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पुराण एवं उपनिषद् >> क्या कहते हैं पुराण

क्या कहते हैं पुराण

महेश शर्मा

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 324
आईएसबीएन :81-288-0636-x

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हिन्दू धर्म के आधार अठारह पुराणों का सार संक्षेप।

Kya Kahte Hain Puran - A Hindi Book by - Mahesh Sharma क्या कहते हैं पुराण - महेश शर्मा

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दू धर्मग्रंथ पुराण-विश्व साहित्य की अमूल्य निधि है। विषय निर्वासन, तथ्यों का निरूपण, वर्णन शैली का संयत और स्वाभाविक रूप, भाषा का सौष्ठव और लालित्य आदि जितने गुण पुराण में भर दिए गए हैं, उन्हें देखकर ‘गागर में सागर’ की उक्ति का स्मरण हो आता है।
पुराण हमारे जीवन के ऐसे दर्पण हैं-जिनमें हम अपने प्रत्येक युग की तस्वीर देख सकते हैं, हम जिन देवी देवताओं की पूजा अर्चना करते हैं उनकी उत्पत्ति और विशेषताओं के बारे में जान सकते हैं ब्रह्माण्ड के प्रथम मनुष्य-‘मनु’ के बारे में जान सकते हैं, जिसकी हम सभी संतानें हैं। विभिन्न मन्वंतरों (काल खण्डों) के विषय में पुराणों में व्यापक जानकारी दी गई है जो शिक्षाप्रद ही नहीं, रोचक और रोमांचक भी है। एक दूसरे से जुड़े कथा-प्रसंग प्रत्येक युग की वास्तविक तस्वीर खींचते हैं-जिन्हें हम किसी चलचित्र की भाँति देख-पढ़ सकते हैं।

हम यह नहीं कहते कि सभी पुराण अथवा उनकी विषय वस्तु उच्चकोटि की, उपयोगी और निर्दोष हैं। अन्य प्राचीन ग्रंथों की भाँति पुराणों में भी समय-समय पर काफी मिलावट की गई है। विदेशी आक्रमणों के समय उनमें से अनेक नष्ट हो गए और यहाँ-वहाँ से सामग्री संग्रह करके उन्हें पुनः प्रस्तुत किया गया। उनमें अनेक परिवर्तन, परिवर्द्धन होते रहे। अनेक स्वार्थीजन ने उनमें अपने लाभ की दृष्टि से तीर्थ, दान आदि की महिमा अप्रासंगिक रूप से भर दी। कहीं श्राद्धों का विशाल, विविध विधान ही शामिल कर दिया। इनमें बहुसंख्यक अनावश्यक और अनुपयोगी-दूषित विषय भी शामिल कर दिए गए, लेकिन इस आधार पर इनका बहिष्कार सर्वथा अनुचित है। इसमें हमारे महत्त्व की अनेक बातें समाहित हैं। वस्तुतः हमारा सम्पूर्ण जीवनदर्शन, जन्म से मृत्यु तक के आख्यान, जीवन के आवश्यक क्रियाकलाप-सभी इन प्राचीन ग्रंथों पर ही आधारित हैं। इनके ज्ञान के अभाव में हम अपने सुचारू जीवन की कल्पना तक नहीं कर सकते। तभी तो कहा गया है-

‘‘यान् यान् कामानभिप्रेत्य पठेत्प्रचतमानसः।
तांस्तान् सर्वानवाप्नोति पुरुषो नात्र संशयः।।’’

अर्थात् जिन-जिन कामनाओं को मन में लेकर मनुष्य संयत चित्त से पुराणों का पाठ करते हैं, उन सबकी उन्हें प्राप्ति हो जाती है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
इसलिए, इन वृहत् पुराणों की विषय-वस्तु शिक्षाओं, धार्मिक मान्यताओं, व्रतों-त्योहारों, तीर्थों उनके माहात्म्य, अवतारों आदि को हमने एक ही पुस्तक के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, ताकि पाठकों को अठारह पुराणों के बारे में एक ही स्थान पर सारी सामग्री मिल जाए।
आशा है यह पुस्तक पाठकों के लिए शिक्षाप्रद, रोचक और उपयोगी सिद्ध होगी। अपनी प्रेरक प्रतिक्रियाओं और सुझावों से अवश्य अवगत् कराएँ।

