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कौन जीता कौन हारा

विष्णु प्रभाकर

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3308
आईएसबीएन :81-7016-031-6

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विष्णु प्रभाकर ने अपनी कुछ कथाओं को लघुकथा का रूप देकर इस पुस्तक में दी हैं...

Kaun Jita Kaun Hara

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


विष्णु प्रभाकर हिंदी में नाटक के क्षेत्र में विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न रचनाकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। बांग्ला उपन्यासकार शरतचन्द्र के जीवन पर ‘आवारा मसीहा’ के कृतित्व ने विष्णु जी को भारत के महान जीवनी कार के रूप में भी प्रस्तुत किया है।
विष्णु जी का जन्म 21 जून, 1912 को मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) के एक गाँव में हुआ था। बचपन हिसार में (हरियाणा) में गुजरा। वहीं शिक्षा प्राप्त की और सरकारी नौकरी से जिंदगी की शुरुआत की। कुछ दिन आकाश वाणी में अधिकारी भी रहे। कुछ समय पश्चात नौकरी छोड़ स्वतंत्र लेखन अपनाया मौलिक लेखन के अतिरिक्त उन्होंने साठ से अधिक पुस्तकों का संपादन किया। उनकी अनेक पुस्तकें पुरस्कृत हैं।

निवेदन


मेरी लघु रचनाओं का यह तीसरा संग्रह है। पहला संग्रह ‘जीवन पराग’ सन् 1963 में सत्ता साहित्य मण्डल, दिल्ली में प्रकाशित हुआ था। जैसा कि उसके नाम से स्पष्ट है उसमें जीवन के सभी उदात्त पक्षों  को उजागर करती छोटी-छोटी मार्मिक घटनाएँ थीं। वे सभी सत्य पर आधारित थीं परन्तु सत्य मात्र होने के कारण कोई रचना कहानी नहीं बन जाती,
इसलिए मैंने उन्हें लघुकथा कहकर रेखांकित नहीं किया था।

संयोग से उसी दशक में मैंने रेडियो के विदेश-विभाग के लिए भारत के पौराणिक साहित्य से चुन-चुन कर ऐसी कथाएँ सीमित शब्दों में लिखीं जो पाठकों को हमारी संस्कृति के विभिन्न रूपों की पहचान कराती थीं। स्पष्ट है वे भी नैतिक बोध की रचनाएँ थीं। उन्हें भी मैंने इस वर्ग में नहीं रखा है। ऐसे चार संग्रह आज भी बाजार में हैं। उन्हें और ‘जीवन पराग’ को भी, मैंने बाल-साहित्य के अन्तर्गत माना है।

लेकिन जब इधर लघुकथा का तथाकथित पुनर्जन्म या पुनर्मूल्यांकन हुआ और 1982 में ‘दिशा प्रकाशन’ दिल्ली से मेरी लघु रचनाओं का दूसरा संग्रह ‘आपकी कृपा है’ प्रकाशित हुआ तो अनेक कारणों से वह विवादास्पद बन गया। उसमें कुल 46 रचनाएँ थीं। लघुकथा के मर्मज्ञों ने उन्हें लघुकथाएँ मानने से इन्कार कर दिया। एक मर्मज्ञ ने स्पष्ट लिखा कि इनमें कुछ रचनाएँ अच्छी हैं, कुछ तो बहुत अच्छी हैं परन्तु ये लघुकथाएँ नहीं ही हैं। लेखक के पास वह भाषा नहीं है।
इस विवाद को लेकर मैं किसी बहस में नहीं पड़ना चाहता क्योंकि मैंने यह दावा किया ही नहीं कि मैं लघुकथाएँ लिखता हूँ। मैं तो सफल या असफल कहानीकार हूँ। उसके बाद मैंने नाटक, संस्मरण, यात्रा-वृतांत और जीवनी आदि विधाओं को लेकर प्रयोग किए हैं लेकिन लघुकथा को कभी इस रूप में नहीं लिया। बस यदा-कदा लिखता रहा।
‘आपकी कपा है’ के लिए ‘दो शब्द’ के माध्यम से मैंने जो कुछ कहना चाहा है उसे ही यत्किंचित परिवर्तन के साथ यहाँ दोहरा रहा हूँ-

