स्त्री-पुरुष संबंध >> पति पत्नी संवाद पति पत्नी संवादविमल मित्र
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पति-पत्नी के इन्द्रधनुषी संबंध के सातो रंग का विश्लेषण करता उपन्यास
Pati-Patni Samvad.
संसार में जितने मानवीय संबंध हैं उनमें सबसे विचित्र है पति-पत्नी संबंध। इस पर हजारों उपन्यास लिखे गये लेकिन पति-पत्नी के इन्द्रधनुषी संबंध के सातो रंग इसलिए मुश्किल हैं कि मानवीय आयाम के नीचे अंतरंग दाम्पत्य जीवन का छिप जाना स्वाभाविक है। लेकिन कुछ ऐसे कथाशिल्पी आगे आये जिन्होंने दाम्पत्य जीवन की विचित्रताओं को सविस्मय देखा लेकिन उनके विश्लेषण का प्रयास नहीं किया। बिमल बाबू ने ऐसा ही किया है।
गोलंक बाबू को जब रेलवे की नौकरी नहीं मिली थी तब वे एक अस्वस्थ लखपति की मालिश करने का काम करते थे। उस लखपति की नौजवान पत्नी से उनका अवैध संबंध हो गया। उस महिला के पीछे उन्होंने अपने बीवी-बच्चों को तिलाजंलि दे दी। लेकिन जब वे चल बसे तब उस महिला ने उनकी गिरस्ती को अपना लिया। गोलक बाबू के बेटे उसके अपने बेटे हो गये वह रोज गोलक बाबू के चित्र पर माला चढ़ाती है। लेकिन ऐसा क्यों हुआ ?
चिकित्सक के रुप में डॉक्टर दास ने जितना धन कमाया उतना बहुत कम लोग कमा पाते है। धन के पीछे वे अपनी पत्नी तक को भूल गये। बहुत दिनों बाद बिमल बाबू जब डॉ. दास की पत्नी से मिले तब मिसेस दास मिसेस शर्मा बन चुकी थी। उसने अपने ड्राइवर शर्मा को अपना जीवन साथी बना लिया था। शर्मा भी मिस्टर शर्मा हो गया था। वह ट्रांसपोर्ट कंपनी का मालिक था। लेकिन ऐसा क्यों हुआ ?
पल्टू सेन मामूली क्लर्क से करोड़पति बना। उसने अपनी पत्नी को सुखी करने के लिए क्या नहीं किया ? लेकिन उसकी पत्नी कहाँ सुखी हो सकी ? उसने अपने शरीर में आग लगाकर आत्महत्या कर ली। उसी घटना में पल्टू सेन बुरी तरह जलकर कई दिन बाद चल बसा। मरते समय उसे पता चला कि उसकी असली पत्नी कोई और है। लेकिन ऐसा क्यों हुआ ?
गोलंक बाबू को जब रेलवे की नौकरी नहीं मिली थी तब वे एक अस्वस्थ लखपति की मालिश करने का काम करते थे। उस लखपति की नौजवान पत्नी से उनका अवैध संबंध हो गया। उस महिला के पीछे उन्होंने अपने बीवी-बच्चों को तिलाजंलि दे दी। लेकिन जब वे चल बसे तब उस महिला ने उनकी गिरस्ती को अपना लिया। गोलक बाबू के बेटे उसके अपने बेटे हो गये वह रोज गोलक बाबू के चित्र पर माला चढ़ाती है। लेकिन ऐसा क्यों हुआ ?
चिकित्सक के रुप में डॉक्टर दास ने जितना धन कमाया उतना बहुत कम लोग कमा पाते है। धन के पीछे वे अपनी पत्नी तक को भूल गये। बहुत दिनों बाद बिमल बाबू जब डॉ. दास की पत्नी से मिले तब मिसेस दास मिसेस शर्मा बन चुकी थी। उसने अपने ड्राइवर शर्मा को अपना जीवन साथी बना लिया था। शर्मा भी मिस्टर शर्मा हो गया था। वह ट्रांसपोर्ट कंपनी का मालिक था। लेकिन ऐसा क्यों हुआ ?
पल्टू सेन मामूली क्लर्क से करोड़पति बना। उसने अपनी पत्नी को सुखी करने के लिए क्या नहीं किया ? लेकिन उसकी पत्नी कहाँ सुखी हो सकी ? उसने अपने शरीर में आग लगाकर आत्महत्या कर ली। उसी घटना में पल्टू सेन बुरी तरह जलकर कई दिन बाद चल बसा। मरते समय उसे पता चला कि उसकी असली पत्नी कोई और है। लेकिन ऐसा क्यों हुआ ?
प्राक्कथन
‘पति-पत्नी संवाद’ नामक इस ग्रंथ के बारे में कुछ प्रासंगिक बातें बताना जरूरी समझ रहा हूँ।
अगर कहानी-उपन्यास सिर्फ मनोरंजन के उपकरण होते तो शायद इसकी जरूरत नहीं पड़ती। संसार में विभिन्न प्रकार की कहानियों तथा उपन्यासों की रचना हुई है, हो रही है और आगे भी होगी। लेकिन कुछ रचनाएँ बनी रहती हैं और कुछ काल के प्रवाह के साथ बह जाती हैं। आज जो किताब पढ़कर आनंद मिला, कल भी उसे पढ़कर आनंद मिलेगा, ऐसा कोई निश्चय नहीं है। खाने की बात लें। कम उम्र में जो चीजें अच्छी लगती हैं, उम्र बढ़ने पर अक्सर वे चीजें रुचिकर नहीं लगतीं। किताबों के बारे में लगभग यही होता है। जो लेखक हर काल के, हर उम्र के और हर रुचि के पाठकों को संतोष दे सकें, वे स्मरणीय हैं।
ऐसा घमंड मैं नहीं करता।
संसार में एक मनुष्य से दूसरे के जितने संबंध हो सकते हैं, उनमें सबसे जटिल और कुटिल संबंध है, पति-पत्नी का। इस विषय-वस्तु को लेकर दुनिया में लाखों उपन्यास लिखे गए हैं, फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि इस संबंध की गुत्थी खुल सकी है। इसलिए यह विषय-वस्तु चाहे जितनी पुरानी हो, विवाह-व्यवस्था शुरु होने के बाद से ही वह मानव-समाज की चिरंतन समस्या मानी जाती है।
