तक मुश्किल हो गया। उन टुकड़ों को फिर से जोड़कर वह कथा वापस नहीं बनाई जा सकती थी। इसलिए उस कथा को-यदि अनादि काल से अब तक लिखी गई हजारों-लाखों कथाओं के बावजूद कहना-जरूरी हो, तो उसे फिर से एकदम नए सिरे से ही कहा जा सकता था।

 

काहे री नलिनी तू कुम्हलानी।
तेरे ही नाल सरोवर पानी....

 

(ए नलिनी, तू कुम्हला कैसे गई ? तेरी नाल तो अब भी सरोवर के पानी में ही है...)

‘‘देख, इस पानी को देख। गंगा का बहता पानी। कितना पानी, न जाने कब से बहता आया। इसका कोई आदि है ? कोई अंत है ? और देख, यह हावड़ा पुल। इस किनारे से उस किनारे। इधर कलकत्ता, उधर हावड़ा। देखती है न ? देखती-देखती तो बूढ़ी हो गई। बच्ची से बूढ़ी। पर क्या देखा ? क्या समझा ? क्या पाया ? पूछती है कि ऐसा क्यों हुआ ? ‘क्यों’ का परदा मत उठा बावली। उठेगा तो यों भी नहीं, पर कोशिश भी मत कर। नहीं तो राह भटक जाएगी’’-सुच्चा बाबा चुप हो गया था जैसे सारी बात खत्म हो गई हो और पीछे मुड़कर गंगा-घाट पर उड़ते उन कबूतरों को देखने लगा था, जो एकदम हल्की-सी आवाज से भी ऐसे डरकर इकट्ठे उड़ जाते थे जैसे उनके बिलकुल बीच कोई विस्फोट हो गया हो।

शशांक ने दादी के बुढ़ाते चेहरे को देखा। साथ ही उसके पीछे छिपे बचपन के उस चेहरे को भी, जिसे सुच्चा बाबा ने घर के आँगन में चचेरी बहन के साथ इक्कड़-दुक्कड़ खेलते देखा होगा। सुच्चा बाबा उर्फ सत्यप्रकाश उर्फ सत्तू भैया, जो बढ़ते शरीर के साथ बुद्धि में नहीं बढ़ता था। दाढ़ी मूँछ आने लगी, तो भी लड़कियों के साथ इक्कड़-दुक्कड़ खेलने के लिए रोने लगता। मुँह से लार गिरती रहती और पाजामे का नाड़ा हमेशा ऐसा ढीला रहता कि जब-तब पाजामे को ऊपर खींचकर पेट पर टिकाता रहता।

तो क्या दादी की मार्फत बचपन से जाने हुए, पर पहली बार मिले इस सुच्चा बाबा की बुद्धि बाद के दिनों ‘में जेट स्पीड’ से बढ़ गई थी ? शशांक ने अपनी निरी अन-आस्तिकता के लिए दादी से आँखें चुराते हुए सोचा-‘कम-से-कम आज तो बातें ठीक ही कर रहा है। या हो सकता है कि कोई सुनी-सुनाई बात दोहरा रहा हो।

शशांक ने देखा कि दादी के चेहरे पर, हर साल गंगासागर मेले के लिए इसी लोहाघाट या बगल के आरमेनियन घाट पर गंगा किनारे आनेवाले अपने अधपगले भाई के लिए श्रद्धा की दमक आ गई थी। पर उसके नीचे असंतोष की झाँई शशांक से नहीं छिपी। तभी दादी मुड़कर कबूतरों को देखने लगी और शशांक ने जान लिया कि सुच्चा बाबा की बातों से बुझते हुए अपने मन को वह कोई सांत्वना की घुट्टी पिलाने की कोशिश कर रही है। हर घटना या दुर्घटना के पीछे छिपे ‘क्यों’ का जवाब जानने के लिए दुनिया इधर-से-उधर हो जाती है और यह बाबा है कि कहता है-क्यों का परदा मत उठा। लेकिन सच तो यह है कि शशांक भी नहीं जानना चाहता इसे, जबकि इसका संबंध खुद उसी के जीने-मरने से है।

 

जल में उतपति, जल में बासा
जल में नलिनी, तोर निबासा...

