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वो तेरा घर ये मेरा घर

मालती जोशी

प्रकाशक : आर्य प्रकाशन मंडल प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :94
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3334
आईएसबीएन :81-88121-69-X

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मालती जोशी की चुनी हुई श्रेष्ठ कहानियाँ

Vo tera ghar ye meera ghar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस बँगले के गृह-प्रवेश पर माँ-पिता जी दोनों आए थे। बँगले की भव्यता देखकर खुश भी बहुत हुए थे, ‘सोचा था, कभी-कभार छुट्टियों में तुम लोग आकर रहोगे, पर अब यह महल छोड़कर तुम उस कुटिया में तो आने से रहे।’
उन्होंने कहा था,‘ हम यहाँ भी कहाँ रह पाते हैं माँ ! नौकरी के चक्कर में रोज तो यहाँ से वहाँ भागते रहते हैं। यहाँ तो शायद पेंशन के बाद ही रह पाएँगे। मैं तो कहता हूँ, आप लोग वह घर बेच दो। पैसे फिक्स डिपॉडिट में रख दो या लड़कियों को दे दो और ठाठ से यहाँ आकर रहो।’

‘न बेटे ! मेरे जीते-जी तो वह मकान नहीं बिकेगा,’ पिता जी ने दृढ़ता के साथ कहा था,’ हमने बड़े अरमानों से यह घर बनाया था। इसे लेकर बहुत सपने सँजोए थे। अब वे सारे सपने हवा हो गए, यह बात और  है।’
‘ऐसा क्यों कह रहे हैं पिताजी ! इस घर ने आपको क्या नहीं दिया ! हम सब इसी घर में पलकर बड़े हुए हैं। हम चारों की शादियाँ-माँ-बाप के यही तो सपने हैं।’
‘हाँ, यह भी तुम ठीक ही कह रहे हो। मैं ही पागलों की तरह सोच बैठा था कि यह घर हमेशा इसी तरह गुलजार रहेगा। भूल ही था कि लड़कियों को एक दिन ससुराल जाना है। लड़कों को रोजगार के लिए बाहर निकलना है। और एक बार उड़ना सीख जाते है तो पखेरु छोंसले में कहाँ लौटते हैं। अब मुझे अम्मा-बाबूजी की पीड़ा समझ में आ रही है।’
‘कैसी पीड़ा ?’

‘पाँच-पाँच बेटों के होते हुए अंत में अकेले ही रह गए थे दोनों। अम्मा तो हमेशा कहती थीं, अगर मैं जानती कि पढ़-लिखकर तुम लोग बेगाने हो जाओगे तो किसी को स्कूल नहीं भेजती। अपने आंचल में छुपाकर रखती।’
और अपने अम्मा-बाबूजी की याद में पिता जी की आँखें छलछला आई थीं।

प्रतिरोध

उसके पूरे बदन पर जैसे छिपकलियाँ रेंग रही थीं। ननदोई का तिलजिला स्पर्श याद करके उसे उबकाई आ रही थी। उनकी लोलुप दृष्टि मानों अब तक  उसका पीछा कर रही थी। और वासना से सने शब्द अब तक कानों में झनझना रहे थे। उस समय मन तो हुआ था कि तमाचा जड़ दे, पर रिश्ते आड़े आ गये। इसलिए सिर्फ धमकाकर छोड़ दिया। बदले में उन्होंने भी धमकी दे डाली थी, शिकायत कर के देखो इतना बदनाम कर दूँगा कि कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रहोगी।’ एक क्षण तो मीरा सहम गई थी अभी तो शादी को कुल जमा छः महीने भी नहीं हुए हैं और वह कैसे दुष्चक्र में फँस गई है ! उसकी शादी के बाद ननद पहली बार सपरिवार घर आई है। उन लोगों की खातिरदारी में कोई कसर नही छोड़ी। सुबह-शाम पकवान बना रही है। ननद को पानी का गिलास तक नहीं उठाने देती। अपनी अलमारी उसने दीदी के नाम पर खुली छोड़ी है, जो चाहें निकाले और पहनें। बड़ी मन्नतों से पाए उसके बच्चे पर पूरी माया-ममता लुटा रही है। उसकी शैतानियों को नजर अंदाज कर रही है, उसकी शरारतों को बख्श रही है।