निजी तौर पर इतना कह सकता हूँ कि इन रचनाओं में कहीं भी मेहनत से भागने का उदाहरण नहीं मिलेगा। अब तक मैंने अनेक तरह के कहानी-उपन्यास लिखे हैं जिनके स्वाद अलग-अलग हैं। कभी ‘एपिक’, कभी ‘क्लासिक’ तो कभी चटपटा। लेकिन हर रचना में संकेत उस शाश्वत की ओर, उस वैराग्य की ओर है जो मन को पवित्र बनाता है और उसका परिशोधन करता है। एक बात पर मैं हमेशा विश्वास करता आया हूँ कि लेखक अगर अपनी रचना को मन का सारा अनुराग अर्पित नहीं करता तो वह रचना हर काल के हर मनुष्य के अंतर को आकृष्ट नहीं कर सकती। इस रचना में मैं मन का सारा अनुराग अर्पित कर सका हूँ या नहीं, इसका निर्णय तो पाठक ही करेंगे।
‘पति-पत्नी संवाद’ में तीन उपन्यासों का समावेश है। इनमें से प्रथम का अनुवाद श्री शंभुनाथ पाड़िया ‘पुष्कर’ ने और अन्य दोनों का ‘देश’ पुरस्कार से सम्मानित अनुवादक श्री वीरेन्द्रनाथ मण्डल ने किया है।
अगर कहानी-उपन्यास सिर्फ मनोरंजन के उपकरण होते तो शायद इसकी जरूरत नहीं पड़ती। संसार में विभिन्न प्रकार की कहानियों तथा उपन्यासों की रचना हुई है, हो रही है और आगे भी होगी। लेकिन कुछ रचनाएँ बनी रहती हैं और कुछ काल के प्रवाह के साथ बह जाती हैं। आज जो किताब पढ़कर आनंद मिला, कल भी उसे पढ़कर आनंद मिलेगा, ऐसा कोई निश्चय नहीं है। खाने की बात लें। कम उम्र में जो चीजें अच्छी लगती हैं, उम्र बढ़ने पर अक्सर वे चीजें रुचिकर नहीं लगतीं। किताबों के बारे में लगभग यही होता है। जो लेखक हर काल के, हर उम्र के और हर रुचि के पाठकों को संतोष दे सकें, वे स्मरणीय हैं।
ऐसा घमंड मैं नहीं करता।
संसार में एक मनुष्य से दूसरे के जितने संबंध हो सकते हैं, उनमें सबसे जटिल और कुटिल संबंध है, पति-पत्नी का। इस विषय-वस्तु को लेकर दुनिया में लाखों उपन्यास लिखे गए हैं, फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि इस संबंध की गुत्थी खुल सकी है। इसलिए यह विषय-वस्तु चाहे जितनी पुरानी हो, विवाह-व्यवस्था शुरु होने के बाद से ही वह मानव-समाज की चिरंतन समस्या मानी जाती है।
निजी तौर पर इतना कह सकता हूँ कि इन रचनाओं में कहीं भी मेहनत से भागने का उदाहरण नहीं मिलेगा। अब तक मैंने अनेक तरह के कहानी-उपन्यास लिखे हैं जिनके स्वाद अलग-अलग हैं। कभी ‘एपिक’, कभी ‘क्लासिक’ तो कभी चटपटा। लेकिन हर रचना में संकेत उस शाश्वत की ओर, उस वैराग्य की ओर है जो मन को पवित्र बनाता है और उसका परिशोधन करता है। एक बात पर मैं हमेशा विश्वास करता आया हूँ कि लेखक अगर अपनी रचना को मन का सारा अनुराग अर्पित नहीं करता तो वह रचना हर काल के हर मनुष्य के अंतर को आकृष्ट नहीं कर सकती। इस रचना में मैं मन का सारा अनुराग अर्पित कर सका हूँ या नहीं, इसका निर्णय तो पाठक ही करेंगे।
‘पति-पत्नी संवाद’ में तीन उपन्यासों का समावेश है। इनमें से प्रथम का अनुवाद श्री शंभुनाथ पाड़िया ‘पुष्कर’ ने और अन्य दोनों का ‘देश’ पुरस्कार से सम्मानित अनुवादक श्री वीरेन्द्रनाथ मण्डल ने किया है।
-बिमल मित्र
पति पत्नी संवाद
बहुत सी कहानियाँ होती है, जिनकी शुरूआत पढ़ने में बहुत बढ़िया लगती है लेकिन आखिर तक पहुँचते-पहुँचते कहानी भटक जाती है।
सच पूछिए तो कहानी का अन्त ही असल चीज होती है। कहानी के अन्त के बारे में बगैर सोचे लिखने का यही नतीजा होता है।
मैंने एक प्रसिद्ध लेखक से एक बार पूछा था-आप क्या कहानी का अन्त पहले ही सोच कर लिखना शुरू करते हैं ?
उन्होंने जवाब दिया-नहीं।
मैंने उनसे प्रश्न किया था-क्यों ? कहानी का अन्त सोचे बगैर आप पाठकों को बाँध कर रख कैसे सकेंगे ? कहानी की चाबी तो कहानी के अन्त में ही रहती है। कहानी की शुरूआत के समय जो गिरह आप बांध देंगे, उस गिरह को तो आखिरकार आपको खोलना ही होगा। पहले से सारी योजना बना लेने पर ही तो आप कहानी का अन्त करते समय उस गिरह को खोल सकेंगे।
उस प्रसिद्ध लेखक ने जबाव में कहा था-जिन्दगी कोई फारमूला तो है नहीं भाई। पहले से ही कहानी का अन्त सोच कर लिखने पर तो कहानी फारमूला बन जाएगी...।
मैंने कहा था-किन्तु सारा विश्व-ब्रह्मांड भी तो किसी फारमूले पर ही चल रहा है। सूरज हर रोज नियम पूर्वक शाम को पश्चिम के आकाश में डूब जाता है। नियम के अनुसार ही जाड़ा पड़ता है, गर्मी पड़ती है और वर्षा होती है। समस्त विश्व-सृष्टि की सभी चीजों के बीच जब यही नियम है, तो फिर कहानी की रचना में ही भला यह नियम क्यों नहीं लागू होगा ?
सो जिसकी जैसी मर्जी हो, वह उसी तरह लिखे ! इसमें भला मेरा क्या बनता-बिगड़ता है ? कहानी में एक आरम्भ होगा ही, एक मध्य होगा ही और अनिवार्य रूप से एक अन्त भी होगा ही। यही है मेरा नियम।
उस लेखक का नाम तो मैं लूँगा नहीं, किन्तु पूछना चाहूँगा कि कहाँ खो गया वह प्रसिद्ध लेखक ? उस लेखक का नाम बताने पर अब कोई पहचान भी नहीं पायेगा। उस पर मजा यह कि वह प्रसिद्ध लेखक आज भी इस धरा-धाम पर जीता-जागता मौजूद है।
लेकिन यह तो हुई भूमिका, जिसे दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है गौरचन्द्रिका !
