भारतीय जीवन और दर्शन >> क्या कहते हैं दर्शन? क्या कहते हैं दर्शन?महेश शर्मा
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दर्शन से संबंधित बातों का उल्लेख...
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
दर्शन वे शास्त्र हैं जिनमें प्रकृति, आत्मा, परमात्मा और जीवन के अंतिम
लक्ष्य का विवेचन है, जिनमें मोक्ष प्राप्त करना तथा ईश्वर में लीन हो
जाना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य बताया गया है दर्शन छह बताए गए हैं-पूर्व
मीमांसा, उत्तर मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, सांख्य और योग।
हमारी मूल जिज्ञासा यही है कि हम क्या हैं तथा हमारे होने और न होने के बीच इस अज्ञात शक्ति से हमारा क्या संबंध है ? जो कुछ भी हम देखते हैं उसका चतुर्दिक विकास हमारी बुद्धि के वृत्त में आ जाता है, वस्तुतः यहीं से दर्शन का आविर्भाव होता है।
हमारी मूल जिज्ञासा यही है कि हम क्या हैं तथा हमारे होने और न होने के बीच इस अज्ञात शक्ति से हमारा क्या संबंध है ? जो कुछ भी हम देखते हैं उसका चतुर्दिक विकास हमारी बुद्धि के वृत्त में आ जाता है, वस्तुतः यहीं से दर्शन का आविर्भाव होता है।
दो शब्द
दर्शन वे शास्त्र हैं जिनमें प्रकृति, आत्मा, परमात्मा और जीवन के अंतिम
लक्ष्य का विवेचन है। ये संख्या में छह कहे गए हैं, जिनमें मोक्ष प्राप्त
करना तथा ईश्वर में लीन हो जाना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य बताया गया है। ये
छह दर्शन हैं-
1. पूर्व मीमांसा-जैमिनी इसके प्रवर्तक हैं। ये व्यास जी के शिष्य थे। इसमें आप्त शब्द निर्देश तथा सजल प्रक्रिया का विश्लेषण है।
2. उत्तर मीमांसा- वेद व्यास इसके प्रवर्तक हैं। पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा दोनों को मिलाकर वेदांत नाम दिया गया है। शंकराचार्य इसके सबसे बड़े आचार्य हुए। इसमें अद्वैतवाद की चर्चा है तथा ब्रह्म विषयक जानकारी दी गई है।
3. न्याय- इसके आदि आचार्य गौतम हैं। इसमें पदार्थ विवेचन पर विस्तृत चर्चा है।
4. वैशेषिक- इसके रचयिता कणाद हैं। इसमें परमाणुवाद पर चर्चा है।
5. सांख्य- कपिल इसके आदि प्रवर्तक हैं। इसे निरीश्वर दर्शन कहते हैं, परंतु योग दर्शन में ईश्वर को माना गया है।
6. योग- पंतजलि इसके प्रवर्तक हैं। योग दर्शन और सांख्य दर्शन में समता अधिक होने के कारण इन दोनों को प्रायःएक ही विभाग में रखते हैं। इसमें यौगिक क्रियाओं का विस्तार है।
भारत में दर्शन या दार्शनिक विचार का आरंभ कब और कैसे हुआ, इसके विषय में दो प्रकार के दृष्टिकोण मिलते हैं और ये दोनों दृष्टिकोण महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें से एक यह मानता है कि आदिकालीन आर्य मूलतः भारत में नहीं थे; वे भारत में बाहर से आए थे और उनके सामने परब्रह्म की चिंता इतनी नहीं थी जितनी अपने जीवन में सुखमय स्वरूप की।
भारत के आर्य मृत्यु के बाद जीवन के विषय में उतने चिंतित नहीं थे जितने जीवन के जीने में। उनकी कुछ विशेषताएं इस प्रकार थीं :
• जीवन को पूर्णता और विविधता में देखना।
• रहस्यमयता के प्रति उपेक्षा का भाव।
• यथार्थ के प्रति लगाव।