 

सुच्चा बाबा फिर कबीर गाने लगा था। बिना खंभों के हावड़ा पुल के नीचे बहती गंगा, बार-बार उड़ते कबूतरों और बाबा के गहरे कुएँ से निकलते-से स्वर ने शशांक और दादी, दोनों को एक तरह के हल्केपन से घेरना शुरू ही किया था कि सुच्चा बाबा कबीर भुलाकर फिर बोल पड़ा-‘‘अब पहले वाली कथा कह। वही, जो पिछले और उसके पिछले साल कह रही थी। वह कथा क्या झूठ हो गई ? देख, साँझ घिर रही है, तो क्या दिन झूठ हो गया ? वो तो लौटता है ना फिर। फिर-फिर।’’
शशांक ने सुच्चा बाबा की बातें सुन कनखियों से गंगाघाट की सीढ़ी पर बगल में सटकर बैठी आरती मौसी की ओर देखा, जिसकी बड़ी-बड़ी आँखों में चली आई पानी की परत को तोड़कर किसी कथा को सुनने की ललक हमेशा की तरह कौंधने लगी थी। शशांक को इससे कोई शिकायत नहीं हुई। वह जानता है कि मौसी को अपनी कथा बुनने के लिए दूसरों से उनके जीवन की कथा सुननी होती है। उसने मौसी की लिखी कहानियाँ-किस्से पढ़े हैं, हालाँकि वह ठीक-ठीक कभी समझ नहीं पाता कि मौसी उन कहानियों में कहना क्या चाहती है। मौसी की कहानियाँ चलते-चलते अचानक जब मन में आए खत्म हो जाती हैं और शशांक हर बार यही सोचता हुआ पढ़ना बंद कर देता है कि ऐसा ठीक यहीं क्यों हुआ। शायद यही कारण है कि मौसी की कहानियाँ कहीं छपती नहीं, प्राय: वापस लौट आती हैं। उसे मालूम है कि मौसी उसके स्कूल, मिंटो पार्क, विक्टोरिया मैदान, घर, जतीन दा, आर्थर-सबके बारे में क्यों पूछती रही है और यह भी उससे छिपा नहीं है कि मौसी ने उसकी बातों को कहीं-न-कहीं लिखकर रखा है पर अब जब सबकुछ छिन्न-भिन्न हो चुका है, वह उस कथा का आगे क्या करेगी, सोचकर शशांक को चिन्ता हुई, उस मौसी के लिए जो आज भी सदा की तरह गंगा-घाट की सीढ़ियों पर उसे सहारा देकर उतारने के लिए उसका हाथ पकड़े यहाँ चली आई है क्योंकि माँ किसी हालत में सुच्चा बाबा से उसे मिलाने दादी के साथ यहाँ नहीं आती।

 

1
पूर्वकथा : अथातो ‘मन’ जिज्ञासा

 

(यह मन को जानने की जिज्ञासा है)

 

विक्टोरिया मेमोरियल के गार्ड की सीटी हर पल गहरी होती साँझ को चीरती हुई सुनाई दी। ‘जतीन दा, अब चलें यहाँ से ?’’-शशांक ने पूछा। कहते ही उसे लगा कि कभी किसी ने किसी को ठीक इसी तरह अँधेरा होते समय ठीक यही कहा था-कहीं चल देने के लिए। लेकिन किसने कहा था किसको ? और कहाँ चलने के लिए ? शशांक ने घिरते अँधेरे के कारण तालाब के काले-से दिखने लगे पानी में देखते हुए सोचने के लिए दिमाग पर जोर लगाया। किसने किसको कहा था-‘अब चलें यहाँ से ?’ क्या इधर किसी कहानी में पढ़ा था ऐसा कुछ ?

