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स्त्री-पुरुष संबंध >> मन के मीत

मन के मीत

शान्ता कुमार

प्रकाशक : भारतीय प्रकाशन संस्थान प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3509
आईएसबीएन :81-88122-27-0

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एक मार्मिक उपन्यास...

Man Ke Meet

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


‘‘तुम्हारा कौन है जिसे लिखा जाए ?’’ गीता कुछ देर सोचती रही। फिर उसने एक ठंडी साँस छोड़ी और बोली, ‘‘साहब, मेरा तो कोई भी नहीं है।’’ ‘‘क्यों, कोई संबंधी तो होगा ही ?’’ ‘‘जो थे भी, वे मुझे छोड़ चुके हैं। उन्होंने मेरे साथ कोई संबंध नही रखा है। इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे लिख भेजा है कि मैं उन्हें कभी भी पत्र न लिखूँ।’’ श्री नारंग सोचते-सोचते चुप बैठे रहे। ‘‘पर कोई तो तुम्हारा होगा ही ?’’ उन्होंने मौन तोड़ा। ‘‘अब तो मेरा अपना-आप भी अपना नहीं है...और कोई क्या हो सकता है ?’’ ‘‘क्या मतलब तुम्हारा ?’’ ‘‘डिप्टी साहब ! भगवान् की नजर में पापिन हूँ, समाज की नजर में कलंकित हूँ, कानून की नजर में अपराधिनी हूँ। रसा-बसा घर उजड़ गया। उस घोसले के तिनके भी अब कभी इकट्ठे नहीं होंगे। दुर्भाग्य की आँधी में धूल से मलिन होकर उड़ते, ठोकर खाते तिनके का दुनिया में कौन हो सकता है !’’...

उपरोक्त पंक्तियों जैसे अनेक दृष्टांतों द्वारा ह्रदय को छू लेने वाला एक मर्मस्पर्शी उपन्यास, जिसमें जेल-जीवन के साथ-साथ मानवीय रिश्तों की अनूठी भूमिका का भी मार्मिक चित्रण है।

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