• अर्थात् भारत के मूल निवासियों (उनके अनुसार जो आर्यों को मूल निवासी नहीं मानते) के पास एक विचार प्रक्रिया थी, चिंतन का स्वरूप था तथा लिपि और वर्णमाला भी थी। अब वे लोग क्या थे; इस पर अलग-अलग विचार मिलते हैं और यह कहा जाता है कि जीवन को जीने वाले आर्य इन मूल लोगों पर आक्रमण करते थे और इनकी धन-सम्पत्ति लूट लेते थे। इस प्रकार दो प्रकार की संस्कृतियों के संघर्ष में एक वैचारिक भूख का आविर्भाव हुआ।
प्रकृति ने हमेशा ही जहाँ मनुष्य का मनोरंजन किया है, वहाँ उसके सामने बहुत सारी चुनौतियाँ भी खड़ी की हैं। अनेक बार उसके जीवन को बहुत कठिनाई में डाला और प्रारंभ से ही अब तक मनुष्य की सारी संस्कृति और सभ्यता प्रकृति के रहस्यों को सुलझाने में लगी है। इस तरह मनुष्य-सूर्य, चंद्रमा, प्रकाश, अंधकार, मेघों का गर्जन, बाढ़, जल प्लावन, भूकंप आदि से बहुत डरता रहा है और इनके विषय में सोचता रहा है।
सामान्यतः प्रकृति के रहस्यों को सुलझाने की प्रक्रिया में संस्कृति और सभ्यता का विकास हुआ, एवं ब्रह्मांड के स्वरूप को समझने और विश्लेषण करने में दर्शनों का आविर्भाव हुआ। भारत के सभी छहों दर्शनों का विश्लेषण आस्थावादी दृष्टि से भी किया जाता है और भौतिकवादी दृष्टि से भी।
वह मतभेदों से परिपूर्ण है, मतभेद विवेचक आचार्यों के हैं, क्योंकि उनके अनुभव एक दूसरे की दृष्टि में अलग रहे हैं और दर्शन मूलतः अनुभव का आघात करने वाली जागतिक स्थितियों का विश्लेषण है। भारतीय दर्शनों में जो परस्पर विरोधी बातें लगती है वे दृष्टिकोण के आधार पर हैं, मूल में विरोध नहीं है।
हम इस बात को नहीं मानते कि आर्य लोग प्रकृति के नियमों से अनभिज्ञ थे और उन्होंने भय से सामान्य जीवन को नियंत्रित करने वाली शक्तियों को अलौकिक शक्तियां बना दिया। किंतु वेदों में प्राप्त बहुत सारे कथनों से एक विशेष प्रकार के संघर्षों का अनुमान होता है।
जैसे एक स्थान पर कहा गया है-
‘‘हे इंद्र ! हमें आनंद और अमरता दो।
शत्रुओं का नाश करने के लिए हमें आवश्यक बल दो।
हमें समृद्धि दो और संरक्षण प्रदान करो।
इस प्रकार की अभिव्यक्ति में मूल भाव, जिसकी ओर हम ध्यान दिलाना चाहते हैं, वह यह है कि प्रकृति की शक्तियों के प्रति एक रहस्य भाव उस समय के आर्यों में था। वहां हमें महज शक्ति के रूप में इंद्र, वरुण, अग्नि आदि मिलते हैं। जैसे अग्नि के लिए कहा गया है-
‘‘अग्निदेव ! तुम शरीर के रक्षक, हमारी रक्षा करो।
तुम दीर्घायु देने वाले हो,
हमें दीर्घ आयु दो।
वेदों में एक विशेष बात यह देखने को मिलती है कि वहां शिव का उल्लेख नहीं है किंतु रुद्र का है। रुद्र और पर्जन्य आदि वायुमंडल के देवता माने जाते हैं। हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि दर्शन के एकत्व का प्रारंभ शायद उस स्थान में होता है, जहां सबको एक कहा गया है।
उदाहरण के लिए :
‘‘अग्नि भी वही है, आदित्य भी वही;
वायु भी वही है, चंद्रमा भी वही;
प्रकाश भी वही है, ब्रह्म भी वही;
जल भी वही है, प्रजापति भी वही।’’