तालाब के अँधेरे से बाहर कुछ उछला। शायद मछली थी। तभी शशांक को याद आ गया। दादी ने ही तो कहा था दादाजी को–अट्ठाईस साल पुराने रिश्तोंवाले घर को छोड़ते हुए। यह उसके पैदा होने के पहले की बात है। इस साँझ दादी ने अचानक दादाजी से कहा था-‘अब चलें यहाँ से’-और बस वे चले आए थे। यह कहानी सुनाते हुए दादी ने ठीक ये ही शब्द कहे थे और हमेशा की तरह अपनी बात को किसी रंग से जोड़ते हुए गहरी होती संझा का जिक्र किया था। शायद तभी से ये शब्द शशांक के अन्दर धँस गए थे-दादी के जीवन के अट्ठाईस सालों के ढोए हुए तमाम बोझ के साथ।

शशांक ने देखा कि जतीन दा गार्ड की सीटी और उसके शब्दों से बेखबर तालाब के पानी को देखते हुए सोच में डूबे बैठे थे। उसने कुछ घबड़ाहट के साथ तालाब के उस पार सौ-डेढ़ सौ साल पुराने बड़े-बड़े वृक्षों की आकृतियों को देखा। पेड़ों के नए-पुराने पत्तों के हल्के-गहरे रंग अभी-अभी सूरज की ढलती धूप में चमचमाकर अब एक-जैसे कलासे हो गए थे, पर आकाश अभी तक पूरा काला नहीं हुआ था। ऐसे में सचमुच जान पड़ता है कि अभी भी जब इक्कीसवीं शताब्दी शुरू होने में सिर्फ दो साल बाकी हैं-दुनिया में कभी भी कुछ घट सकता है। दादी के पास ऐसी ‘सईं’ संझा की जाने कितनी ही कहानियाँ हैं-खासकर तालाबों के इधर-उधर और पेड़ों में रहनेवाले भूत-पिशाच-जिन्नों की। जतीन दा ने कभी सुनी होगी ऐसी कोई कहानी ?

गार्ड की सीटी के साथ विक्टोरिया मेमोरियल के विशाल मैदान में जगह-जगह कोनों के झुरमुटों में घुसे हुए या पेड़ों की आड़ लेकर बैठे प्रेमी-युगल और बेंचों पर बैठे बूढ़े लोग उठकर सामने के द्वार की ओर धीरे-धीरे खिसकते हुए बढ़ रहे थे। शशांक ने सोचा कि यदि वह अभी इसी घड़ी उठकर चलना शुरू करे, तो भी उसकी धीमी चाल के कारण मुख्य द्वार के पास आते-आते दूसरी सीटी बज ही जाएगी। पिछली बार एक गार्ड ने इस तरह देर करने पर उसे और जतीन दा को आकर पकड़ लिया था और उनसे इस तरह सुलूक किया था जैसे वे दोनों वहाँ बैठकर कोई ‘गलत’ काम कर रहे हों। वह तो इस कदर घबड़ा गया था कि उसके मुँह से आवाज तक नहीं निकली थी पर जतीन दा ने अंग्रेजी मिली बांग्ला में गार्ड को डाँट-डपटकर बहुत मुश्किल से उससे पीछा छुड़ाया था। शशांक को कई दिनों तक यह सोच-सोचकर आश्चर्य होता रहा था कि उस गार्ड ने उनके बारे में क्या समझा था और वह उन दोनों के बीच किसी ‘वैसे’ संबंध के बारे में सोच भी कैसे पाया था। क्या इसलिए कि वह जतीन दा का मित्र तो कतई नहीं लग सकता; उनके बीच उम्र का फासला इतना भी मालूम नहीं होता कि उसे उनका बेटा समझा जा सके ? शशांक की उम्र उसकी हलकी-सी मूँछों की रेखा के कारण ठीक सोलह-सत्रह बरस की ही लगती है और जतीन दा की ? उनकी उम्र पैंतीस से पचास के बीच कहीं भी मानी जा सकती है। उनमें एक जवान आदमी जैसी चमक है, भले ही उनके बाल बीच से कुछ उड़े हुए हैं। पर जितने हैं, उतने एकदम काले हैं। वाकई उनकी उम्र ठीक-ठीक बता पाना कठिन है।