मेरी यह कहानी जो पढ़ रहे है, वे इन पंक्तियों को न भी पढ़ें तो कोई हर्ज नहीं। इसका कारण यह है कि अभी कहानी शुरू ही नहीं हुई है। लीजिए, अब कहानी शुरू होती है...ठीक वहीं से, जब कि मैं पुरी गया था।
ऐसा कोई भी बंगाली नहीं होगा जो दो-एक बार पुरी न गया हो।
पुरी ऐसी एक जगह है, जो कभी भी पुरानी नहीं होती। मैं वहाँ पन्द्रह-सोलह बार गया हूँ। स्वर्गद्वार के बड़े-बड़े होटलों से शुरू कर छोटे प्राइवेट होटलों तक में मैं ठहरा हूँ। कहीं रोज का किराया है पचहत्तर रुपये तो कहीं आदमी पीछे रोज का किराया है मात्र दो रुपये।
उस बार मैं एक ऐसी होटल में जा पहुँचा, जिसका कोई साइनबोर्ड तक नहीं था। लोगों में उस होटल का जो नाम प्रचलित था, वह था-मासी माँ की होटल।
मासी माँ के होटल का ठिकाना मेरे एक दोस्त ने दिया था। वहाँ रहने और खाने का खर्च जिस तरह कम है, व्यक्तिगत देखभाल उतनी ही अधिक सुलभ है।
छोटी पतली गली के बीच में एक एकतल्ला मकान है। उस मकान में सात या आठ कमरे हैं। होटल की देखभाल करती है एक महिला। उसे सभी मासी माँ कहकर पुकारते हैं। उसका नाम क्या है, वह आज तक कोई भी नहीं जानता।
वह महिला खुद अपने हाथों से खाना पकाती और अपने सामने बैठा कर होटल में टिकने वाले हरेक यात्री को खिलाया करती। वह जोर-जबर्दस्ती आपको भर-पेट खिलायेगी ही। जब तक आप आपत्ति नहीं करेंगे, तब तक वह आपको आग्रह कर-करके खिलायेगी।
मैं स्टेशन से जब रिक्शे पर बैठकर उस ठिकाने पर पहुँचा, तब तक वह रिक्शावाला भी नहीं जानता था कि वह एक होटल है। इसकी वजह यह है कि होटल के बाहर कोई भी साइनबोर्ड नहीं है। किसी तरह के आडम्बर या टीम-टाम का तो सवाल ही नहीं उठता। सिर्फ उस मकान के सामने तुलसी का एक बड़ा-सा पौधा लगा हुआ था। तुलसी के पौधे के नीचे एक वेदी बनी हुई थी। देखते ही पता चलता था कि किसी ने सुबह फूल-बेलपत्र से तुलसी की पूजा की होगी। इसका कारण यह कि तुलसी के पौधे के नीचे कुछ गेंदा फूल और बेलपत्र पड़े हुए थे। और तुलसी के पौधे के तने पर सिन्दूर जगह-जगह पर उस समय तक लगा हुआ था। तुलसी के पौधे की पूजा किये बिना इस तरह सिन्दूर कैसे लग सकता था तथा नीचे फूल और बेलपत्र पड़े कैसे रह सकते थे।
रिक्शावाले ने ही मेरे सूटकेस और होल्ड-ऑल को भीतर रख दिया।
मेरे आने की खबर पाते ही एक अधेड़ महिला हड़बड़ी में मेरे सामने आ धमकी। उसने पूछा-कहां से आ रहे हैं भाई आप ?
मैंने कहा-कलकत्ते से आ रहा हूँ।
उस महिला ने पूछा-मेरा ठिकाना कहाँ से मिला आपको ?
मैंने कहा-कलकत्ते में मेरा एक दोस्त है, उसी के पास से।
-उसका नाम क्या है ?
मैंने जवाब दिया-महेश ! महेश चौधरी...।
उस महिला को सब कुछ याद आ गया। उसने कहा, हाँ, वे बहुत ही बढ़िया आदमी हैं। मुझे अच्छी तरह याद है। यही पाँच-छह महीने पहले वे आकर मेरे ही होटल में रुके थे।
मैंने कहा-हाँ, उसके मुँह से मैंने आपकी बहुत तारीफ सुनी है। इसीलिए इस बार मैं आपके होटल में आया हूँ।
उस महिला ने कहा-तब तो आप सभी कुछ जानते हैं।
मैंने कहा-हाँ, मैं सब कुछ जानता हूँ।
उसने कहा-आप सुबह ट्रेन से उतरे हैं, चाय-वाय कुछ भी तो अभी कंठ से नीचे नहीं उतरी होगी। पहले आपके लिए चाय बना देती हूँ। लेकिन चाय के साथ आप क्या लेंगे ? दो पराँठे और आलू-भाजा बना दूँ क्या ?
मैंने कहा-नहीं-नहीं वह सब कुछ भी नहीं करना होगा। सिर्फ चाय बनाना ही काफी होगा।
वह महिला लेकिन बड़ी हठीली थी।
उसने कहा-ऐसा भी भला कहीं होता है ? क्या किसी भले आदमी को सिर्फ चाय दी जा सकती हैं ? मैं अपने हाथ से तो किसी को कोरी चाय नहीं दे सकती। उसके पहले आप उस नल के नीचे जाकर हाथ-मुँह धो लीजिए।
उसके बाद उसने पूछा-कौन सा कमरा आप लेंगे, बताइए। दो कमरे इस वक्त खाली हैं।
मैंने कहा-जैसा आप ठीक समझें। मुझे किसी भी कमरे में ठहरने में कोई आपत्ति नहीं है।
उस महिला ने कहा-मेरा मकान बढ़िया नहीं है। किसी भी कमरे में आपको समुद्र की हवा नहीं मिल सकेगी।
मैंने कहा-मुझे सब कुछ मालूम है। महेश मुझे सब कुछ बता चुका है।
मैंने दो खाली कमरों में से एक को पसन्द कर लिया। कमरे के भीतर एक तख्त था, एक छोटी टेबुल थी और थी एक बगैर हत्थे की कुर्सी।
मैंने कहा-मैं तो कमरे में सिर्फ रात में रहूँगा। और बाकी सारा दिन बाहर बिताऊँगा-समुद्र के तट पर या फिर जगन्नाथ स्वामी के मन्दिर में। रात में वापस आकर खाऊँगा और सो जाऊँगा।
उस महिला ने पूछा-रात में आप क्या खाते हैं भाई ? भात या रोटी ?