अब यदि इसे हम बाद के उस एकत्व से तुलना करें जिसमें आत्मा परमात्मा को अलग और एक माना गया है। जहाँ पर ब्रह्म के अनेक नामों में परम, अनादि, अनंत, पुरुष की भी गिनती की गई है तो मूलतः दर्शन के स्वरूप का वहां प्रारंभ माना जा सकता है, जहाँ परम को पुरुष के रूप में माना गया है और संसार को उसका एक अंग। उस पुरुष को ब्रह्मांड पुरुष कहा गया है। इस प्रकार सृष्टि की स्तुति भी आर्यों की ऐसी अनुसंधानपरक अभिव्यक्ति है, जिसे दर्शन के प्रारंभ के रूप में देखा जा सकता है।
असत नहीं था, सत भी नहीं था। रज नहीं था न ही उसके पार का आकाश था। क्या ऊंचा और क्या नीचा था ? गहन गंभीर पानी कहाँ था ? और ब्रह्मांड कहां था ? मृत्यु नहीं थी, अमरत्व भी नहीं था। न तो रात का कोई चिह्न था और दिन का। अपनी आंतरिक शक्ति से परमेश्वर ने वायुहीन श्वास लिया। उनसे परे और कुछ नहीं था। पहले अंधकार था-अंधकार से ही आवृत्त। अन्य किसी चिह्न के बिना, जो भेद का सूचक हो, सर्वत्र जल था। अमूर्त से सब ढका हुआ था। अपनी स्वयं की महिमा और तप से वह स्थित था। सबसे पहले कामना उत्पन्न हुई। फिर मन से सर्वप्रथम बीज उत्पन्न हुआ था। ऋषियों ने अपने हृदय से; बुद्धिमत्ता से सोचते हुए, असत में सत को देखा। किंतु निश्चित रूप से कौन जानता है ?
किसने बताया कि उद्भव किसमें से हुआ और यह सृष्टि कहाँ से आई ? देवगण भी सृष्टि के बाद के हैं। तब कौन जान सकता है कि इसका उद्भव कहाँ से हुआ ? इसे किसने रचा ? या नहीं भी रचा ? परम आकाश में जो नियामक के रूप में स्थित है, वहा जानता होगा। न भी जानता हो। यह सारा विवेचन भारतीय दर्शनों के स्वरूप में थोड़ा बहुत मिलता है क्योंकि हमारी मूल जिज्ञासा यही है कि हम क्या हैं और हमारे होने न होने के बीच इस अज्ञात शक्ति से हमारा क्या संबंध है ? जो कुछ भी हम देखते हैं इसका विकास तो हमारे बु्द्धि के वृत्त में आ जाता है, किंतु इसकी उत्पत्ति पर ही सबसे बड़ा प्रश्न है और इस प्रश्न से ही दर्शन का आविर्भाव होता है।
प्रस्तुत पुस्तक में दर्शन के इन्हीं महत्त्वपूर्ण प्रश्नों की चर्चा की गई है।
1. पूर्व मीमांसा-जैमिनी इसके प्रवर्तक हैं। ये व्यास जी के शिष्य थे। इसमें आप्त शब्द निर्देश तथा सजल प्रक्रिया का विश्लेषण है।
2. उत्तर मीमांसा- वेद व्यास इसके प्रवर्तक हैं। पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा दोनों को मिलाकर वेदांत नाम दिया गया है। शंकराचार्य इसके सबसे बड़े आचार्य हुए। इसमें अद्वैतवाद की चर्चा है तथा ब्रह्म विषयक जानकारी दी गई है।
3. न्याय- इसके आदि आचार्य गौतम हैं। इसमें पदार्थ विवेचन पर विस्तृत चर्चा है।
4. वैशेषिक- इसके रचयिता कणाद हैं। इसमें परमाणुवाद पर चर्चा है।
5. सांख्य- कपिल इसके आदि प्रवर्तक हैं। इसे निरीश्वर दर्शन कहते हैं, परंतु योग दर्शन में ईश्वर को माना गया है।
6. योग- पंतजलि इसके प्रवर्तक हैं। योग दर्शन और सांख्य दर्शन में समता अधिक होने के कारण इन दोनों को प्रायःएक ही विभाग में रखते हैं। इसमें यौगिक क्रियाओं का विस्तार है।
भारत में दर्शन या दार्शनिक विचार का आरंभ कब और कैसे हुआ, इसके विषय में दो प्रकार के दृष्टिकोण मिलते हैं और ये दोनों दृष्टिकोण महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें से एक यह मानता है कि आदिकालीन आर्य मूलतः भारत में नहीं थे; वे भारत में बाहर से आए थे और उनके सामने परब्रह्म की चिंता इतनी नहीं थी जितनी अपने जीवन में सुखमय स्वरूप की।