पर पता नहीं ननदोई के साथ वह सहज नहीं हो पाई। उसके अंतर्मन ने उसे सचेत कर दिया था कि इस आदमी की नजर साफ नहीं है। इससे सावधान रहने की जरूरत है। शायद उसकी यही कोशिश उनके अहं को आहात कर गई थी। उनका पौरुष-दर्प इस अवमानना से तिलमिला उठा था और शायद इस अपमान का बदला चुकाने के लिए ही वे मौके की तलाश में रहे हों।
वह शाम के खाने की तैयारी में व्यस्त थी। दोपहर का खाना खाकर सुयश रोज की तरह दुकान चले गये थे। अम्माजी बिटिया को लेकर सुनार के पास गई थीं। महरी भी काम निपटाकर जा चुकी थी। उसी समय उन्होंने रसोई की चौखट पर खड़े होकर आवाज दी, ‘‘क्यों, एक कप चाय मिल सकेगी क्या ?’’
उसका जी धक से रह गया। पहली बार उसे अहसास हुआ कि वह घर में बिलकुल अकेली है। उसने हिम्मत जुटाकर कहा आप बाहर चलकर बैंठे। मैं वहीं ले आऊँगी।’’ दरअसल उनके वहाँ खड़े रहने से उसे बहुत घबराहट हो रही थी।
‘‘यहाँ पानी तो पी सकता हूँ या उसके लिए भी बाहर जाना पड़ेगा ?’’ उसने कोई जवाब नहीं दिया। चुपचाप एक गिलास भरा, ट्रे के एक सिरे पर उसे रखा और दूसरे सिरे से ट्रे पकड़कर उनके सामने कर दिया।
‘‘मैं क्या अछूत हूँ जो इस तरह से पानी दे रही हो ?’’ वे गुर्राए। फिर मीरा भी चुप रही और चाय की तैयारी में जुट गई। वह बात बढ़ाना नहीं चाहती थी। जीजा जी भी उसका मंतव्य समझ गए और चुपचाप बाहर जाकर बैठ गए। उसने बड़ी राहत महसूस की।

चाय बनाकर वह धीरे से बैठक के कमरे में रख आई। उन्होंने अखबार से सिर उठाकर देखा, ‘‘यह क्या ! एक ही कप बनाकर लाई हो ! तुम्हारा कप कहाँ है ?’’
‘‘जी मैं शाम को चाय नहीं पीती।’’ न
‘‘थोड़ा साथ तो दे सकती हो ? चाय क्या कोई अकेले पीने की चीज है ? जाओ एक कप ले आओ। इसी से शेयर कर लेंगे।’’ ‘‘मुझे माफ कीजिए रसोई में बहुत काम पड़ा हैं,’’ कहकर वह जैसे ही जाने के लिए मुड़ी, उन्होंने उसका आंचल पकड़ लिया।
‘‘जीजाजी आप होश में तो हैं ?’’ उसने किसी तरह अपना आँचल छुड़ाते हुए कहा।
‘‘होश में कहाँ हूँ ? मेरे होश तुमने छीन लिए हैं।’’
‘‘जीजाजी आप घर के बड़े हैं बड़ों की तरह व्यवहार कीजिए।’’
‘‘बड़ा हूँ तो क्या हुआ बूढ़ा तो नहीं हूँ। चाय का तो एक बहाना था। सोचता था उसी बहाने मेरे पास पाँच मिनट बैठोगी। पर तुम तो जैसे मेरी छाया से भी दूर भाग रही हो। मेहमानों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है ?’’
‘‘आप मेहमान है तो फिर मेहमानों की मर्यादा में रहिए, नहीं तो .......’’
‘‘नहीं तो क्या कर लोगी तुम ?’’
‘‘मुझे मजबूरन अम्माजी से या इनसे शिकायत करनी पड़ेगी।’’
‘‘और तुम्हारा वह मिट्टी का माधो मेरा क्या कर लेगा ? मेरे सामने आँख उठाकर बात करने तक का तो उसमें ताब नहीं है। तुम शिकायत तो करके देखो। इतना बदनाम कर दूँगा कि कहीं मुंह दिखाने के लायक नहीं रहोगी। आखिर क्या बिगाड़ लोगी तुम मेरा ?’’