मैंने कहा-जैसी आपकी मर्जी हो..। मेरी कोई अपनी पसन्द नहीं है। जो कुछ तैयार करने में आपको मुश्किल नहीं होगी, वही बना दीजिएगा।
यह कहकर मैं समुद्र की तरफ निकल पड़ा। समुद्र मासी माँ के होटल से कुछ दूर था। गली के रास्ते से जाने पर करीब दस मिनट के बाद समुद्र दिखाई पड़ने लगा।
वहां जाकर मैंने देखा कि उस समय घाट पर लोगों का मेला लगा हुआ था। आदमियों की भीड़ से समुद्र का पानी काला हो गया था। समुद्र के किनारे कंधों से कंधे छिल रहे थे। अधिकांश लोग दक्षिण भारत के थे। गहरे रंग की साड़ियाँ पहने बहुत-सी स्त्रियाँ भी थीं। वे सभी भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने के लिए आये हुए तीर्थ-यात्री थे।
मैं उनकी बगल से रेत पर चलते-चलते पूरब की तरफ बढ़ने लगा। हर जगह वही दृश्य था। हरेक बार पुरी आने पर मैंने एक ही किस्म का दृश्य देखा है। कहीं भी कोई फर्क नहीं पाया मैंने। उसके बाद जब काफी समय हो गया, तब मैं वापस होटल लौट आया।
होटल में और जो भी यात्री थे, सभी तब तक मन्दिर में देव-दर्शन के लिए चले गये थे। यहाँ यही नियम है कि तड़के चार बजे ही यात्री भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने के लिए चले जाते हैं। पुरी आकर मन्दिर में देव-दर्शन नहीं करना अपराध है।
मासी माँ तब तक बाजार से सौदा लेकर आ चुकी थी। वह अपने दैनन्दिन कामों में व्यस्त हो गयी। होटल की छत पर एक छोटा-सा कमरा था। यद्यपि वह मकान एकतल्ला था, लेकिन नीचे से ही मैं देख सका था कि ऊपर छत पर एक कमरा बना हुआ था। मैं समझ गया कि उसी कमरे में मासी माँ रात को सोती है।
बेचारी विधवा औरत थी। फिर भी उसका स्वास्थ्य अच्छा था। लेकिन हठात् बरामदे की दीवार पर टँगी एक तस्वीर देखकर मैं अवाक् रह गया। एक अधेड़ पुरुष का फोटो था। खूब ही कीमती फ्रेम था। तस्वीर के ऊपर एक माला झूल रही थी। देखने पर ऐसा लगा कि फूलों की माल मानो अभी-अभी ही लगायी गयी हो।
मैं अचरज से उस तस्वीर की तरफ ही देखता रहा। मुझे एकटक देखते हुए देखकर मासी माँ ने मुझसे पूछा-क्या देख रहे हो भाई ?
मैंने कहा-उस फोटो को ही देख रहा हूँ।
यह कह कर उसने तस्वीर की ओर देखते हुए हाथ जोड़कर नमस्कार किया।
उसने फिर कहा-मेरे पतिदेव बड़े ही भले आदमी थे।
लेकिन मेरे ताज्जुब का कारण तो कुछ और ही था।
मैंने पूछा-मौसा जी क्या किया करते थे ?
मासी माँ ने कहा-मेरे पतिदेव रेलवे में नौकरी करते थे।
साथ ही साथ मुझे गोलक मजूमदार की सारी बातें याद आने लगीं।
वही गोलक ! गोलक मजूमदार..। मैं उसके साथ रेवले के ऑफिस में एक ही टेबुल पर काम किया करता था। वही गोलक मजूमदार इस मासी माँ का पति ?
और फिर..
और फिर मैं तो यह जानता नहीं था।
गोलक मजूमदार के साथ लगभग बारह साल तक मैंने एक साथ आमने-सामने बैठकर नौकरी की है। उस समय मैंने देखा था कि गोलक अपने काम में बहुत निपुण था। वह जल्दी-जल्दी फाइलें निपटा देता था।
हम लोगों के रोबिन्सन साहब गोलक मजूमदार को बहुत चाहते थे।
चपरासी को भेजकर साहब गोलक को बुलवाते। गोलक हड़बड़ी में दौड़ते हुए साहब के चेम्बर में जाता।
रोबिन्सन साहब कहते-गोलक..।
गोलक कहता-यस सर !
हाथ का एक कागज गोलक की तरफ बढ़ाते हुए साहब कहते- यह स्टेटमेंट क्या तुम बना सकोगे ? तुम्हारे सिवाय और किसी पर मुझे भरोसा नहीं हो पा रहा है। कब तक तुम यह स्टेटमेंट तैयार करके दे सकोगे, बोलो तो ?
गोलक पूछता-क्या आज ही यह स्टेटमेंट तैयार कर देना होगा सर ?
साहब कहते-नहीं, अब तो चार बज गये हैं। छुट्टी होने में सिर्फ एक घंटा बाकी है। आज तो तुम इसे पूरा नहीं कर सकोगे। कल फर्स्ट आवर में दे देने पर ही काम चल जायेगा। लगभग बारह बजे तक दे देने पर बहुत अच्छा होगा। यह स्टेटमेंट रेलवे बोर्ड को भेजना है।
-ठीक है, सर। मैं कल बारह बजे तक यह स्टेंटमेंट आपको जरूर दे दूँगा।
किन्तु गोलक मुँह का बड़ा मीठा था। अपने इसी गुण के कारण गोलक मजूमदार अपने सभी बड़े अफसरों का बड़ा ही चहेता बन गया था।
साहब के चेम्बर से लौट कर गोलक मजूमदार मुझसे कहता—मित्तिर, बड़ी मुसीबत में पड़ गया हूँ भाई।
मैं पूछता-कैसी मुसीबत ?
गोलक मजूमदार कहता-अरे भाई, साहब ने मुझे यह स्टेटमेंट बनाने के लिए दिया है।
मैं पूछता-साहब को यह स्टेटमेंट कब चाहिए ?
गोलक कहता-कल दिन के ग्यारह बजे तक। इस समय घड़ी में चार बज रहे हैं। कब यह स्टेटमेंट बनाऊँ, बताओ तो भाई ?
-कैसा स्टेटमेंट है, जरा देखूँ तो ?
मैंने देखा कि आखिरकार खूब जल्दबाजी करने पर भी चार घंटे से कम में स्टेटमेंट नहीं बनाया जा सकता।
गोलक मजूमदार मेरे दोनों हाथ जकड़ कर पकड़ लेता।
कहता-भाई मित्तिर, तुम जरा हाथ लगाओगे क्या ? मैं तुम्हें कल कैण्टीन में एक प्लेट मांस और पराँठे खिलाऊँगा। मेरी जरा जान बचाओ भाई....
मैं थोड़ा परेशान हो जाता। गोलक मजूमदार से जान छुड़ाना मुश्किल था। मुझे मांस-चप-कटलेट खिला कर गोलक ने कितनी ही बार अपना काम करवा लिया था और खुद साहब के पास वाह-वाही लूटी थी।
गोलक कहता- कर दोगे यह काम भाई ? तुम वादा कर रहे हो तो ?