भारत के आर्य मृत्यु के बाद जीवन के विषय में उतने चिंतित नहीं थे जितने जीवन के जीने में। उनकी कुछ विशेषताएं इस प्रकार थीं :
• जीवन को पूर्णता और विविधता में देखना।
• रहस्यमयता के प्रति उपेक्षा का भाव।
• यथार्थ के प्रति लगाव।
• अर्थात् भारत के मूल निवासियों (उनके अनुसार जो आर्यों को मूल निवासी नहीं मानते) के पास एक विचार प्रक्रिया थी, चिंतन का स्वरूप था तथा लिपि और वर्णमाला भी थी। अब वे लोग क्या थे; इस पर अलग-अलग विचार मिलते हैं और यह कहा जाता है कि जीवन को जीने वाले आर्य इन मूल लोगों पर आक्रमण करते थे और इनकी धन-सम्पत्ति लूट लेते थे। इस प्रकार दो प्रकार की संस्कृतियों के संघर्ष में एक वैचारिक भूख का आविर्भाव हुआ।
प्रकृति ने हमेशा ही जहाँ मनुष्य का मनोरंजन किया है, वहाँ उसके सामने बहुत सारी चुनौतियाँ भी खड़ी की हैं। अनेक बार उसके जीवन को बहुत कठिनाई में डाला और प्रारंभ से ही अब तक मनुष्य की सारी संस्कृति और सभ्यता प्रकृति के रहस्यों को सुलझाने में लगी है। इस तरह मनुष्य-सूर्य, चंद्रमा, प्रकाश, अंधकार, मेघों का गर्जन, बाढ़, जल प्लावन, भूकंप आदि से बहुत डरता रहा है और इनके विषय में सोचता रहा है।
सामान्यतः प्रकृति के रहस्यों को सुलझाने की प्रक्रिया में संस्कृति और सभ्यता का विकास हुआ, एवं ब्रह्मांड के स्वरूप को समझने और विश्लेषण करने में दर्शनों का आविर्भाव हुआ। भारत के सभी छहों दर्शनों का विश्लेषण आस्थावादी दृष्टि से भी किया जाता है और भौतिकवादी दृष्टि से भी।
वह मतभेदों से परिपूर्ण है, मतभेद विवेचक आचार्यों के हैं, क्योंकि उनके अनुभव एक दूसरे की दृष्टि में अलग रहे हैं और दर्शन मूलतः अनुभव का आघात करने वाली जागतिक स्थितियों का विश्लेषण है। भारतीय दर्शनों में जो परस्पर विरोधी बातें लगती है वे दृष्टिकोण के आधार पर हैं, मूल में विरोध नहीं है।
हम इस बात को नहीं मानते कि आर्य लोग प्रकृति के नियमों से अनभिज्ञ थे और उन्होंने भय से सामान्य जीवन को नियंत्रित करने वाली शक्तियों को अलौकिक शक्तियां बना दिया। किंतु वेदों में प्राप्त बहुत सारे कथनों से एक विशेष प्रकार के संघर्षों का अनुमान होता है।
जैसे एक स्थान पर कहा गया है-
‘‘हे इंद्र ! हमें आनंद और अमरता दो।
शत्रुओं का नाश करने के लिए हमें आवश्यक बल दो।
हमें समृद्धि दो और संरक्षण प्रदान करो।
इस प्रकार की अभिव्यक्ति में मूल भाव, जिसकी ओर हम ध्यान दिलाना चाहते हैं, वह यह है कि प्रकृति की शक्तियों के प्रति एक रहस्य भाव उस समय के आर्यों में था। वहां हमें महज शक्ति के रूप में इंद्र, वरुण, अग्नि आदि मिलते हैं। जैसे अग्नि के लिए कहा गया है-
‘‘अग्निदेव ! तुम शरीर के रक्षक, हमारी रक्षा करो।
तुम दीर्घायु देने वाले हो,
हमें दीर्घ आयु दो।
वेदों में एक विशेष बात यह देखने को मिलती है कि वहां शिव का उल्लेख नहीं है किंतु रुद्र का है। रुद्र और पर्जन्य आदि वायुमंडल के देवता माने जाते हैं। हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि दर्शन के एकत्व का प्रारंभ शायद उस स्थान में होता है, जहां सबको एक कहा गया है।
