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रोमांचक विज्ञान कथाएँ

जयंत विष्णु नारलीकर

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3321
आईएसबीएन :81-88140-65-1

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सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं विज्ञान लेखक श्री जयंत विष्णु नारलीकर द्वारा लिखित ये विज्ञान कथाएँ रहस्य, रोमांच एवं अदभुत कल्पनाशीलता से भरी हुई है...

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और मुंबई जल उठा


हड़बड़ाहट के साथ राजेश की नींद खुल गई। वह पसीने में नहाया हुआ था। मौसम हालाँकि गरम और उमस भरा था, पर पसीना आने का कारण कुछ और ही था। आज भी राजेश ने वही भयानक सपना देखा था। पहले तो यह सपना उसे कभी-कभार ही आता था, लेकिन कुछ दिनों से अकसर दिखाई देने लगा था और अगर यही हालत रही तो शायद उसे किसी विशेषज्ञ की सलाह लेनी पड़ेगी। उसने बिस्तर के साथ लगे स्विच को ऑन किया, पर लाइट जली नहीं कि घड़ी के चमकदार डायल पर नजर डालते ही उसे कारण समझ में आ गया। उस वक्त सुबह के 5 : 05 बजे थे और बिजली तो 5 : 30 बजे ही आएगी। यह घटना सन् 2041 की है। मुंबई शहर में सख्ती से बिजली की कटौती चल रही थी। उसके जैसे औसत (आम) घरेलू उपभोक्ता को दिन में केवल छह घंटे ही बिजली मिलती थी-सुबह 5 : 30 से 8 : 00 बजे तक और शाम को 18 : 30 से 22 : 00 बजे तक। जलापूर्ति की हालत तो और भी खराब थी। मुंबई शहर निगम ने ऐसे उपकरण लगा रखे थे, जो बहुत कड़ाई से नाप-तौलकर पानी छोड़ते थे। प्रत्येक उपभोक्ता को प्रतिदिन 100 लीटर के हिसाब से पानी अपार्टमेंट की छत पर रखी टंकियों में पंप कर दिया जाता।

अब चूँकि वह जाग ही गया था तो उसने सोचा-क्यों न तैयार हो लिया जाए, ताकि सुबह-सुबह की आपाधापी से बच सके। मुंबई के ज्यादातर नागरिकों की तरह राजेश के पास भी ऐसी लाइटें थीं जो जमा की गई बिजली से चलती थीं। उसने अपनी रीचार्जेबल ट्यूबलाइट जलाई। जब कभी बिजली आती तो ऐसे उपकरण अपनी बैटरियों को चार्ज करने लग जाते।

अकसर राजेश सोचा करता कि ऐसे उपकरण कानूनी भी हैं या नहीं। क्योंकि बिजली जैसी दुर्लभ चीज की फिजूलखर्ची को रोकने के लिए ही तो निर्धारित घंटों में उसकी आपूर्ति की जा रही है। तो क्या ये उपकरण ज्यादा बिजली खींचकर इस कवायद को ही ठेंगा नहीं दिखा रहे ? पर जवाब न उसके पास था, न ही किसी और के पास। बिजली कंपनी भी मामले को अदालत तक नहीं ले गई, क्योंकि उसे भी पता नहीं था कि क्या फैसला होगा, लेकिन इस ऊहापोह के बीच संचित बिजली से चलनेवाले विद्युत् उपकरणों का बाजार खूब फल-फूल रहा था। घड़ी की सुइयों की तरह राजेश की दिनचर्या भी टिक-टिक कर आगे बढ़ने लगी। वह तैयार होगा और किस्मत अच्छी रही तो जल्दी ट्रेन भी मिल जाएगी। वह विरार में रहता था और फास्ट लोकल ट्रेन में चलने के बावजूद उसे चर्चगेट तक पहुँचने में कुल सत्तानबे मिनट लगते थे। उसके दादाजी भी इसी रूट पर सफर किया करते थे और विरार से चर्चगेट तक आने-जाने में उन्हें भी इतना ही समय लगता था यानी तब से इसमें कोई सुधार नहीं आया है। पिछले पचास वर्षों में सारी दुनिया की लोकोमोशन तकनीकी काफी आगे बढ़ गई, लेकिन मुंबई को उससे कोई लाभ नहीं हो पाया। जहाँ रेलगाड़ियों की रफ्तार बढ़ी, वहीं यातायात में भारी बढ़ोतरी ने तेजी से चलती रेलगाड़ियों का चक्का जाम कर दिया। मध्य रेलवे हर 30 सेकंड पर एक ट्रेन रवाना करने का दावा करता है, तो पश्चिमी रेलवे प्रत्येक 35 सेकंड पर। लेकिन पटरियों की लंबाई तो जहाँ-की-तहाँ थी। इससे रेलगाड़ियाँ हमेशा ही जाम में फंसी नजर आती थीं।