मैं कहता-सो अभी भी तो छुट्टी होने में एक घंटे का समय बाकी है ! तुम तब तक खुद भी हाथ लगाओ न।
गोलक मजूमदार कहता-अरे, तब तो कोई बात ही नहीं थी ! मुझे श्यामबाजार में एक जरूरी काम है। मैं अभी ही गोल हो जाना चाहता हूँ...
-श्यामबाजार में तुम्हें फिर ऐसा कौन-सा जरूरी काम पड़ गया ?
गोलक मजूमदार कहता-अरे, तुमने तो अभी घर बसाया नहीं।
घर-संसार के झंझट-झमेलों को भला तुम कैसे समझोगे ?...तुम्हारी भाभी के साथ मुझे श्यामबाजार में एक सिनेमा देखना होगा। वहाँ न जाने कौन-सी एक नयी पिक्चर लगी है।
मैं चुप रहता। कुछ भी कह नहीं पाता।
वैसे कहा जाए तो गोलक दा ने मुझे हाथ पकड़कर कलम चलाना सिखया था। मैं जब ऑफिस में नया-नया आया था, उस समय मैं काम-काज के मामले में बिलकुल कोरा था।
उसी गोलक दा ने ही मुझसे कहा था-मन लगाकर काम करना भाई। काम ही है लक्ष्मी। यह आज मुझे देख रहे हो न ! हरेक काम में साहब मुझे ही बुलाते हैं। कारण यह है कि मैं काम जानता हूँ। बड़े बाबू हैं तथा और भी दूसरे लोग हैं। फिर भी मेरे सिवाय और किसी को भी साहब बुलायेंगे नहीं। देख लेना...।
सचमुच गोलक दा काम में बहुत पक्का था।
सो उस दिन शाम के पाँच बज गये। और सभी दफ्तर से चले गये।
दो-एक लोगों ने पूछा-क्यों जी, तुम अब तक बैठे हुए ही हो ?
मैंने कहा-मैं गोलक दा का काम कर रहा हूँ।
एक ने कहा-तो तुम गोलक के चक्कर में पड़े हो ? देखना, यह गोलक तुम्हें ले डूबेगा !
न जाने क्यों, ऑफिस के लोगों में से किसी को भी गोलक मजूमदार के बारे में अच्छी धारणा नहीं थी।
मैंने रात नौ बजे तक ऑफिस में काम करते-करते स्टेटमेंट तैयार कर डाला। उसके बाद कागज-पत्तर दराज में रख कर चाबी लगा कर मैं अपने घर लौट आया।
दूसरे दिन मैं ठीक साढ़े दस बजे ऑफिस में जा पहुँचा। किन्तु गोलक दा तब तक वहाँ कहीं भी दिखाई नहीं पड़ा। आधे घंटे के बाद जब दौड़ते-दौड़ते वह आया, तब मैंने देखा कि उसका चेहरा-मोहरा बिलकुल भूत की तरह हो गया था।
मैंने पूछा-यह क्या गोलक दा ? यह तुमने कैसी सूरत बना रखी है ?
गोलक दा ने कहा-तुम्हारी भाभी की तबीयत बहुत खराब है भाई। कल रात-भर उसकी देख-भाल करने के कारण एक मिनट के लिए भी नहीं सो सका। पूरी रात आँखों में कटी है।
मैंने पूछा-भाभी जी को क्या हो गया था ?
-अरे भाई, तुम्हारी भाभी जो-सो चीजें खायेंगी और उसका नतीजा भुगतना होगा मुझे। आधी रात में दौड़ कर डॉक्टर के पास गया और उन्हें बुला कर लाया। उसके बाद दवा खाने पर दर्द कुछ कम हुआ। जब रात के चार बज गये, उस समय जरा आँखें लग गयीं। सो ऐसी नींद आयी कि जब नींद टूटी, उस समय दिन के दस बज चुके थे। तो फिर न तो नहाने का समय मिला और न ही भात खाने का। बिछौने से उठकर सीधे ऑफिस चला आया हूँ !
-क्या बिलकुल ही खाये बिना चले आये हो ?
गोलक दा ने कहा-आता नहीं क्या ? साहब ने बारह बजे तक स्टेटमेंट माँगा था। यह बात याद आ गयी। इसीलिए दौडा आया हूँ।
-तो फिर आज पूरे दिन का उपवास रहेगा क्या ?
-अरे, नहीं रे। उपवास क्यों होगा ? कैण्टीन में जाकर कचौडी और समोसे खा लूँगा।
-और घर पर ? घर पर खाना कौन बनायेगा ?
गोलक दा ने कहा-आज घर में खाना नहीं बनेगा।
मैंने कहा-खाना नहीं बनने पर काम कैसे चलेगा ? भाभी जी क्या खायेंगी ?
गोलक दा ने कहा-मैं शाम को जब घर जाऊँगा, तब मैं खुद ही खाना पकाऊँगा।
-क्या तुम खाना पका सकते हो ?
गोलक दा ने कहा-अरे, महीने में पन्द्रह दिन तो मैं ही खाना पकाता हूँ। मैं दाल-भात तरकारी और मांस-मछली सभी कुछ पका सकता हूँ। मेरे हाथ का बना खाना खाने पर कोई भी उसे भूल नहीं सकेगा। तुम्हें भी मैं एक दिन खिलाऊँगा। उस समय तुम देख पाओगे मेरे हाथ की करामात...
इस बीच मानो उसे काम की बात याद आ गयी।
उसने कहा-छोडो भी। अच्छा, मेरे स्टेटमेंट का क्या हुआ ?
सच पूछिए तो कहानी का अन्त ही असल चीज होती है। कहानी के अन्त के बारे में बगैर सोचे लिखने का यही नतीजा होता है।
मैंने एक प्रसिद्ध लेखक से एक बार पूछा था-आप क्या कहानी का अन्त पहले ही सोच कर लिखना शुरू करते हैं ?
उन्होंने जवाब दिया-नहीं।
मैंने उनसे प्रश्न किया था-क्यों ? कहानी का अन्त सोचे बगैर आप पाठकों को बाँध कर रख कैसे सकेंगे ? कहानी की चाबी तो कहानी के अन्त में ही रहती है। कहानी की शुरूआत के समय जो गिरह आप बांध देंगे, उस गिरह को तो आखिरकार आपको खोलना ही होगा। पहले से सारी योजना बना लेने पर ही तो आप कहानी का अन्त करते समय उस गिरह को खोल सकेंगे।
उस प्रसिद्ध लेखक ने जबाव में कहा था-जिन्दगी कोई फारमूला तो है नहीं भाई। पहले से ही कहानी का अन्त सोच कर लिखने पर तो कहानी फारमूला बन जाएगी...।
मैंने कहा था-किन्तु सारा विश्व-ब्रह्मांड भी तो किसी फारमूले पर ही चल रहा है। सूरज हर रोज नियम पूर्वक शाम को पश्चिम के आकाश में डूब जाता है। नियम के अनुसार ही जाड़ा पड़ता है, गर्मी पड़ती है और वर्षा होती है। समस्त विश्व-सृष्टि की सभी चीजों के बीच जब यही नियम है, तो फिर कहानी की रचना में ही भला यह नियम क्यों नहीं लागू होगा ?