उदाहरण के लिए :
‘‘अग्नि भी वही है, आदित्य भी वही;
वायु भी वही है, चंद्रमा भी वही;
प्रकाश भी वही है, ब्रह्म भी वही;
जल भी वही है, प्रजापति भी वही।’’
अब यदि इसे हम बाद के उस एकत्व से तुलना करें जिसमें आत्मा परमात्मा को अलग और एक माना गया है। जहाँ पर ब्रह्म के अनेक नामों में परम, अनादि, अनंत, पुरुष की भी गिनती की गई है तो मूलतः दर्शन के स्वरूप का वहां प्रारंभ माना जा सकता है, जहाँ परम को पुरुष के रूप में माना गया है और संसार को उसका एक अंग। उस पुरुष को ब्रह्मांड पुरुष कहा गया है। इस प्रकार सृष्टि की स्तुति भी आर्यों की ऐसी अनुसंधानपरक अभिव्यक्ति है, जिसे दर्शन के प्रारंभ के रूप में देखा जा सकता है।
असत नहीं था, सत भी नहीं था। रज नहीं था न ही उसके पार का आकाश था। क्या ऊंचा और क्या नीचा था ? गहन गंभीर पानी कहाँ था ? और ब्रह्मांड कहां था ? मृत्यु नहीं थी, अमरत्व भी नहीं था। न तो रात का कोई चिह्न था और दिन का। अपनी आंतरिक शक्ति से परमेश्वर ने वायुहीन श्वास लिया। उनसे परे और कुछ नहीं था। पहले अंधकार था-अंधकार से ही आवृत्त। अन्य किसी चिह्न के बिना, जो भेद का सूचक हो, सर्वत्र जल था। अमूर्त से सब ढका हुआ था। अपनी स्वयं की महिमा और तप से वह स्थित था। सबसे पहले कामना उत्पन्न हुई। फिर मन से सर्वप्रथम बीज उत्पन्न हुआ था। ऋषियों ने अपने हृदय से; बुद्धिमत्ता से सोचते हुए, असत में सत को देखा। किंतु निश्चित रूप से कौन जानता है ?
किसने बताया कि उद्भव किसमें से हुआ और यह सृष्टि कहाँ से आई ? देवगण भी सृष्टि के बाद के हैं। तब कौन जान सकता है कि इसका उद्भव कहाँ से हुआ ? इसे किसने रचा ? या नहीं भी रचा ? परम आकाश में जो नियामक के रूप में स्थित है, वहा जानता होगा। न भी जानता हो। यह सारा विवेचन भारतीय दर्शनों के स्वरूप में थोड़ा बहुत मिलता है क्योंकि हमारी मूल जिज्ञासा यही है कि हम क्या हैं और हमारे होने न होने के बीच इस अज्ञात शक्ति से हमारा क्या संबंध है ? जो कुछ भी हम देखते हैं इसका विकास तो हमारे बु्द्धि के वृत्त में आ जाता है, किंतु इसकी उत्पत्ति पर ही सबसे बड़ा प्रश्न है और इस प्रश्न से ही दर्शन का आविर्भाव होता है।
प्रस्तुत पुस्तक में दर्शन के इन्हीं महत्त्वपूर्ण प्रश्नों की चर्चा की गई है।
-लेखक
1
वेदांत दर्शन
भारतीय दर्शनों के विकास में प्रमुख स्थान देने वाली बात यह है कि वैदिक
कालीन कर्म-कांडों में जीवन के प्रति सौंदर्य और यथार्थ-परक दृष्टि थी
किंतु उपासना-पद्धति के मूल यज्ञ में इंद्र, सोम, वरुण आदि अदृश्य देवताओं
के प्रति भावना की अभिव्यक्ति भी प्रमुख थी। भौतिक ऐश्वर्यमय जीवन की
प्रमुखता के साथ उन्होंने प्राकृतिक शक्तियों को देवत्व का दर्जा दिया।
आर्येतक और आर्यो के संघर्ष के बीच अलौकिक शक्तियों ने अधिक स्थान प्राप्त किया।
दर्शनों के आविर्भाव और विकास में भी पर्याप्त मतभेद है। लेकिन इतना अवश्य है कि थोड़े बहुत समय के आगे-पीछे लगभग सभी दर्शन अस्तित्व में आए।