इसके बाद मीरा वहाँ खड़ी नहीं रही। रसोई का दरवाजा बंद करके सीधे ऊपर अपने कमरे में चली गई और अंदर से दरवाजा बंद कर दिया। उसका तन मन अब भी घृणा से जल रहा था, हृदय भय से धड़क रहा था।
इस व्यक्ति की खोटी नियत को उसने शादी के मंडप में ही भाप लिया था। गरीब घर की लड़की थी मीरा, पर रूप राजरानी सा पाया था। इसलिए सुयश की माँ ने उसे बेटे के लिए मांग लिया था। मीरा के माँ-बाप को इस प्रस्ताव से ही धन्य हो गए थे। दो बेटियों का ब्याह करके वे एकदम खोखले हो गये थे। दो की चिन्ता और थी। ऐसे में यह प्रस्ताव तो वरदान ही था जैसे। बिना किसी दान-दहेज के ऐसा घर-वर जुटाने का तो वे सपना भी नहीं देख सकते थे।
शादी के मंडप में ही जीजाजी को पहली बार देखा था। मजाक के नाम पर बड़ी भद्दी फब्तियाँ कस रहे थे और सब लोग ‘हो-हो’ करके हँस रहे थे। कभी कहते-‘भैया, यह तो लंगूर के हाथ में अंगूर आ गया समझो।’ कभी कहते ‘इसी को तो कहते हैं, छछूँदर के सर पर चमेली का तेल।’ दीदी से बोले-‘यह भी हमारी तरह मानव-पूनो की जोड़ी है। बस, भूमिकाएँ कुछ बदल गयी हैं।’ दीदी बेचारी कटकर रह गयी थीं। घर आते-आते ही अम्मा जी से बोले, ‘अम्मा यह काम आपने बहुत अच्छा किया। आपकी आने वाली नस्लें सुधर जाएँगी।’’

मीरा ने देखा था कि जीजाजी की हर टिप्पणी पर सुयश का चेहरा बुझ जाता था। पहले तो उसे हैरानी हुई थी कोई भी इस व्यक्ति को कोई घुड़कता क्यों नहीं हैं ? क्यों सब इसकी बेजा हरकतें बर्दाशत किए जा रहे हैं ? बाद में पता चला कि ये इस घर के दामाद हैं। उनकी हर बाद जायज है तभी से इस व्यक्ति के मन में वितृष्णा, एक जुगुप्सा का भाव उपजा था। अब तो उसके साथ भय और क्रोध भी जुड़ गया था। उसके सामने जाने की इच्छा नहीं हो रही थी।
करीब सात बजे माँ-बेटी बाजार से लौटीं। अपनी आंखों से उन्हें रिक्शे से उतरते देखने के बाद ही वह कमरे से बाहर आई। उन लोगों के आते ही जीजा जी बाहर चले गए। जाते हुए कहते गए कि खाने पर इंतजार मत करना। किसी दोस्त के साथ कार्यक्रम है। मीरा ने राहत की सांस ली। उसने फटाफट खाना बनाया। सास-ननद को खिलाया और कमरे में आकर लेट रही। पति की प्रतीक्षा रोज ही करती थी, पर आज दरवाजा खुला रखने का साहस नहीं हुआ उसे।

किताब पढ़ते-पढ़ते कब आँख लग गई, पता ही नहीं चला। सुयश ने शायद दो-चार बार दरवाजा खटखटाया होगा, क्योंकि जब उसने दरवाजा खोला तो उसका मूड खाफी उखड़ा हुआ था।
‘‘किसके खयालों में खो गई थीं कि मैं इतनी देर से दरवाजा पीटता रहा और तुम्हें सुनाई नहीं दिया ?’’ उन्होंने तल्ख स्वर में पूछा।
‘‘सॉरी। पढ़ते-पढ़ते पता नहीं कैसे आँख लग गई।’’
‘‘आँख लगाने का सौक इन दिनों ज्यादा चढ़ा हुआ है।’’
‘‘ये क्या कह रहे हैं आप ?’’
सुयश ने कोई जवाब न दिया। गुस्सा चेहरे पर हावी रहा। जूते पहने-पहने ही वह बिस्तर पर लेट गए।
‘‘आप फ्रेस होकर आइए। मैं खाना लगा रही हूँ।’’
‘मैं खाना नहीं खाऊँगा।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘बाहर खाकर आया हूँ।’’