करीब एक घंटे में राजेश निकलने को तैयार था। उसके अपार्टमेंट परिसर के गलियारे और सीढ़ियाँ लोगों से ठसे पड़े थे-बिलकुल रेलवे प्लेटफॉर्म की तरह। अगर आज राजेश के दादाजी होते तो उन्हें शहर की दुर्दशा देखकर अवश्य ही दुःख होता। लेकिन मुंबई तो इन सबकी अभ्यस्त हो चुकी है। करीब पच्चीस साल पहले तिकड़मी राजनीतिज्ञों के एक गुट के दिमाग में मुंबई की गंदी बस्तियों की समस्या सुलझाने का अनूठा विचार आया। उन्होंने मुंबई शहर निगम से नया कानून पास करवाया, जिसके अनुसार फ्लोर स्पेस इंडेक्स (एफ.एस.आई.) को दोगुना करना अनिवार्य हो गया। केवल अतिरिक्त एफ.एस.आई. को ही अनिवार्य कहा गया। मुंबई के प्रत्येक भवन-मालिक के लिए अतिरिक्त निर्माण करवाना अनिवार्य हो गया, ताकि अनिवार्य एफ.एस.आई. शर्त का पालन हो सके। इतना ही नहीं, भवन में अतिरिक्त निर्माण गंदी बस्ती के निवासियों को देना भी अनिवार्य था-वह भी केवल लागत मूल्य पर। इस कानून का पालन न करने पर बिजली- पानी काटने के साथ-साथ भारी जुरमाने का प्रावधान भी था।

जैसे-तैसे लोगों ने इस कानून का पालन तो किया, पर क्या इससे समस्या सुलझ गई ? पुराने लोग गंदी बस्तियों से निकले तो उनकी जगह पर नए लोग आकर बस गए। कई मामलों में तो लोग गंदी बस्तियों में ही रहे, लेकिन अपने नए घरों को उन्होंने दूसरे जरूरतमंद लोगों को ऊँची दरों पर किराए पर चढ़ा दिया। रोजगार की तलाश में लोगों का तांता लगा रहा। किसी नेता में इतनी राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं थी कि वह इस पर रोक लगा सके। नहीं, एक आदमी तो था, जिसने सन् 2025 में ऐसा करने की कोशिश की थी। मुंबई के निगम आयुक्त की हैसियत से उस बहादुर इनसान ने बृहत्तर मुंबई में लोगों की बाढ़ को रोकने के लिए बड़े कठोर कानून बनाए थे; लेकिन जल्दी ही उसे अपनी भूल का एहसास हो गया कि उसने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया था। सैकड़ों नागरिक, अधिकतर कार्यकर्ता बाँहें चढ़ाकर सड़कों पर उतर आए। उद्देश्य था- मौलिक अधिकारों, मुक्त आवागमन और न जाने किन-किन आजादियों की रक्षा। न्यायाधीशों ने भी उन नियमों को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। आयुक्त महोदय का स्थानांतरण भी ऐसी दूर-दराज जगह पर कर दिया गया जहाँ से फिर उनकी कोई खबर नहीं आई। पर आज राजेश को अचानक उन आयुक्त महोदय की याद आ गई ! वह बेचारा आयुक्त! असली हीरो तो वही था। हमें उसकी मूर्ति लगानी चाहिए।' यह सोचता हुआ राजेश अपने मकानों पर अनधिकार कब्जा जमाए लोगों के बीच से गुजर रहा था। कुछ वर्षों में उसका छोटा सा फ्लैट भी उन जैसे बिन बुलाए मेहमानों से भर जाएगा।

सुबह साढ़े छह बजे भी स्टेशन जानेवाली बस सवारियों से ठसाठस भरी थी, पर कम-से-कम इस वक्त तो राजेश एक बस में घुसने में सफल हो गया। अन्यथा पीक ऑवर में तो चार बार कोशिश करने में तीन बार असफलता ही हाथ लगती। मुँह बिचकाए हुए उसने अपने दुःस्वप्न के लिए धन्यवाद कहा, जिसने उसे जल्दी जगा दिया था।

घर से जल्दी निकलने के कारण राजेश को विरार से 6 : 40 की लोकल ट्रेन में बैठने की सीट भी मिल गई। यह चर्चगेट तक बिना रुके जाती थी। यानी बीच में अगर लाल बत्तियाँ मिलें, तभी यह रुकेगी। उसने अनुमान लगाया कि उसे आठ-सवा आठ के बीच चर्चगेट पहुँच जाना चाहिए।

जैसे-जैसे ट्रेन ने रफ्तार पकड़ी, राजेश के विचारों को भी पंख लग गए; पर घूम- -फिरकर उसके विचार पिछली रात के सपने पर आ जाते। वह सपने के दृश्यों को याद करने लगा। पाँच साल पहले उसने शहर की पब्लिक लाइब्रेरी से एक पुस्तक ली थी। वह पुस्तक करीब साठ साल पहले किसी जाने-माने आर्किटेक्ट और टाउन प्लानर ने 'शहरी आबादी के लिए नियोजन' विषय पर लिखी थी। लेखक विशेषज्ञों के उस समूह का सदस्य था, जिसे मुंबई के भावी विकास के लिए रणनीतियाँ सुझानी थीं; लेकिन ज्यादातर विशेषज्ञ-सुझावों की तरह इस समूह के सुझावों को भी बड़े करीने से लाल फीते में बाँधकर ताक पर रख दिया गया था कि सपने में भी उनपर अमल न हो। लेकिन इन सबसे बढ़कर शहर के बारे में लेखक की भविष्यवाणियाँ थीं, जिन्होंने राजेश पर गहरा असर डाला था।

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