‘‘ ‘लघुकथा’ की विधा को लेकर बहुत ऊहापोह मचा हुआ है आजकल। उसकी एक सुनिश्चित परम्परा है या वह नितांत नयी विधा है अथवा उसकी कुछ उपयोगिता है या वह मात्र चुटकलेबाजी है या जो किसी अन्य विधा में सफलता नहीं पा सकते वे ही लघुकथा के क्षेत्र में आकर चहकने लगते हैं।’’
और भी न जाने क्या-क्या उचित-अनुचित कहा जा रहा है पक्ष और विपक्ष में। सन् 1938 में जब ‘हंस’ का एकांकी अंक प्रकाशित हुआ था तब एकांकी की विधा को लेकर उस युग के महारथी इसी प्रकार खगंहस्त हो उठे थे। एक बन्धु उसे अनारकली (लाहौर का सुप्रसिद्ध बाजार) में किसी वस्तु विशेष के विज्ञापन के चचा-भतीजे में होने वाले मसालेदार वार्तालाप से अधिक महत्त्व देने को तैयार नहीं थे। उनकी दृष्टि में उस विधा का कोई भविष्य नहीं था।

लेकिन आज हिन्दी-एकांकी की विधा कितनी लोकप्रिय और कितनी सशक्त है यह बताने की आवश्यकता नहीं है। इसकी उपयोगिता स्वयंसिद्ध है। नयी कविता की भी कमोबेश यही स्थिति रही है। तब क्या इस बात को स्वीकार करके मौन हो रहना उचित होगा कि लघुकथा का कोई भविष्य नहीं है। यह भी उस युग में जब व्यक्ति युगों की टीस और युगों के आनन्द को क्षणों में समेट लेना चाहता है। समय सिमटता जा रहा है। महाकाव्य से मुक्तक तक; बहुअंकीय नाटकों से एकांकी तक, विराट उपन्यासों से लघु उपन्यास और लम्बी कहानी से लघुकथा तक की यात्रा बहुत कुछ समेटे है अपने में। कोई भी विधा हो, उसका अपना एक स्रोत होता है। उस स्रोत से अपने को काटने का प्रयत्न वैसा ही है जैसे सन्तान अपनी जननी के अस्तित्व को नकार दे।

विकास की एक सुनिश्चित परम्परा आज की लघुकथा के पीछे देखी जा सकती है। न जाने किस कालखण्ड में मनीषियों ने अपने सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप में स्पष्ट करने के लिए दृष्टान्त देने की आवश्यकता अनुभव की, उसी अनजाने क्षण में ही लघुकथा का बीजारोपण हुआ। तब उसका नाम दृष्टान्त या ऐसा ही कुछ रहा होगा। ऐसे दृष्टान्तों के कई संग्रह मैंने बचपन में देखे थे। इन दृष्टान्तों की आज की लघुकथा कितनी ऋणी है इस पर बहस हो सकती है परन्तु जो गतिशील है वह एक समय अपने रूप-गुण में नितान्त भिन्न होकर भी अतीत से अलग नहीं है। उसी का विकसित होता हुआ रूप है। वर्तमान और भविष्य सबका केन्द्र अतीत में ही रहता है लेकिन इसका अर्थ अतीत को ओढ़ना कदापि नहीं होता, प्रवाह के स्वरूप को समझना होता है।