भारतीय दर्शन के विकास में वेदांत दर्शन का ‘सर्वाधिक महत्त्व है। वेदांत का अर्थ है-वेदों में प्राप्त ज्ञान का अंतिम रूप अर्थात् वेदों का अंतिम भाग। यह भाग उपनिषदों की व्याख्या और विवेचना पर आधिरत है। भारतीय दर्शन के अनेक आचार्यों का मत है कि उपनिषदों में जो तत्व चितंन किया गया है या जो दार्शनिक विचार प्रतिपादित किया गया है, उसे बादरायण जैसे चिंतकों ने कुछ कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास किया।
अनेक ग्रंथों से हमें यह ज्ञात होता है कि ईसा से सात-आठ सौ साल पहले वेदांत एक दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित हो गया था।
वेदांत का मूल है-‘‘संसार की सभी वस्तुओं का मूल आधार चेतना अथवा आत्मा है और उसी चेतना में दिखाई देने वाले तत्त्वों का विलीन हो जाना है।’’
इस दर्शन का मूल सूत्र एक प्रश्न है, और वह यह है कि प्रकृति में गति का सबसे पहला कारण क्या है ? ब्रह्म सूत्र इसका उत्तर देता है कि ब्रह्म सबका कारण है और ब्रह्म ही परम तत्त्व है। ब्रह्म सूत्र ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ की मूल व्याख्या इस प्रकार है-
‘‘अचेतन पदार्थ तभी सक्रिय होता है जब उसमें ज्ञान की निर्देशक क्रिया होती है। अतः प्रारंभिक कारण ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।’’ सूत्र ने ब्रह्मा की परिभाषा इस प्रकार की है-‘जन्माद्यस्य यतः’ अर्थात् वह जिससे इस विश्व के जन्म आदि ‘जीवन-मरण इत्यादि’ हैं। इस सूत्र से संबंधित वाक्य तैत्तिरीय उपनिषद् में है, जिसमें कहा गया है; वह जिससे ये प्राणी जन्म लेते हैं, वह जिससे जन्म लेने के बाद वे जीवित रहते हैं, वह जिसमें जीवन समाप्त होने पर वे लीन हो जाते हैं-उसको ही जानने का प्रयत्न करो। वह ही ब्रह्म है।
‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ की व्याख्या इस रूप में भी की जा सकती है कि अब हम ब्रह्म को जानने की इच्छा करते हैं। जब हम किसी भी वस्तु को देखते हैं तो सबसे बड़ा प्रश्न हमारे सामने आता है कि यह वस्तु किसने बनाई, क्यों बनी और इसका कारण क्या है ? इसी आधार पर सारे दर्शनों की व्याख्या की जाती है, क्योंकि जब कोई वस्तु हमारे सामने है तो उसका कोई कारण भी होगा; उसको बनाने वाला होगा। यह बनाने वाला कैसा है ?
उसका रूप कैसा है ? वह कहाँ है ?-ये सारे प्रश्न जिज्ञासा के ही रूप हैं। इसलिए यदि यह माना जाए कि ब्रह्म उस चेतना का कारण है, या वह स्वयं चेतना है, तो फिर जो कुछ हमें दिखाई देता है, उसका और उस चेतना का क्या संबंध है ? इसी बात की व्याख्या करने के लिए विभिन्न रूपों में कई तरह की बातें कही गई हैं और बादरायण ने इन बातों के बीच एक मुख्य प्रणाली की स्थापना की कोशिश की।
मनुष्य के जीवन और दृश्यमान संसार में एक विशेष संबंध का अनुभव होता है। किंतु मनुष्य और ब्रह्म का संबंध क्या है ? वेदांत के पहले पक्ष में जीव और ब्रह्म के संबंध का प्रतिपादन है। दूसरे में उसकी प्रमाणिकता सिद्ध की गई है। कि वह किस रूप में पहली व्याख्याओं के अनुसार ठीक बैठती हैं। तीसरे पक्ष में ब्रह्म को पाने का उपाय बताया गया है और चौथे पक्ष में आत्मा की अजरता और अमरता का प्रतिपादन करते हुए ब्रह्म-प्राप्ति या ब्रह्म अनुभव के लाभ बताए गए हैं।