सो जिसकी जैसी मर्जी हो, वह उसी तरह लिखे ! इसमें भला मेरा क्या बनता-बिगड़ता है ? कहानी में एक आरम्भ होगा ही, एक मध्य होगा ही और अनिवार्य रूप से एक अन्त भी होगा ही। यही है मेरा नियम।
उस लेखक का नाम तो मैं लूँगा नहीं, किन्तु पूछना चाहूँगा कि कहाँ खो गया वह प्रसिद्ध लेखक ? उस लेखक का नाम बताने पर अब कोई पहचान भी नहीं पायेगा। उस पर मजा यह कि वह प्रसिद्ध लेखक आज भी इस धरा-धाम पर जीता-जागता मौजूद है।
लेकिन यह तो हुई भूमिका, जिसे दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है गौरचन्द्रिका !
मेरी यह कहानी जो पढ़ रहे है, वे इन पंक्तियों को न भी पढ़ें तो कोई हर्ज नहीं। इसका कारण यह है कि अभी कहानी शुरू ही नहीं हुई है। लीजिए, अब कहानी शुरू होती है...ठीक वहीं से, जब कि मैं पुरी गया था।
ऐसा कोई भी बंगाली नहीं होगा जो दो-एक बार पुरी न गया हो।
पुरी ऐसी एक जगह है, जो कभी भी पुरानी नहीं होती। मैं वहाँ पन्द्रह-सोलह बार गया हूँ। स्वर्गद्वार के बड़े-बड़े होटलों से शुरू कर छोटे प्राइवेट होटलों तक में मैं ठहरा हूँ। कहीं रोज का किराया है पचहत्तर रुपये तो कहीं आदमी पीछे रोज का किराया है मात्र दो रुपये।
उस बार मैं एक ऐसी होटल में जा पहुँचा, जिसका कोई साइनबोर्ड तक नहीं था। लोगों में उस होटल का जो नाम प्रचलित था, वह था-मासी माँ की होटल।
मासी माँ के होटल का ठिकाना मेरे एक दोस्त ने दिया था। वहाँ रहने और खाने का खर्च जिस तरह कम है, व्यक्तिगत देखभाल उतनी ही अधिक सुलभ है।
छोटी पतली गली के बीच में एक एकतल्ला मकान है। उस मकान में सात या आठ कमरे हैं। होटल की देखभाल करती है एक महिला। उसे सभी मासी माँ कहकर पुकारते हैं। उसका नाम क्या है, वह आज तक कोई भी नहीं जानता।
वह महिला खुद अपने हाथों से खाना पकाती और अपने सामने बैठा कर होटल में टिकने वाले हरेक यात्री को खिलाया करती। वह जोर-जबर्दस्ती आपको भर-पेट खिलायेगी ही। जब तक आप आपत्ति नहीं करेंगे, तब तक वह आपको आग्रह कर-करके खिलायेगी।
मैं स्टेशन से जब रिक्शे पर बैठकर उस ठिकाने पर पहुँचा, तब तक वह रिक्शावाला भी नहीं जानता था कि वह एक होटल है। इसकी वजह यह है कि होटल के बाहर कोई भी साइनबोर्ड नहीं है। किसी तरह के आडम्बर या टीम-टाम का तो सवाल ही नहीं उठता। सिर्फ उस मकान के सामने तुलसी का एक बड़ा-सा पौधा लगा हुआ था। तुलसी के पौधे के नीचे एक वेदी बनी हुई थी। देखते ही पता चलता था कि किसी ने सुबह फूल-बेलपत्र से तुलसी की पूजा की होगी। इसका कारण यह कि तुलसी के पौधे के नीचे कुछ गेंदा फूल और बेलपत्र पड़े हुए थे। और तुलसी के पौधे के तने पर सिन्दूर जगह-जगह पर उस समय तक लगा हुआ था। तुलसी के पौधे की पूजा किये बिना इस तरह सिन्दूर कैसे लग सकता था तथा नीचे फूल और बेलपत्र पड़े कैसे रह सकते थे।
रिक्शावाले ने ही मेरे सूटकेस और होल्ड-ऑल को भीतर रख दिया।
मेरे आने की खबर पाते ही एक अधेड़ महिला हड़बड़ी में मेरे सामने आ धमकी। उसने पूछा-कहां से आ रहे हैं भाई आप ?
मैंने कहा-कलकत्ते से आ रहा हूँ।
उस महिला ने पूछा-मेरा ठिकाना कहाँ से मिला आपको ?
मैंने कहा-कलकत्ते में मेरा एक दोस्त है, उसी के पास से।
-उसका नाम क्या है ?
मैंने जवाब दिया-महेश ! महेश चौधरी...।
उस महिला को सब कुछ याद आ गया। उसने कहा, हाँ, वे बहुत ही बढ़िया आदमी हैं। मुझे अच्छी तरह याद है। यही पाँच-छह महीने पहले वे आकर मेरे ही होटल में रुके थे।
मैंने कहा-हाँ, उसके मुँह से मैंने आपकी बहुत तारीफ सुनी है। इसीलिए इस बार मैं आपके होटल में आया हूँ।
उस महिला ने कहा-तब तो आप सभी कुछ जानते हैं।
मैंने कहा-हाँ, मैं सब कुछ जानता हूँ।
उसने कहा-आप सुबह ट्रेन से उतरे हैं, चाय-वाय कुछ भी तो अभी कंठ से नीचे नहीं उतरी होगी। पहले आपके लिए चाय बना देती हूँ। लेकिन चाय के साथ आप क्या लेंगे ? दो पराँठे और आलू-भाजा बना दूँ क्या ?
मैंने कहा-नहीं-नहीं वह सब कुछ भी नहीं करना होगा। सिर्फ चाय बनाना ही काफी होगा।
वह महिला लेकिन बड़ी हठीली थी।
उसने कहा-ऐसा भी भला कहीं होता है ? क्या किसी भले आदमी को सिर्फ चाय दी जा सकती हैं ? मैं अपने हाथ से तो किसी को कोरी चाय नहीं दे सकती। उसके पहले आप उस नल के नीचे जाकर हाथ-मुँह धो लीजिए।
उसके बाद उसने पूछा-कौन सा कमरा आप लेंगे, बताइए। दो कमरे इस वक्त खाली हैं।
मैंने कहा-जैसा आप ठीक समझें। मुझे किसी भी कमरे में ठहरने में कोई आपत्ति नहीं है।
उस महिला ने कहा-मेरा मकान बढ़िया नहीं है। किसी भी कमरे में आपको समुद्र की हवा नहीं मिल सकेगी।
मैंने कहा-मुझे सब कुछ मालूम है। महेश मुझे सब कुछ बता चुका है।
मैंने दो खाली कमरों में से एक को पसन्द कर लिया। कमरे के भीतर एक तख्त था, एक छोटी टेबुल थी और थी एक बगैर हत्थे की कुर्सी।
मैंने कहा-मैं तो कमरे में सिर्फ रात में रहूँगा। और बाकी सारा दिन बाहर बिताऊँगा-समुद्र के तट पर या फिर जगन्नाथ स्वामी के मन्दिर में। रात में वापस आकर खाऊँगा और सो जाऊँगा।
उस महिला ने पूछा-रात में आप क्या खाते हैं भाई ? भात या रोटी ?