एक और तथ्य की ओर से हम उदासीन नहीं रह सकते। प्राचीन ऋषि-मुनि जब जीवन-रहस्य की व्खाख्या करते थे जो रूपक की भाषा में करते थे और इन रूपकों पर लोक-कथाओं का प्रवाह होता था। और यह भी कि आध्यात्मिक साहित्य में लघुकथा मात्र दृष्टान्त और नीति-कथा होकर नहीं रह गई है। अन्य विधाओं की तरह जीवन के यथार्थ को अंकित करती है वह भी। मनीषी खलिल जिब्रान की लघुकथाएँ इसका प्रमाण हैं। एक शब्द व्यर्थ नहीं पर अर्थ अगम-अथाह। जैसे यह लघुकथा:

एक सीप ने अपनी पड़ोसिन सीप से कहा, ‘मेरे पेट में भयंकर पीड़ा हो रही है। वहाँ कोई भारी-भारी गोल-गोल-सी चीज जान पड़ती है जिसने मेरे प्राणों को संकट में डाल रखा है।’’
तब दूसरी सीप ने दर्पपूर्ण सन्तोष के साथ कहा, ‘‘आकाश और समुद्र को अनेकानेक धन्यवाद कि मैं पीड़ा से मुक्त हूँ। भीतर और बाहर सब प्रकार नीरोग और चंगी हूँ।’’
उसी समय एक केकड़ा उधर से जा रहा था। उसने उन दोनों की बातें सुन लीं और नीरोग तथा चंगी होने की डींग मारने वाली से कहा, ‘‘हाँ, हाँ, तुम नीरोग और चंगी जरूर हो-लेकिन तुम्हारी पड़ोसिन जिस पीड़ा का भार वहन कर रही है, जानती हो, वह क्या है ? एक असाधारण सुन्दर मोती।’’

आज जब लघुकथा की फिर से पहचान हो रही है तो अतीत की लघुकथाओं को नकारा नहीं जा सकता। लघुकथा के समूचे इतिहास को जिन्होंने रेखांकित किया है उन्होंने उस सत्य को पहचान लिया है। विकास-क्रम की इस यात्रा में लघुकथा ने दृष्टान्त, रूपक, लोककथा, बोधकथा, नीतिकथा, व्यंग्य, चुटकले, संस्मरण-ऐसी अनेक मंजिलें पार करते हुए वर्तमान रूप पाया है और अपनी सामर्थ्य को गहरे अंकित किया है। वह अब किसी गहन तत्व को समझने, उपदेश देने, स्तब्ध करने, गुदगुदाने और चौंकाने का काम ही नहीं करती बल्कि आज के यथार्थ से जुड़ कर हमारे चिन्तन को धार देती है। अणु-युग में लघुकथा विराट और वामन, भूमा और अल्प के सम्बन्धों को नया अर्थ देती है। उसके शब्द अल्प पर अर्थ भूमा हैं। कहूँ, वह सूत्र-रूप में जीवन की विराटता की व्याख्या करती है। उसकी अपनी भाषा होती है। न भानुकता, न ऊहापोह, न आसक्ति, पर अर्थ वहन करने की क्षमता में अपूर्व। यही अपूर्वता लघुकथा को सशक्त और मार्मिक बनाती है। आदर्श लघुकथा वह है जो किसी कहानी का कथानक न बन सके। कहानी का संक्षिप्त रूप भी एक नहीं है।

लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि लघुकथा में जीवन के अन्तर्विरोंधों और विसंगतियों और कुरूपता का ही चित्रण होना उचित है। जीवन में जो शुभ और सुन्दर है और जो द्वन्द्व के माध्यम से उभरकर आता है उसका चित्रण भी होना चाहिए। वस्तुतः क्या होना चाहिए से अधिक महत्त्वपूर्ण है, कैसे होना चाहिए ? मूल बात मानवीय संवेदना को अभिव्यक्ति देने की है, ऋणात्मक और धनात्मक दोनों प्रकार से।