यदि संक्षेप में कहा जाए तो जगत् का कारण चेतन है। वेदांत दर्शन यह नहीं मानता कि अचेतन प्रधान है और अविकसित पदार्थ चेतन का कारण है। वेदांत के अनुसार ब्रह्म ही चेतन बुद्धि तत्त्व है। इस संसार को देखकर इसके निर्माता के जानने की इच्छा ही ब्रह्म की जिज्ञासा कही गई है।
एक सूत्र है-जन्माद्यस्य यतः-अब यदि हम इसके विषय में विचार करें तो यह जानना होता है कि विश्व का जन्म या उत्पत्ति, रहना या स्थिति समाधि या प्रलय, जिससे होती है, वही ब्रह्म है। तो यह बात सामने आई कि संसार में जन्मस्थिति और प्रलय का कारण ब्रह्म है तो फिर ब्रह्म जगत् का कौन-सा कारण है ? किसी भी वस्तु के बनने के तीन कारण होते हैं-
आर्येतक और आर्यो के संघर्ष के बीच अलौकिक शक्तियों ने अधिक स्थान प्राप्त किया।
दर्शनों के आविर्भाव और विकास में भी पर्याप्त मतभेद है। लेकिन इतना अवश्य है कि थोड़े बहुत समय के आगे-पीछे लगभग सभी दर्शन अस्तित्व में आए।
भारतीय दर्शन के विकास में वेदांत दर्शन का ‘सर्वाधिक महत्त्व है। वेदांत का अर्थ है-वेदों में प्राप्त ज्ञान का अंतिम रूप अर्थात् वेदों का अंतिम भाग। यह भाग उपनिषदों की व्याख्या और विवेचना पर आधिरत है। भारतीय दर्शन के अनेक आचार्यों का मत है कि उपनिषदों में जो तत्व चितंन किया गया है या जो दार्शनिक विचार प्रतिपादित किया गया है, उसे बादरायण जैसे चिंतकों ने कुछ कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास किया।
अनेक ग्रंथों से हमें यह ज्ञात होता है कि ईसा से सात-आठ सौ साल पहले वेदांत एक दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित हो गया था।
वेदांत का मूल है-‘‘संसार की सभी वस्तुओं का मूल आधार चेतना अथवा आत्मा है और उसी चेतना में दिखाई देने वाले तत्त्वों का विलीन हो जाना है।’’
इस दर्शन का मूल सूत्र एक प्रश्न है, और वह यह है कि प्रकृति में गति का सबसे पहला कारण क्या है ? ब्रह्म सूत्र इसका उत्तर देता है कि ब्रह्म सबका कारण है और ब्रह्म ही परम तत्त्व है। ब्रह्म सूत्र ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ की मूल व्याख्या इस प्रकार है-
‘‘अचेतन पदार्थ तभी सक्रिय होता है जब उसमें ज्ञान की निर्देशक क्रिया होती है। अतः प्रारंभिक कारण ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।’’ सूत्र ने ब्रह्मा की परिभाषा इस प्रकार की है-‘जन्माद्यस्य यतः’ अर्थात् वह जिससे इस विश्व के जन्म आदि ‘जीवन-मरण इत्यादि’ हैं। इस सूत्र से संबंधित वाक्य तैत्तिरीय उपनिषद् में है, जिसमें कहा गया है; वह जिससे ये प्राणी जन्म लेते हैं, वह जिससे जन्म लेने के बाद वे जीवित रहते हैं, वह जिसमें जीवन समाप्त होने पर वे लीन हो जाते हैं-उसको ही जानने का प्रयत्न करो। वह ही ब्रह्म है।
‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ की व्याख्या इस रूप में भी की जा सकती है कि अब हम ब्रह्म को जानने की इच्छा करते हैं। जब हम किसी भी वस्तु को देखते हैं तो सबसे बड़ा प्रश्न हमारे सामने आता है कि यह वस्तु किसने बनाई, क्यों बनी और इसका कारण क्या है ? इसी आधार पर सारे दर्शनों की व्याख्या की जाती है, क्योंकि जब कोई वस्तु हमारे सामने है तो उसका कोई कारण भी होगा; उसको बनाने वाला होगा। यह बनाने वाला कैसा है ?