महेश शर्मा

(प्रथम खण्ड : पुराण परिचय)
अध्याय 1

अर्थ

पुराण शब्द ‘पुरा’ एवं ‘अण’ शब्दों की संधि से उत्पन्न हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-‘पुराना’ अथवा ‘प्राचीन’। ‘पुरा’ शब्द का अर्थ है-अनागत एवं अतीत। ‘अण’ शब्द का अर्थ है-कहना या बताना। अर्थात् जो प्राचीन काल अथवा पूर्व काल अथवा अतीत के तथ्यों, सिद्धांतों, शिक्षाओं, नीतियों, नियमों और घटनाओं का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करे। ‘‘सृष्टि के रचनाकर्ता ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम जिस प्राचीनतम धर्मग्रंथ को प्रकट किया, उसे पुराण के नाम से जाना जाता है। इनकी रचना वेदों से पूर्व हुई थी, इसलिए ये पुराण-प्राचीन अथवा पुरातन कहलाते हैं।’’

पुराण का अस्तित्व सृष्टि के प्रारम्भ से है, इसलिए इन्हें सृष्टि के प्रथम और सबसे प्राचीनतम ग्रंथ होने का गौरव प्राप्त है। जिस प्रकार सूर्य प्रकाश का स्रोत है, उसी प्रकार पुराण को ज्ञान का स्रोत कहा जाता है। जहाँ सूर्य अपनी किरणों से रात्रि का अंधकार दूर कर चारों ओर उजाला कर देता है, वहीं पुराण ज्ञानरूपी किरणों से मनुष्य-मन के अंधकार को दूर कर उसे सत्य के प्रकाश से सराबोर कर देते हैं। यद्यपि पुराण अत्यंत प्राचीनतम ग्रंथ हैं तथापि इनका ज्ञान और शिक्षाएँ पुरानी नहीं हुई हैं, बल्कि आज के संदर्भ में उनका महत्त्व और भी बढ़ गया है। जब से जगत् की सृष्टि हुई है, तभी से यह जगत् पुराणों के सिद्धांतों, शिक्षाओं और नीतियों पर आधारित है।

विषय वस्तु

प्राचीनकाल से ही पुराण देवताओं, ऋषियों, मुनियों, मनुष्यों- सभी का मार्गदर्शन करते आ रहे हैं। पुराण उचित-अनुचित का ज्ञान करवाकर मनुष्य को धर्म एवं नीति के अनुसार जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित करते हैं। मनुष्य-जीवन की वास्तविक आधारशिला पुराण ही हैं। इनके अभाव में मनुष्य के अस्तित्व का ज्ञान असम्भव है। पुराण मनुष्य के शुभ-अशुभ कर्मों का विश्लेषण कर उन्हें दुष्कर्म करने से रोकते हैं। ये शाश्वत हैं, सत्य हैं और साक्षात् धर्म हैं।

पुराण वस्तुतः वेदों का ही विस्तार हैं, लेकिन वेद बहुत ही जटिल तथा शुष्क भाषा-शैली में लिखे गए हैं। अतः पाठकों के एक विशिष्ट वर्ग तक ही इनका रुझान रहा। संभवतः यही विचार करके वेदव्यास जी ने पुराणों की रचना और पुनर्रचना की होगी। अनेक बार कहा जाता है, ‘‘पूर्णात पुराण।’’ जिसका अर्थ है, जो वेदों का पूरक हो, अर्थात् पुराण (जो स्वयं वेदों की टीका हैं)। जो बात वेदों में जटिल भाषा में कही गई है पुराणों में उसे सरल भाषा में समझाया गया हैं।

पुराण-साहित्य में अवतारवाद को प्रतिष्ठित किया गया है। निर्गुण निराकार की सत्ता को स्वीकार करते हुए सगुण साकार की उपासना का प्रतिपादन इन ग्रंथों का मूल विषय है। पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र-बिन्दु बनाकर पाप और पुण्य धर्म और अधर्म तथा कर्म और अकर्म की गाथाएँ कही गई हैं। प्रेम, भक्ति, त्याग, सेवा, सहनशीलता आदि ऐसे मानवीय गुण हैं, जिनके अभाव में किसी भी उन्नत समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए पुराणों में देवी-देवताओं के विभिन्न स्वरूपों को लेकर मूल्य के स्तर पर एक विराट आयोजन मिलता है। एक बात और आश्चर्यजनक रूप से पुराणों में मिलती है। वह यह कि सत्यकर्म की प्रतिष्ठा की प्रक्रिया में अपकर्म और दुष्कर्म का व्यापक चित्रण करने में पुराणकार कभी पीछे नहीं हटा और उसने देवताओं की दुष्प्रवृत्तियों को भी विस्तृत रूप में वर्णित किया है। किंतु उसका मूल उद्देश्य सद्भावना का विकास और सत्य की प्रतिष्ठा ही है।