शशांक ने जतीन दा की तरफ चेहरा घुमाकर गौर से देखा। धुँधली उजास में उनके चेहरे की बगल से बनती एकचश्म रुपरेखा उनकी नुकीली नाक और दाढ़ी के कारण किसी वैज्ञानिक या चर्च के पादरी की याद दिलाती थी। शशांक को उनके बारे में ऐसा सोचकर अच्छा लगा। यों आम तौर पर दिन के उजाले में जतीन दा की दाढ़ी जंगली घास की तरह उग आई लगती थी और उनकी नुकीली नाक की तरफ ध्यान कम ही जाता था। इसके अलावा जतीन दा की गरदन पर बाईं तरफ एक बड़ा-सा चोट का निशान था जिसमें सिलाई के दाग साफ दिखते थे। न जाने कैसे अजीब तरीके से यह निशान उन्हें एक मामूली आदमी बना देता था।

गार्ड की दूसरी सीटी बजनेवाली होगी-यह सोचते ही अँधेरे को चीरती हुई दूसरी सीटी सुनाई पड़ी। शशांक हड़बड़ाकर बेंच से उठ खड़ा हुआ। यही तरीका है अब जतीन दा को उठाने का। आज फिर किसी को फूँककर आए हैं और न जाने क्या सोच रहे हैं। पिछले नौ-दस महीनों में, जब से वह जतीन दा को जानने लगा है, तब से वे तीसरे आदमी की अंतिम यात्रा में शामिल होकर आए हैं। इस बार कोई रिश्तेदार तो दूर, मोहल्लेवाला तक नहीं था-जिस अस्पताल में उनकी माँ बीमार होकर भरती थी, उसी के वार्ड में बगल के बिस्तरवाला मरीज जो कलकत्ते के पास ही किसी गाँव का बाशिन्दा था। कुछ ही दिनों का परिचय था पर उसकी शवयात्रा में शामिल होने चले गए। ‘‘मरे हुए आदमी को चार ऐसे कंधे तो मिलने चाहिए, जिनसे उसका जीवन में किसी तरह का जुड़ाव रहा हो’’-जतीन दा के पिता ने कहा था, जब वे पिछली बार श्मशान जाकर आए थे। जतीन दा के पिता को इकलौते बेटे का कंधा नहीं मिला था-इसका कारण शशांक को कुछ-कुछ मालूम था। शायद उनकी गरदन की बाईं तरफ की चोट से इसका कुछ संबंध था। पुलिस के नाम से शशांक बुरी तरह चौंक गया था इसलिए जतीन दा उस दिन उसे पूरी बात बताते-बताते रह गए थे।

शशांक को उठते देख जतीन दा भी उठ खड़े हुए। ‘‘क्या हुआ जतीन दा, आज मन ठीक नहीं है ? आदमी को जलते हुए देखकर कैसा-कैसा लगता होगा न ?’’ शशांक ने विक्टोरिया के सामने के द्वार की ओर कुछ हड़बड़ी में बढ़ते हुए पूछा। उसकी आँखों के सामने हिंदी फिल्मों में देखे जलती चिताओं के आम दृश्य घूम गए थे। हड़बड़ाने से उसकी चाल अक्सर और गड़बड़ा जाती थी। ऐसे मौकों पर कई बार उसे खयाल आता था कि यदि वह पड़ोस के श्रीरूप दास की तरह व्हील-चेयर पर होता या चलने में सहारे के लिए उसके पास दो डंडे या एक छड़ी ही होती, तो दूर से लोग समझ लेते कि उसे चलने में दिक्कत है। ऐसे तो इस धुँधलके में कोई उसे पागल या पियक्कड़ भी समझ सकता था। पर, शशांक ने कल्पना करने की कोशिश की, यह बात वह माँ से कह दे तो वह क्या कहेगी। उसे मालूम था कि उसके बचपन में एक समय ऐसा रहा था, जब डॉक्टर ने उसे चलने के लिए ‘क्रचेज’ दिए थे। उसे यह भी मालूम था कि जब तक चमड़े के हत्थेवाले वे अल्मूनियम के डंडे उसने फेंक नहीं दिए थे, तब तक माँ ने चैन की साँस नहीं ली थी।