उसका रूप कैसा है ? वह कहाँ है ?-ये सारे प्रश्न जिज्ञासा के ही रूप हैं। इसलिए यदि यह माना जाए कि ब्रह्म उस चेतना का कारण है, या वह स्वयं चेतना है, तो फिर जो कुछ हमें दिखाई देता है, उसका और उस चेतना का क्या संबंध है ? इसी बात की व्याख्या करने के लिए विभिन्न रूपों में कई तरह की बातें कही गई हैं और बादरायण ने इन बातों के बीच एक मुख्य प्रणाली की स्थापना की कोशिश की।
मनुष्य के जीवन और दृश्यमान संसार में एक विशेष संबंध का अनुभव होता है। किंतु मनुष्य और ब्रह्म का संबंध क्या है ? वेदांत के पहले पक्ष में जीव और ब्रह्म के संबंध का प्रतिपादन है। दूसरे में उसकी प्रमाणिकता सिद्ध की गई है। कि वह किस रूप में पहली व्याख्याओं के अनुसार ठीक बैठती हैं। तीसरे पक्ष में ब्रह्म को पाने का उपाय बताया गया है और चौथे पक्ष में आत्मा की अजरता और अमरता का प्रतिपादन करते हुए ब्रह्म-प्राप्ति या ब्रह्म अनुभव के लाभ बताए गए हैं।
यदि संक्षेप में कहा जाए तो जगत् का कारण चेतन है। वेदांत दर्शन यह नहीं मानता कि अचेतन प्रधान है और अविकसित पदार्थ चेतन का कारण है। वेदांत के अनुसार ब्रह्म ही चेतन बुद्धि तत्त्व है। इस संसार को देखकर इसके निर्माता के जानने की इच्छा ही ब्रह्म की जिज्ञासा कही गई है।
एक सूत्र है-जन्माद्यस्य यतः-अब यदि हम इसके विषय में विचार करें तो यह जानना होता है कि विश्व का जन्म या उत्पत्ति, रहना या स्थिति समाधि या प्रलय, जिससे होती है, वही ब्रह्म है। तो यह बात सामने आई कि संसार में जन्मस्थिति और प्रलय का कारण ब्रह्म है तो फिर ब्रह्म जगत् का कौन-सा कारण है ? किसी भी वस्तु के बनने के तीन कारण होते हैं-
(1) उपादान कारण
जिससे कोई चीज बनती है; जैसे मिट्टी से घड़ा बनता है तो मिट्टी उपादान
कारण हुई।
(2) निमित्त कारण
जो उसे बनाता है-कुम्हार घड़े को बनाता है, वह उसका निमित्त कारण होता है।
(3) साधारण कारण
जिसकी सहायता से चीज बनती है-चाक, आग, पानी आदि; इन सभी कारणों में यदि
कोई एक कारण न हो तो भी वस्तु का निर्माण नहीं होगा।
अब एक दूसरे तत्त्व का विचार किया जा सकता है-यजुर्वेद में कहा गया है-‘‘उस सर्वपूजनीय यज्ञ रूप परमात्मा से ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद उत्पन्न हुए।’’ इसके अनुसार आदि गुरु केवल परमात्मा है। उसी ने सभी पदार्थ बनाए और जीवों को ज्ञान दिया। क्योंकि बिना ज्ञान के पदार्थ का उपयोग नहीं हो सकता।
एक सूत्र में कहा गया है कि वह तो समन्वय से है अर्थात् वेद में जो अभिन्नता पाई जाती है उससे यह सिद्ध होता है कि दोनों का कर्ता एक ही है। संसार में हम जो कुछ भी देखते हैं, उसका ज्ञान हमें वेद से मिलता है। और जिसने जगत् को बनाया, उसी ने वेद की रचना की।
अब एक दूसरे तत्त्व का विचार किया जा सकता है-यजुर्वेद में कहा गया है-‘‘उस सर्वपूजनीय यज्ञ रूप परमात्मा से ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद उत्पन्न हुए।’’ इसके अनुसार आदि गुरु केवल परमात्मा है। उसी ने सभी पदार्थ बनाए और जीवों को ज्ञान दिया। क्योंकि बिना ज्ञान के पदार्थ का उपयोग नहीं हो सकता।
एक सूत्र में कहा गया है कि वह तो समन्वय से है अर्थात् वेद में जो अभिन्नता पाई जाती है उससे यह सिद्ध होता है कि दोनों का कर्ता एक ही है। संसार में हम जो कुछ भी देखते हैं, उसका ज्ञान हमें वेद से मिलता है। और जिसने जगत् को बनाया, उसी ने वेद की रचना की।
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अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
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