मैं अपनी बात कहूँ। मेरी पहली लघुकथा ‘सार्थकता’ हंस के जनवरी, 1939 के अंक में प्रकाशित हुई थी। इस संग्रह में वह पहली बार शामिल की गई है। जब मैंने लिखना शुरू किया था तो सर्वश्री जयशंकर प्रसाद, सुदर्शन, माखनलाल चतुर्वेदी, उपेन्द्रनाथ, अश्क, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, जगदीशचन्द्र मिश्र पदुमलाल, पुन्नालाल बख्शी, रावी और रामनारायण उपाध्याय आदि सुप्रसिद्ध सर्जक इस क्षेत्र में भी सक्रिय थे उनमें रावी और रामनारायण उपाध्याय आज भी सक्रिय हैं। लिखता मैं भी हूँ लेकिन मैंने जिस रूप में कहानी और एंकाकी की विधा को अपनाया उस रूप में लघुकथा को नहीं। लघु कहानियाँ लोक-कथाएं और बोध-कथाएँ लिखी तो संस्मरण, चुटकले और गद्य काव्य लिखने से भी परहेज नहीं किया। प्रस्तुत संग्रह में भी ऐसे कुछ नमूने मिल सकते हैं। जैसा मैंने अभी कहा मेरे बहुत से मित्र इन्हें लघुकथा मानने से इन्कार कर देंगे (कर दिया है) क्योंकि परम्परा के बावजूद आठवें दशक की लघुकथा उनकी दृष्टि में एक नयी विधा है।

वह है या नहीं है इस विवाद में हम नहीं पड़ना चाहेंगे पर यह सच है लघुकथा लिखना बड़ा ही कठिन काम है, विशेष रूप से सही भाषा की तलाश। भाषा मात्र अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होती वह व्यक्ति के चरित्र का सम्प्रेषण भी करती है। हर रचना में रचनाकार का चित्र प्रतिबिम्बत होता है उसमें। अभी यह कहना बहुत कठिन है कि निरन्तर विकसित होती जाती लघुकथा भविष्य में क्या रूप लेगी और आज के लघु कथाकारों की भीड़ में से कितने कथाकार कसौटी पर खरे उतरेंगे।
प्रस्तुत संग्रह की रचनाएँ सन् 1938 से सन् 1987 के बीच लिखी गई हैं। अपने गठन और भाषा के सौन्दर्य में उनमें जो अन्तर है उसे पहचान पाना कठिन नहीं होना चाहिए। यह पहचान अध्ययन की दृष्टि से उपयोगी हो सकती है पर जैसा मैंने कहा, ‘‘मैं मूलतः, और मुख्यतः लघु-कथाकार नहीं हूँ।’’ यह स्वीकार करने में भी मुझे संकोच नहीं है कि आज इस विधा को लेकर जो आन्दोलन हो रहा है यदि वह न उभरा होता तो सम्भवतः मेरा ध्यान इस ओर इतनी गम्भीरता से न जाता और न यह संकलन अस्तित्व में जाता। इसकी अधिकांश रचनाएँ इसी युग की हैं।

अपने इस प्रयास में मैं सफल हुआ या नहीं हुआ यह मैं नहीं जानता पर इतना अवश्य जानता हूँ कि जब काल और दिक् सभी सिमट रहे हैं, विराट वामन के रूप में प्रकाशित हो रहा है और दो पग में विश्व ब्रह्माण्य को माप लेने वाले वामन की शक्ति अथाह है तब, भूमा का सुख अल्प के अन्तर में से फूटना स्वाभाविक है। और यह भी कि जब अणु की शक्ति अपरिसीम है, तब  लघुकथा मात्र लघु रचना कैसे रह सकती है ?
अन्त में मैं उन सभी मित्रों और लघु कथाकारों (मसीहाओं का नहीं) का आभारी हूँ जिनकी सद्भावना के कारण ही यह संग्रह सम्भव हो सका। उन्हीं को मैं यह संग्रह बहुत स्नेह से समर्पित करता हूँ।
-विष्णु प्रभाकर