गार्ड की दूसरी सीटी से मजबूरन उठनेवाले प्रेमी-युगल अगल-बगल से आँखें चुराते दरवाजे की ओर बढ़ रहे थे। विक्टोरिया मेमोरियल की बत्तियाँ जल उठी थीं और आकाश में यदि बहुत हल्का-सा उजाला रह गया था, तो उसका कोई अहसास इन बत्तियों ने रहने नहीं दिया था। दादी ऐसे समय में बत्ती जलाकर उसके उजाले को जरूर प्रणाम करती थी। जब तक आकाश में पूरी तरह अँधेरा न होता, वह घर में झाड़ू-बुहारी नहीं करने देती थी। इसका संबंध धन की देवी लक्ष्मी यानी जिन्दगी के दो नम्बर सुख से था। दादी अक्सर कहती-‘‘पहला सुख निरोगी काया। दूजा सुख घर में माया।’’ वह यह सुनकर सोचता कि दादी शायद यह कहना चाह रही है कि उसे दूसरा सुख तो नसीब है।

किसी गार्ड ने अपने साथी को कुछ कहकर किसी प्रेमी-प्रेमिका के लिए टिटकारी मारी। जतीन दा ने कहा-‘रास्कल !’ शशांक को लगा कि जतीन दा ने अंदर-ही-अंदर कहा-‘‘आइ कुड किल हिम।’’ उस अंधकार में जतीन दा के बगल में चलते हुए शशांक को उनमें एक गहरी दबी हुई हिंसा का अनुभव हुआ। यह शायद बिलकुल उसकी कोरी कल्पना थी, पर वह अंदर तक सहम गया। आखिर वह इस आदमी को इन कुछ महीनों में कितना जान पाया है ? उसने अपने मन को टटोलकर देखा कि क्या वह किसी आदमी से इतनी नफरत कर सकता है कि उसे जान से मार डालने की कल्पना भी कर सके ? इस दुनिया में उसे सबसे ज्यादा तकलीफ अपने स्कूल के उस क्रिश्चियन लड़के आर्थर से है, जो दुर्भाग्य से उसका एकमात्र दोस्त भी है। आर्थर भरसक उसका जीना हराम करके रखता है। लेकिन फिर भी वह आर्थर को खत्म करने की तो सोच भी नहीं सकता। तो क्या संसार में दो तरह के आदमी होते हैं-किसी के जीवन को खत्म कर सकनेवाले और ऐसा करने की कल्पना तक न कर सकनेवाले ? जतीन दा क्या पहली तरह के आदमी रहे हैं और अब उसका प्रायश्चित कर रहे हैं-इस तरह शवयात्राओं में शामिल होकर ? शशांक ने बगल में चलते हुए जतीन दा को फिर से गौर से देखा जैसे कि उनके भूत-भविष्य-वर्तमान को एक-साथ देख लेना चाहता हो।

‘‘मुझे कोई श्मशान-वैराग्य या वैसा कुछ नहीं होता। आदमी की जिंदगी और चींटी की जिंदगी में कोई खास फर्क है क्या ? बल्कि खुद डार्विन ने यह माना है कि चींटी का भेजा संसार के तमाम पदार्थों में सबसे अद्भुत परमाणुओं से बना है, शायद आदमी के मस्तिष्क से भी ज्यादा। मैं तो कुछ और ही सोच रहा था। जिस आदमी को जलाने ले गए थे, न उसका बेटा निमाई, निमाई का चाचा, उसका एक दोस्त और मैं-बस हम चार जन श्मशान में मौजूद थे। चिता में आग लगते ही निमाई के चाचा ने निमाई से कहा-‘‘मैं कुछ जल्दी में हूँ। बुरा न मानो, तो मैं चला जाऊँ। बड़ा जरूरी काम है।’’ निमाई अचकचाया, क्योंकि वहाँ उसका रिश्तेदार तो ही एक था, बाकी हम दोनों तो ऐसे ही अपरिचित थे। उसे लगा होगा कि अन्त में वही अकेला रह जाएगा। जब रिश्तेदार ही चलता बना, तो बाकी हम दोनों भी खिसक ही लेंगे। पर क्या करता ? जब निमाई का चाचा वहाँ से निकला, मैं भी कुछ सोचकर उसके पीछे हो लिया। देखा, तो कुछ दूर जाकर उस आदमी ने हाथ धोकर एक दुकान से रसगुल्ले और समोसे खाए और फिर जेब से सिनेमा का एक टिकट निकालकर देखा और फिर जेब में रख लिया। मैं समझ गया कि उसका जरुरी काम क्या था। मैं तभी से सोच रहा हूँ कि चीटियाँ कभी ऐसा नहीं करतीं। तुमने देखा है कि वे कैसे एक-दूसरे की सहायता से जीवन चलाती हैं ? कभी-कभी एक चींटी अपने से बड़ी मरी हुई चींटी को ठेलकर कहां से कहां ले जाती है। देखा है तुमने ?’’-जतीन दा ने पूरा किस्सा सुनाकर शशांक से पूछा।