दिव्य प्रकाश स्तंभ

पुराण प्राचीनतम धर्मग्रंथ होने के साथ-साथ ज्ञान, विवेक, बुद्धि और दिव्य प्रकाश के स्तंभ हैं। इनमें हमें प्राचीनतम धर्म, चिंतन इतिहास, राजनीति, समाज शास्त्र तथा अन्य अनेक विषयों का विस्तृत विवेचन पढ़ने को मिलता है। इसमें सृष्टि रचना (सर्ग) क्रमिक विनाश तथा पुनर्रचना (प्रतिसर्ग), काल गणना अर्थात अनेक युगों (मन्वंतरों) की समय-सीमा, उनके अधिपति मनुओं, सूर्य वंश और चन्द्र वंश के सम्पूर्ण पौराणिक इतिहास, उनकी वंशावली तथा उन वंशों में उत्पन्न अनेक तेजस्वी राजाओं के चरित्रों का विस्तृत वर्णन मिलता है। ये पुराण समय के साथ बदलते जीवन की विभिन्न अवस्थाओं व पक्षों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये ऐसे प्रकाशगृह हैं जो वैदिक सभ्यता और सनातन धर्म को प्रदीप्त करते हैं। ये हमारी जीवन-शैली और विचारधारा पर भी महत्ती प्रभाव डालते हैं गागर में सागर भर देना अच्छे रचनाकार की पहचान होती है। किसी रचनाकार ने अठारह पुराणों के सार को एक ही श्लोक में व्यक्त कर दिया है :

परोपकाराय पुण्याय पापाय पर पीड़नम्।
अष्टादश पुराणानि व्यासस्य वचन द्वयं।

अर्थात् व्यास मुनि ने अठारह पुराणों में दो ही बातें मुख्यतः कही हैं कि परोपकार करना संसार का सबसे बड़ा पुण्य है और किसी को पीड़ा पहुँचाना सबसे बड़ा पाप है। इसलिए किसी व्यक्ति को दुःख या पीड़ा पहुँचाने के बजाए मनुष्य को अपना जीवन परोपकार के मार्ग में लगाना चाहिए।

अध्याय 2
पुराण और वेद : भिन्नताएँ

‘‘यद्यपि वेद और पुराण एक ही आदिपुरुष अर्थात् ब्रह्माजी द्वारा रचित हैं। इनमें वर्णित ज्ञान, आख्यानों तथ्यों, शिक्षाओं, नीतियों और घटनाओं आदि में एकरूपता है, तथापि वेद और पुराण एक-दूसरे से पूर्णता भिन्न हैं।’’
उपर्युक्त कथन को निम्नलिखित तथ्यों द्वारा सहज और सरल ढंग से समझा जा सकता है :
1. सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी ने पुराणों की रचना वेदों से पूर्व की है। पुराण वेदों का ही विस्तृत और सरल स्वरूप हैं। अर्थात् वेदों में जिस ज्ञान का संक्षिप्त रूप में वर्णन है, पुराणों में उसका विस्तृत उल्लेख किया गया है। अन्य शब्दों में ‘‘पुराण वेदों की अपेक्षा अधिक प्राचीन विस्तृत और ज्ञानवर्द्धक हैं।’’

2. वेद अपौरुषेय और अनादि हैं। अर्थात् इनकी रचना किसी मानव ने नहीं की है। जबकि पुराण अपौरुषेय और पौरुषेय दोनों प्रकार के कहे गए हैं। अर्थात् पुराण मानव-निर्मित न होने पर भी मानव-निर्मित हैं। उपर्युक्त कथन को पढ़कर पाठकगण अवश्य विस्मित होंगे। उनके अंतर्मन में यह जिज्ञासा अवश्य उत्पन्न होगी कि एक वस्तु मानव-निर्मित न होने पर भी मानव-निर्मित कैसे हो सकती है ? वास्तव में वर्तमान में हम जिन अठारह पुराणों का पठन, श्रवण या चिंतन करते हैं, वे एक ही पुराण के अठारह खण्ड हैं। सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी ने केवल एक ही पुराण की रचना की थी। यह पुराण अपौरुषेय था। इसमें लगभग एक अरब (सौ करोड़) श्लोक वर्णित थे। किंतु जनमानस के कल्याण और हित के लिए महर्षि वेद व्यास ने इस पुराण को अठारह खण्डों में विभाजित कर इसे सहज और सरल ढंग से प्रस्तुत किया। महर्षि वेदव्यास ने इन पुराणों में श्लोकों की संख्या केवल चार लाख तक सीमित कर दी। इस प्रकार ब्रह्माजी द्वारा रचित अपौरुषेय पुराण महर्षि वेदव्यास द्वारा अठारह खण्डों में विभक्त किए जाने के बाद पौरुषेय कहलाया। इसलिए पुराण अपौरुषेय और पौरुषेय दोनों प्रकार के कहे जाते हैं।