मैंने कहा-जैसी आपकी मर्जी हो..। मेरी कोई अपनी पसन्द नहीं है। जो कुछ तैयार करने में आपको मुश्किल नहीं होगी, वही बना दीजिएगा।
यह कहकर मैं समुद्र की तरफ निकल पड़ा। समुद्र मासी माँ के होटल से कुछ दूर था। गली के रास्ते से जाने पर करीब दस मिनट के बाद समुद्र दिखाई पड़ने लगा।
वहां जाकर मैंने देखा कि उस समय घाट पर लोगों का मेला लगा हुआ था। आदमियों की भीड़ से समुद्र का पानी काला हो गया था। समुद्र के किनारे कंधों से कंधे छिल रहे थे। अधिकांश लोग दक्षिण भारत के थे। गहरे रंग की साड़ियाँ पहने बहुत-सी स्त्रियाँ भी थीं। वे सभी भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने के लिए आये हुए तीर्थ-यात्री थे।
मैं उनकी बगल से रेत पर चलते-चलते पूरब की तरफ बढ़ने लगा। हर जगह वही दृश्य था। हरेक बार पुरी आने पर मैंने एक ही किस्म का दृश्य देखा है। कहीं भी कोई फर्क नहीं पाया मैंने। उसके बाद जब काफी समय हो गया, तब मैं वापस होटल लौट आया।
होटल में और जो भी यात्री थे, सभी तब तक मन्दिर में देव-दर्शन के लिए चले गये थे। यहाँ यही नियम है कि तड़के चार बजे ही यात्री भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने के लिए चले जाते हैं। पुरी आकर मन्दिर में देव-दर्शन नहीं करना अपराध है।
मासी माँ तब तक बाजार से सौदा लेकर आ चुकी थी। वह अपने दैनन्दिन कामों में व्यस्त हो गयी। होटल की छत पर एक छोटा-सा कमरा था। यद्यपि वह मकान एकतल्ला था, लेकिन नीचे से ही मैं देख सका था कि ऊपर छत पर एक कमरा बना हुआ था। मैं समझ गया कि उसी कमरे में मासी माँ रात को सोती है।
बेचारी विधवा औरत थी। फिर भी उसका स्वास्थ्य अच्छा था। लेकिन हठात् बरामदे की दीवार पर टँगी एक तस्वीर देखकर मैं अवाक् रह गया। एक अधेड़ पुरुष का फोटो था। खूब ही कीमती फ्रेम था। तस्वीर के ऊपर एक माला झूल रही थी। देखने पर ऐसा लगा कि फूलों की माल मानो अभी-अभी ही लगायी गयी हो।
मैं अचरज से उस तस्वीर की तरफ ही देखता रहा। मुझे एकटक देखते हुए देखकर मासी माँ ने मुझसे पूछा-क्या देख रहे हो भाई ?
मैंने कहा-उस फोटो को ही देख रहा हूँ।
यह कह कर उसने तस्वीर की ओर देखते हुए हाथ जोड़कर नमस्कार किया।
उसने फिर कहा-मेरे पतिदेव बड़े ही भले आदमी थे।
लेकिन मेरे ताज्जुब का कारण तो कुछ और ही था।
मैंने पूछा-मौसा जी क्या किया करते थे ?
मासी माँ ने कहा-मेरे पतिदेव रेलवे में नौकरी करते थे।
साथ ही साथ मुझे गोलक मजूमदार की सारी बातें याद आने लगीं।
वही गोलक ! गोलक मजूमदार..। मैं उसके साथ रेवले के ऑफिस में एक ही टेबुल पर काम किया करता था। वही गोलक मजूमदार इस मासी माँ का पति ?
और फिर..
और फिर मैं तो यह जानता नहीं था।
गोलक मजूमदार के साथ लगभग बारह साल तक मैंने एक साथ आमने-सामने बैठकर नौकरी की है। उस समय मैंने देखा था कि गोलक अपने काम में बहुत निपुण था। वह जल्दी-जल्दी फाइलें निपटा देता था।
हम लोगों के रोबिन्सन साहब गोलक मजूमदार को बहुत चाहते थे।
चपरासी को भेजकर साहब गोलक को बुलवाते। गोलक हड़बड़ी में दौड़ते हुए साहब के चेम्बर में जाता।
रोबिन्सन साहब कहते-गोलक..।
गोलक कहता-यस सर !
हाथ का एक कागज गोलक की तरफ बढ़ाते हुए साहब कहते- यह स्टेटमेंट क्या तुम बना सकोगे ? तुम्हारे सिवाय और किसी पर मुझे भरोसा नहीं हो पा रहा है। कब तक तुम यह स्टेटमेंट तैयार करके दे सकोगे, बोलो तो ?
गोलक पूछता-क्या आज ही यह स्टेटमेंट तैयार कर देना होगा सर ?
साहब कहते-नहीं, अब तो चार बज गये हैं। छुट्टी होने में सिर्फ एक घंटा बाकी है। आज तो तुम इसे पूरा नहीं कर सकोगे। कल फर्स्ट आवर में दे देने पर ही काम चल जायेगा। लगभग बारह बजे तक दे देने पर बहुत अच्छा होगा। यह स्टेटमेंट रेलवे बोर्ड को भेजना है।
-ठीक है, सर। मैं कल बारह बजे तक यह स्टेंटमेंट आपको जरूर दे दूँगा।
किन्तु गोलक मुँह का बड़ा मीठा था। अपने इसी गुण के कारण गोलक मजूमदार अपने सभी बड़े अफसरों का बड़ा ही चहेता बन गया था।
साहब के चेम्बर से लौट कर गोलक मजूमदार मुझसे कहता—मित्तिर, बड़ी मुसीबत में पड़ गया हूँ भाई।
मैं पूछता-कैसी मुसीबत ?
गोलक मजूमदार कहता-अरे भाई, साहब ने मुझे यह स्टेटमेंट बनाने के लिए दिया है।
मैं पूछता-साहब को यह स्टेटमेंट कब चाहिए ?