शशांक ने जबाव में कुछ नहीं कहा। उसने कभी चीटियों पर विशेष ध्यान नहीं दिया था। उसे कुछ अजीब-सा लगता था कि जतीन दा आदमी के जीवन की तुलना हमेशा चीटियों से किया करते थे। क्या वाकई चींटियों के पास जीवन का कोई बड़ा रहस्य छुपा है ? क्या इसी कारण दादी हर मंगलवार को बिना भूले चींटियों को आटा-चीनी डलवाया करती हैं ? कभी काली चींटियों का बड़ा-सा झुंड कहीं से निकल आता, तो दादी उसे झाड़ू से हटाने को मना करती। कहती कि खुद ही चली जाएँगी और सचमुच वे चींटियाँ जैसे आतीं, वैसे ही चली जातीं। शशांक ने एक बार अपने परिवार की बू़ढ़ी पुरोहितानी यानी जोशन परदादी को दादी से कहते सुना था कि उनके पड़ोस की नई बहू ने डीडीटी का घोल पीकर आत्महत्या करने के तीन दिन पहले अपने आँगन में चींटियों को मारने के लिए डीडीटी पाउडर छिड़का था।

शशांक ने एक बार दादी से जानना चाहा था कि उन्हें चीटियों का इतना खयाल क्यों है, तो दादी ने कहा था कि हमें सृष्टि के सब लोगों का खयाल रखना चाहिए, इसलिए हमारे धर्म में ऐसा विधान बनाया गया है।–लेकिन मंगलवार को ही क्यों ? पूछने पर दादी ने मंगल देवता या राहु-केतु के प्रसन्न होने की बात कही थी। शशांक को लगा था कि दादी आखिर किस-किसके प्रसन्न होने का खयाल रखेगी ? आदमी तो आदमी, दादी को तो न जाने कितने जीवों-आत्माओं-देवताओं की प्रसन्नता की चिंता है। माँ को तो ऐसी कोई चिंता नहीं। दादाजी को भी नहीं। फिर दादी अकेली ही किस-किसकी चिंता रखेगी ? शशांक यह भी जानता है कि माँ इस चिंता को कैसे देखती है-‘‘वह एक प्रेम करनेवाले मन से अधिक एक डरा हुआ मन है शशांक। उस चिंता के पीछे अपना सब कुछ बचाए रखने की-यानी खुद की चिंता अधिक है। तुम्हारी दादी इस बात का नहीं देख सकती क्योंकि उन्होंने सारा जीवन ऐसे ही डर में जिया है। पता नहीं कैसे, तुम्हारे पापा भी इस डर को सारे प्राणियों के प्रति प्रेम जैसी कोई महान चीज समझते हैं। पर तुम्हें तो सच को सच की तरह देखना होगा शशांक।’’ माँ की बातों का तर्क सही हो सकता है, पर फिर भी शशांक को यह मन-सबकी चिंता रखनेवाला मन-अद्भुत से कम नहीं लगता।
क्या सचमुच आदमी का मन इतना बड़ा हो सकता है कि उसमें सब समा जाएँ-शशांक के मन में यह प्रश्न चींटियों से जुड़कर शुरू हुआ और दादी की कहानी की आकाश गंगा तक फैल गया। आखिर यही वह प्रश्न है, जिसमें उसके और जतीन दा के रिश्तों की बुनियाद है।