3. ब्रह्माजी द्वारा रचित वेदों में वर्णित वेद मंत्रों, धार्मिक कर्मकाण्डों और शिक्षाओं का अनुसरण करने वाले योगी पुरुष ऋषि कहलाए, जबकि पुराणों में वर्णित पौराणिक ज्ञान मंत्रों, उपासना विधि, व्रत आदि का अनुसरण करने वाले योगियों को मुनि कहा गया। ब्रह्माजी से श्रुतियों का ज्ञान प्राप्त कर ऋषियों ने उसे अर्थ प्रदान किया और समयानुसार संसार में प्रकट किया, जबकि मुनियों ने प्रवक्ता के रूप में उस ज्ञान को विस्तृत स्वरूप प्रदान किया। वेदों की अपेक्षा पुराण अधिक परिवर्तनशील और स्मृतिमूलक हैं, इसलिए समयानुसार इनमें अनेक परिवर्तन होते रहे हैं। परिवर्तनशील प्रवृत्ति होने के कारण ही पुराणों को इतिहास के अधिक निकटतम कहा गया है।

सभी पुराण कथोपकथन शैली में लिखे गए हैं, इसलिए संभवतः उनके मूल रूप में परिवर्तन होता गया। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि ये सभी पुराण विश्वास की उस पृष्ठभूमि पर अधिष्ठित हैं, जहाँ इतिहास भूगोल और विज्ञान का तर्क उतना महत्त्वपूर्ण नहीं होता जितना कि उनमें व्यक्त मानव-मूल्यों का। वस्तुतः इन पुराणों का महत्व तर्क पर आधारित है और इन्हीं अर्थों में इनका महत्त्व है।

अध्याय 3
पुराणों की संख्या

सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी ने केवल एक ही पुराण की रचना की थी। एक अरब श्लोकों से युक्त यह पुराण अत्यंत विशाल और दुष्कर था। पुराण में वर्णित ज्ञान और प्राचीन आख्यान देवताओं के अतिरिक्त साधारण जनमानस को भी सहज और सरल ढंग से प्राप्त हों, यही विचार करके महर्षि वेद व्यास ने इस वृहत पुराण को अठारह भागों में विभक्त किया था। इन पुराणों में वर्णित श्लोकों की कुल संख्या चार लाख है। महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित सभी अठारह पुराणों और उनमें वर्णित श्लोकों की संख्या नीचे दी जा रही हैं :

   पुराण                                     श्लोक संख्या
1.    ब्रह्म पुराण                            दस हज़ार
2.    पद्म पुराण                            पचपन हज़ार
3.    विष्णु पुराण                          तेईस हज़ार
4.    शिव पुराण                           चौबीस हज़ार
5.    श्रीमद् भागवत पुराण             अठारह हज़ार
6.    नारद पुराण                          पच्चीस हज़ार
7.    मार्कण्डेय पुराण                     नौ हज़ार
8.    अग्नि पुराण                            पन्द्रह हज़ार, चार सौ
9.    भविष्य पुराण                       चौदह हज़ार, पाँच सौ
10.    ब्रह्मवैवर्त पुराण                    अठारह हज़ार
11.    लिंग पुराण                          ग्यारह हज़ार
12.    वराह पुराण                       चौबीस हज़ार
13.    स्कंद पुराण                        इक्यासी हज़ार, एक सौ
14.    वामन पुराण                      दस हज़ार
15.    कूर्म पुराण                         सत्रह हज़ार
16.    मत्स्य पुराण                      चौदह हज़ार
17.    गरुड़ पुराण                       उन्नीस हज़ार  
18.    ब्रह्माण्ड पुराण                  बारह हज़ार


एक धारणा के अनुसार सभी मन्वंतरों के प्रत्येक द्वापर में भगवान विष्णु ही व्यास रूप में प्रकट होकर जनमानस के कल्याण के लिए इन अठारह पुराणों की रचना करते हैं। इन अठारह पुराणों के श्रवण और पठन से पापी मनुष्य भी पापरहित होकर पुण्य के भागी बनते हैं।


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