1.
ईश्वर का चेहरा


प्रभा जानती है कि धरती पर उसकी छुट्टी समाप्त हो गयी है। उसे दुख नहीं है। वह तो चाहती है कि जल्दी से जल्दी अपने असली घर जाए। उसी के वार्ड में एक मुस्लिम खातून भी उसी रोग से पीड़ित है। न जाने क्यों वह अक्सर प्रभा के पास आ बैठती है। सुख-दुख की बातें करती है। नयी-नयी पौष्टिक दवाइयाँ, फल तथा अण्डे आदि खाने की सलाह देती है।
प्रभा सुनती है, मुस्करा देती है। सबीना बार-बार जोर देकर कहती है, ‘‘ना बहन ! मैंने सुना है यह दवा खाने से बहुत फायदा होता है और अमुक चीज खाने से तो तुम्हारे से खराब हालत वाले मरीज भी खुदा के घर से लौट आए हैं।’’
‘‘सच ?’’
‘‘हाँ बहन, आजमायी हुई चीजें हैं।’’
‘‘तुमने खुद आजमाकर देखी है ?’’
एकाएक सकपका गयी सबीना। चेहरा मुरझा गया। एक क्षण देखती रही शून्य में। फिर बोली, ‘‘बहन ! हम उन चीजों का इस्तेमाल कैसे कर सकेंगे। बहुत महँगी हैं और हम ठहरे झोंपड़-पट्टी के रहने वाले। तुम्हें कितने लोग घेरे रहते हैं। तुम्हारे उनको तो मैंने कई बार रोते देखा है। तुम ये महँगी चीजें खरीद सकती हो। शायद तुम्हारे बच्चो के भाग से अल्ला-ताला तुम पर करम फरमा दें।’’
प्रभा सुनती रही, एकटक सबीना के चेहरे पर दृष्टि गड़ाये रही। उसे बराबर लगता रहा कि ईश्वर का अगर कोई चेहरा होगा तो सबीना के जैसा ही होगा।

2.
फर्क


उस दिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमा-रेखा को देखा जाए जो कभी एक देश था, वह अब दो होकर कैसा लगता है। दो थे तो दोनों एक-दूसरे के प्रति शंकालु थे। दोनों ओर पहरा था। बीच में कुछ भूमि होती है जिस पर किसी का अधिकार नहीं होता। दोनों उस पर खड़े हो सकते हैं। वह वहीं खड़ा था, लेकिन अकेला नहीं था-पत्नी थी और थे अठारह सशस्त्र सैनिक और उनका कमाण्डर भी। दूसरे देश के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे। इतना ही नहीं, कमाण्डर ने उसके कान में कहा, ‘‘उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं, जाइएगा नहीं। पता नहीं क्या हो जाए ? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छः तस्कर माल डाले थे।’’
उसने उत्तर दिया, ‘‘जी नहीं, मैं उधर कैसे जा सकता हूँ ?’’
और मन ही मन कहा, मुझे आप इतना मूर्ख कैसे समझते हैं ? मैं इन्सान हूँ, अपने पराये में भेद करना मैं जानता हूँ। इतना विवेक मुझमें है।
वह यह सब सोच ही रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहाँ आ पहुँचे। रोबीले पठान थे। बड़े तपाक से हाथ मिलाया। उस दिन ईद थी। उसने उन्हें मुबारकबाद कहा। बड़ी गरमजोशी के साथ एक बार फिर हाथ मिलाकर वे बोले, ‘‘इधर तशरीफ लाइए। हम लोगों के साथ एक प्याला चाय पीजिए।’’
इसका उत्तर उसके पास तैयार था। अत्यन्त विनम्रता से मुस्कराकर उसने कहा, ‘‘बहुत-बहुत शुक्रिया। बड़ी खुशी होती आपके साथ बैठकर, लेकिन मुझे आज ही वापिस लौटना है और वक्त बहुत कम है। आज तो माफी चाहता हूँ।’’
इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ और बातें हुई कि पाकिस्तान की ओर से कुलाँचें भरता हुआ बकरियों का एक दल उनके पास से गुजरा और भारत की सीमा में दाखिल हो गया। एक साथ सबने उनकी ओर देखा। एक क्षण बाद उसने पूछा, ‘‘ये आपकी हैं ?’’
उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया, ‘‘जी हाँ जनाब, हमारी हैं। जानवर हैं फर्क करना नहीं जानते।’’