उस शनिवार की शाम को शशांक हमेश की तरह सबसे बचने के लिए विक्टोरिया मेमोरियल की इसी बेंच पर इसी बकुल के तले तालाब के सामने बैठा था। बहुत देर तक बैठे-बैठे पानी को देखते हुए अचानक उसने देखा कि तालाब के पानी की सतह पर छोटी-छोटी कागज की सफेद चिंदियाँ तैरने लगी हैं। उसने आँख उठाकर देखा कि बगल की बेंच पर एक आदमी बैठा-बैठा कपड़े के झोले से कागज निकालकर कुछ लिखता और फिर उस कागज की चिंदी-चिंदी कर तालाब की ओर फेंक देता। उन चिंदियों में से कुछ तालाब की सतह पर तैरने लगतीं और कुछ हवा से उड़कर हरी घास पर इधर-उधर टिक जातीं। उस आदमी ने शशांक को अपनी तरफ देखते देखा, तो मुस्कराया। शशांक को लगा कि वह आदमी उसे बहुत दिनों से या आज ही बहुत देर से देख रहा होगा। उसकी आँखों में शशांक को एक अजब-सी चमक दिखी। ‘इसका तरीका बुरा नहीं है’-शशांक ने सोचा-‘जो मन में आए लिखो। फिर हवा में उड़ा दो, पानी में बहा दो।’

शशांक को लगा कि वह भी शायद ऐसा करके देख सकता है कि इससे क्या फायदा होता है। आज आर्थर ने क्लास में फिर उसके चलने और बोलने की नकल उतारकर उसका मजाक बनाया है। वह लिखेगा आर्थर को-‘‘काश तुम इनसान होते।’’ नहीं, यह ठीक नहीं। यह तो सीधे-सीधे आरोप लगाना है। एक तरह से यह कहना है कि वह जानवर है। वह यह लिखेगा-‘‘काश, तुम्हें कोई अंदाज होता कि तुम बिना मतलब मुझे कितना सता रहे हो।’’ ये बातें चूँकि लिखकर फाड़ देनी हैं, इसलिए वह कुछ भी लिख सकता है। यदि सचमुच में लिखना होता, तो वह कभी अपने को सताए जाने जैसी घटिया बात लिख नहीं सकता, जिसमें अपने पर दया जैसी कोई चीज हो या दूसरे से दया की भीख जैसी बात। वह तो किसी हालत में आर्थर पर यह जाहिर नहीं होने देता कि उसे बुरा लग रहा है। हमेशा अपने चेहरे पर अनजाने चली आई किसी छाया को हँसकर उड़ा देता है। उसे बदले में ‘पोटैटो इन जैकेट’ (छिलकेदार साबुत उबला आलू) कहकर पुकारता है क्योंकि उसे पता है कि आर्थर के मोटापे और गहरे गेहुँए रंग के लिए यह उपमा एकदम सही है और आर्थर को काफी कष्ट देती है।

आर्थर को ही क्यों, सबसे पहले वह एक कागज माँ को लिखेगा, शशांक ने सोचा-‘देखो, तुमसे बचने के लिए ही मैं विक्टोरिया मेमोरियल की इस बैंच पर आकर बैठा हूँ। तुम आर्थर को मेरे एकमात्र दोस्त की तरह जानती हो। उसके खिलाफ तुम्हें कुछ कहूँगा, तो तुम्हें दुख होगा कि दरअसल मेरा कोई दोस्त नहीं है। तुम मुझे गुमसुम देखोगी, तो समझ ही जाओगी कि स्कूल में जरूर कोई बात हुई है। पिछली बार मैंने गलती से तुम्हें उन तीन लड़कों के नाम बता दिए थे, जो मुझे बहुत तंग कर रहे थे। यदि आर्थर की जगह कोई और नाम तुम्हें बता दूँ, तो तुम कहोगी कि, ‘मैं कल स्कूल आकर उस लड़के से मिलूँगी’ या फिर ‘तुम क्या हिम्मत करके उस लड़के को ठीक नहीं कर सकते?’ जबकि सच तो यह है माँ कि तुम किसी को किसी तरह नहीं बदल सकती और किसी को भी ठीक करने के लिए हिम्मत की नहीं, बल्कि जैसा कि दादी कहती है, प्रार्थना की अधिक जरूरत है।’

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