वह कहना चाह रही थी कि खाकर आए हैं तो क्या हुआ, मेरे साथ दो कौर खा लीजिए, पर उनका मूड देखकर चुप रह गई। पलंग पर सामने बैठकर उसने बातें शुरू करने की गरज से शुरू ही किया था कि वह चीखकर बोले, ‘लीव मी अलोन। मेरे सामने नौटंकी मत करो !’’
मीरा स्तब्ध रह गई। इतना घुन्ना आदमी इतनी कड़वी-कठोर बात कैसे कह गया ? मीरा जानती है कि सुयश हमेशा हीन ग्रन्थि से ग्रस्त रहते हैं। वे अपने को मीरा के योग्य नहीं समझते। पता नहीं कैसे उनके मन में यह बात बैठ गई है कि मीरा ने परिस्थिति से मजबूर होकर शादी के लिए हाँ की होगी। यह एहसास उन्हें बेचारा-सा बना देता है। वे कभी खुलकर अपनी कोई बात नहीं कहते, किसी तरह की फरमाइश नहीं करते। उसने उनकी ऊँची आवाज नहीं सुनी। फिर वे आज अचानक इतने आक्रामक कैसे हो गए ? उसका मन एकदम चौकन्ना हो गया। कहीं यह सब नंदोई की करतूत तो नहीं है ?
‘‘बाहर कहाँ खाया ? होटल में ? साथ में कौन था ?’’
‘‘क्या फौजदारी करोगी जो इतने सवाल दाग रही हो ?’’

‘‘अच्छा, जाने दीजिए। एक बात बताइए। आपके जीजाजी आपके लिए पूज्यनीय हो सकते हैं, पर क्या विश्वसनीय भी हैं ?’’
सुयश एकदम चौंककर उठ बैठे।
‘‘जीजाजी को बीच में क्यों ला रही हो ?’’
‘‘आप उन्हीं के साथ गए थे न ?’’
सुयश चुप रह गए। उनका मौन ही स्वीकृति था।
‘‘उन्होंने मुझे धमकी दी थी कि अगर मैंने उनकी शिकायत की तो वे मुझे बदनाम कर देंगे। लेकिन वे इतने कायर निकले कि उन्हें मेरे शिकायत करने तक की सब्र नहीं हुआ। उन्होंने पहल करने में ही अपनी कुशलता समझी। मैं अभी आई।’’
‘‘कहाँ जा रही हो ?’’
‘‘उस आदमी को उसकी औकात तो दिखा दूँ। वैसे यह काम आपको करना चाहिए था, लेकिन जब आपको अपनी कुंठाएं सहलाने से ही फुर्सत नहीं है तो अपनी लड़ाई मुझे ही लड़नी होगी।’’
‘‘सुनो, बेकार का तमाशा मत करो।’’

‘‘और वे जो मेरा तमाशा बनाने पर तुले हुए हैं...मुझे बदनाम करने की धमकी दे रहे हैं और कह रहे हैं....’’ वह दनदनाती हुई सीढ़ियाँ उतर गई। मेहमानों का कमरा खाली था। अम्माजी के कमरे में बैठक जमी हुई थी। अम्मा अपने बड़े-से पलंग पर बैठकर छालियाँ कतर रही थीं। लालन को गोद में लेकर बिटिया रानी पास ही बैठी थीं। जमाई राजा पान चबाते हुए सामने कुर्सी पर बैठे थे। वे अपनी लफ्फाजी झाड़ रहे थे और माँ-बेटी तन्मयता से उन्हें सुन रही थीं।
‘‘अम्मा, आपने बड़ी गलती की। बस गोरा रंग देखा और रीझ गई। अरे, पहले कुशल-शील तो देखतीं, फिर लड़की घर में लातीं। ये छोटे घरों की लड़कियाँ रासलीला रचाने में बड़ी माहिर होती हैं। वो तो आपके आशीर्वाद से मैं बच गया वरना...’’

‘‘मैं तो ठगी गई बेटा ! हीरा समझकर काँच उठा लाई। मुझे क्या पता था...’’ अम्मा बोलते-बोलते एकाएक रूक गई। उन्होंने दरवाजे पर खड़ी मीरा को देखा। कुछ देर कमरे में सन्नाटा छा गया। सबकी नजरें अपनी ओर उठती देखकर मीरा मंथर गति से कमरे में चली आई और सास के पलंग पर खड़ी हो गई।
‘‘ये कैसी रासलीला का वर्णन हो रहा है जीजाजी ? जरा हम भी तो सुनकर देखें।’’
उसने स्पष्ट देखा कि सास और ननद ने घृणा से मुँह फेर लिया और जीजा जी अपनी कुर्सी पर बैठे कसमसा रहे हैं।
‘‘आपने बताया नहीं जीजाजी ! किस रासलीला का बखान हो रहा था ?’’
‘‘सब तुम्हारी तरह बेशर्म नहीं होते, समझीं ? तुम्हें करते लाज नहीं आई,  

 

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