गोलक कहता-कल दिन के ग्यारह बजे तक। इस समय घड़ी में चार बज रहे हैं। कब यह स्टेटमेंट बनाऊँ, बताओ तो भाई ?
-कैसा स्टेटमेंट है, जरा देखूँ तो ?
मैंने देखा कि आखिरकार खूब जल्दबाजी करने पर भी चार घंटे से कम में स्टेटमेंट नहीं बनाया जा सकता।
गोलक मजूमदार मेरे दोनों हाथ जकड़ कर पकड़ लेता।
कहता-भाई मित्तिर, तुम जरा हाथ लगाओगे क्या ? मैं तुम्हें कल कैण्टीन में एक प्लेट मांस और पराँठे खिलाऊँगा। मेरी जरा जान बचाओ भाई....
मैं थोड़ा परेशान हो जाता। गोलक मजूमदार से जान छुड़ाना मुश्किल था। मुझे मांस-चप-कटलेट खिला कर गोलक ने कितनी ही बार अपना काम करवा लिया था और खुद साहब के पास वाह-वाही लूटी थी।
गोलक कहता- कर दोगे यह काम भाई ? तुम वादा कर रहे हो तो ?
मैं कहता-सो अभी भी तो छुट्टी होने में एक घंटे का समय बाकी है ! तुम तब तक खुद भी हाथ लगाओ न।
गोलक मजूमदार कहता-अरे, तब तो कोई बात ही नहीं थी ! मुझे श्यामबाजार में एक जरूरी काम है। मैं अभी ही गोल हो जाना चाहता हूँ...
-श्यामबाजार में तुम्हें फिर ऐसा कौन-सा जरूरी काम पड़ गया ?
गोलक मजूमदार कहता-अरे, तुमने तो अभी घर बसाया नहीं।
घर-संसार के झंझट-झमेलों को भला तुम कैसे समझोगे ?...तुम्हारी भाभी के साथ मुझे श्यामबाजार में एक सिनेमा देखना होगा। वहाँ न जाने कौन-सी एक नयी पिक्चर लगी है।
मैं चुप रहता। कुछ भी कह नहीं पाता।
वैसे कहा जाए तो गोलक दा ने मुझे हाथ पकड़कर कलम चलाना सिखया था। मैं जब ऑफिस में नया-नया आया था, उस समय मैं काम-काज के मामले में बिलकुल कोरा था।
उसी गोलक दा ने ही मुझसे कहा था-मन लगाकर काम करना भाई। काम ही है लक्ष्मी। यह आज मुझे देख रहे हो न ! हरेक काम में साहब मुझे ही बुलाते हैं। कारण यह है कि मैं काम जानता हूँ। बड़े बाबू हैं तथा और भी दूसरे लोग हैं। फिर भी मेरे सिवाय और किसी को भी साहब बुलायेंगे नहीं। देख लेना...।
सचमुच गोलक दा काम में बहुत पक्का था।
सो उस दिन शाम के पाँच बज गये। और सभी दफ्तर से चले गये।
दो-एक लोगों ने पूछा-क्यों जी, तुम अब तक बैठे हुए ही हो ?
मैंने कहा-मैं गोलक दा का काम कर रहा हूँ।
एक ने कहा-तो तुम गोलक के चक्कर में पड़े हो ? देखना, यह गोलक तुम्हें ले डूबेगा !
न जाने क्यों, ऑफिस के लोगों में से किसी को भी गोलक मजूमदार के बारे में अच्छी धारणा नहीं थी।
मैंने रात नौ बजे तक ऑफिस में काम करते-करते स्टेटमेंट तैयार कर डाला। उसके बाद कागज-पत्तर दराज में रख कर चाबी लगा कर मैं अपने घर लौट आया।
दूसरे दिन मैं ठीक साढ़े दस बजे ऑफिस में जा पहुँचा। किन्तु गोलक दा तब तक वहाँ कहीं भी दिखाई नहीं पड़ा। आधे घंटे के बाद जब दौड़ते-दौड़ते वह आया, तब मैंने देखा कि उसका चेहरा-मोहरा बिलकुल भूत की तरह हो गया था।
मैंने पूछा-यह क्या गोलक दा ? यह तुमने कैसी सूरत बना रखी है ?
गोलक दा ने कहा-तुम्हारी भाभी की तबीयत बहुत खराब है भाई। कल रात-भर उसकी देख-भाल करने के कारण एक मिनट के लिए भी नहीं सो सका। पूरी रात आँखों में कटी है।
मैंने पूछा-भाभी जी को क्या हो गया था ?
-अरे भाई, तुम्हारी भाभी जो-सो चीजें खायेंगी और उसका नतीजा भुगतना होगा मुझे। आधी रात में दौड़ कर डॉक्टर के पास गया और उन्हें बुला कर लाया। उसके बाद दवा खाने पर दर्द कुछ कम हुआ। जब रात के चार बज गये, उस समय जरा आँखें लग गयीं। सो ऐसी नींद आयी कि जब नींद टूटी, उस समय दिन के दस बज चुके थे। तो फिर न तो नहाने का समय मिला और न ही भात खाने का। बिछौने से उठकर सीधे ऑफिस चला आया हूँ !
-क्या बिलकुल ही खाये बिना चले आये हो ?
गोलक दा ने कहा-आता नहीं क्या ? साहब ने बारह बजे तक स्टेटमेंट माँगा था। यह बात याद आ गयी। इसीलिए दौडा आया हूँ।
-तो फिर आज पूरे दिन का उपवास रहेगा क्या ?
-अरे, नहीं रे। उपवास क्यों होगा ? कैण्टीन में जाकर कचौडी और समोसे खा लूँगा।
-और घर पर ? घर पर खाना कौन बनायेगा ?
गोलक दा ने कहा-आज घर में खाना नहीं बनेगा।
मैंने कहा-खाना नहीं बनने पर काम कैसे चलेगा ? भाभी जी क्या खायेंगी ?
गोलक दा ने कहा-मैं शाम को जब घर जाऊँगा, तब मैं खुद ही खाना पकाऊँगा।
-क्या तुम खाना पका सकते हो ?
गोलक दा ने कहा-अरे, महीने में पन्द्रह दिन तो मैं ही खाना पकाता हूँ। मैं दाल-भात तरकारी और मांस-मछली सभी कुछ पका सकता हूँ। मेरे हाथ का बना खाना खाने पर कोई भी उसे भूल नहीं सकेगा। तुम्हें भी मैं एक दिन खिलाऊँगा। उस समय तुम देख पाओगे मेरे हाथ की करामात...
इस बीच मानो उसे काम की बात याद आ गयी।
उसने कहा-छोडो भी। अच्छा, मेरे स्टेटमेंट का क्या हुआ ?
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