3.
चोरी का अर्थ


एक लम्बे रास्ते पर सड़क के किनारे उसकी दुकान थी। राहगीर वहीं दरख्तों के नीचे बैठकर थकान उतारते और उससे कुछ चना-चबेना लेकर भूख मिटाते। दुकानदार उन्हें ठण्डा पानी पिलाता और सुख-दुख का हाल पूछता। इस प्रकार तरोताजा होकर राहगीर अपने रास्ते पर आगे बढ़ जाते।
एक दिन एक मुसाफिर ने एक आने का सामान लेकर दुकानदार को एक रुपया दिया। उसने सदा की भाँति अन्दर की अलमारी खोली और रेजगारी देने के लिए अपनी चिर-परिचित पुरानी सन्दूकची उतारी। पर जैसे ही उसने ढक्कन खोला उसका हाथ जहाँ था, वहीं रुक गया। यह देखकर पास बैठे हुए आदमी ने पूछा,‘‘क्यों, क्या बात है ?’’
‘‘कुछ नहीं,’’ दुकानदार के ढक्कन बन्द करते हुए कहा, ‘‘कोई गरीब आदमी अपनी ईमानदारी मेरे पास गिरवी रखकर पैसे ले गया है।’’

4.
अन्तर दो यात्राओं का


अचानक देखता हूँ कि मेरी एक्सप्रेस गाड़ी जहाँ नहीं रुकनी थी वहाँ रुक गयी है। उधर से आने वाली मेल देर से चल रही है। उसे जाने देना होगा। कुछ ही देर बाद वह गाड़ी धड़ाधड़ दौड़ती हुई आयी और निकलती चली गयी लेकिन उसी अवधि में प्लेटफार्म के उस ओर आतंक और हताशा का सम्मिलित स्वर उठा। कुछ लोग इधर-उधर भागे फिर कोई बच्चा बिलख-बिलख कर रोने लगा।
मेरी गाड़ी भी विपरीत दिशा में चल पड़ी थी। उधर से दौड़ते आते कुछ यात्री उसमें चढ़ गए। एक कह रहा था,‘‘च...च....च्च बुरा हुआ, धड़ और सिर दोनों अलग हो गए।’’
‘‘किसके ?’’ मैंने व्यस्त होकर पूछा।
‘‘एक लड़का था, सात-आठ वर्ष का।’’
‘‘ओह, किसका था ?’’
‘‘साहब, ये चाय बेचने वाले बच्चे हैं। चलती ट्रेन में चढ़ते-उतरते हैं। दो भाई थे, एक तो उतर गया। दूसरे का संतुलन बिगड़ गया और गिर पड़ा।
‘‘कोई रोकता नहीं उन्हें ?’’
हँसा वह व्यक्ति, ‘‘कौन रोके ? इनका बाप भी चाय बेचता था। चालीस-पचास रुपये तक कमा लेता था पर सब शराब में उड़ा देता था। अब तो अलकोहलिक हो गया है। न जाने कहाँ पड़ा रहता है। छः बच्चे हैं-दो लड़के, चार लड़कियाँ। ये दोनों भाई किसी तरह सबका पेट भर रहे थे अब...’’
एक्सप्रेस गाड़ी तीव्र गति से दौड़ती हुई मुझे मेरी यात्रा के अगले पड़ाव की ओर ले जा रहा थी। मौत की गाड़ी उस बच्चे को भी इस लोक से उस लोक की यात्रा पर ले गयी थी।
पर कितना अन्तर था उन दो यात्राओं में !




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