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शनि उपासना

राधाकृष्ण श्रीमाली

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :151
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3645
आईएसबीएन :81-288-0219-4

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प्रस्तुत है शनि उपासना...

Shani Upasna

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वैदिक साहित्य में उपासना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हिन्दू धर्म के सभी मतावलम्बी-वैष्णव, शैव, शाक्त तथा सनातन धर्मावलम्बी-उपासना का ही आश्रय ग्रहण करते हैं।
यह अनुभूत सत्य है कि मन्त्रों में शक्ति होती है। परन्तु मन्त्रों की क्रमबद्धता, शुद्ध उच्चारण और प्रयोग का ज्ञान भी परम आवश्यक है। जिस प्रकार कई सुप्त व्यक्तियों में से जिस व्यक्ति के नाम का उच्चारण होता है, उसकी निद्रा भंग हो जाती है, अन्य सोते रहते हैं उसी प्रकार शुद्ध उच्चारण से ही मन्त्र प्रभावशाली होते हैं और देवों को जाग्रत करते हैं।
क्रमबद्धता भी उपासना का महत्त्वपूर्ण भाग है। दैनिक जीवन में हमारी दिनचर्या में यदि कहीं व्यतिक्रम हो जाता है तो कितनी कठिनाई होती है, उसी प्रकार उपासना में भी व्यतिक्रम कठिनाई उत्पन्न कर सकता है।
अतः उपासना-पद्धति में मंत्रों का शुद्ध उच्चारण तथा क्रमबद्ध प्रयोग करने से ही अर्थ चतुष्टय की प्राप्ति कर परम लक्ष्य-मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। इसी श्रृंखला में प्रस्तुत है-शनि उपासना।

प्राक्कथन

कम श्रम अधिक लाभ, भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति, ऐश्वर्य लाभ, दीर्घायु होने व स्वस्थ रहने, विघ्न-बाधाओं को नाश करने, गृह-शान्ति, कलह से मुक्ति, ईश-भक्ति, कुटुम्ब-वृद्धि, योग्य संतान उत्पन्न होने, संघर्ष से मुक्ति जैसी इच्छाएं मानव मात्र की सदैव से रही है और वह निरन्तर इसके लिए प्रयत्नशील रहता है। हां, उक्ति प्राप्ति के जहां अनेकानेक साधन हैं, वहीं प्रभु-स्मरण, भगवद्-भक्ति, यन्त्र-मन्त्र भी एक सारभूत उपाय हैं।

आज का मानव, आज का समाज (मैं किसी पर आक्षेप नहीं करता) अभक्ष्य या भक्षण कर कामाचारी होने, कामवासना की ओर अधिक झुकने, श्रम के प्रति अनास्था, विवेक का अभाव, अन्याय अवगुणों के साथ-साथ अधिक-से-अधिक ऐश्वर्य-साधन जुटाने की भावना और गलत कार्यों के प्रति, व्यामोह में फंस कर आज मानव पदच्युत कर्तव्यों से भ्रष्ट हो गया है या होता जा रहा है। समीक्षा कम, आलोचना अधिक, धार्मिकता का अभाव, परमपिता परमात्मा के प्रति अनास्था, आलोचना अधिक बढ़ती जा रही है। जो थोड़ी-बहुत भक्ति, ईश्वरनिष्ठा या जहां आध्यात्मिकता शेष बची है वहीं धूर्तता, पाखण्ड, व्यर्थ प्रदर्शन, दम्भ व अन्याय दुष्प्रवृत्तियां बढ़ती जा रही हैं।

ऐसे ही समय में, भ्रष्टाचार की दुरुहवेला में, परेशानी भरे वातावरण में, विषम परिस्थितियों में शनि उपासना आवश्यक ही नहीं, परमावश्यक है। इससे हमारे शक्ति और ब्रह्मचर्य की रक्षा, दास्यभाव, भक्तिभाव, शक्ति-सम्पन्नता, आयुर्बल वृद्ध, श्री की प्राप्ति, बुद्धि में सहायता मिलती है। कुछ भी कहने, विरोध करने, आलोचना करने के पूर्व स्वयं निष्ठापूर्वक उपासना करके देखें, यही मात्र कहूंगा।

उपासना का अर्थ ही है इष्ट से एकाकार। जिस उपासना के द्वारा व्यक्ति अपने इष्ट देव में तथा उसके गुणरूप, धर्मरूप, स्वरूप रूप, शक्तिरूप में तदाकारता, एकात्मकता प्राप्त कर ले, यही उपासना है। जिनका पक्ष शनि ले लें उसके लिए असंभव क्या है ! वह समाज में, राष्ट्र में अपना वर्चस्व सहज ही स्थापित कर लेता है। भला उसे कौन हरा सकता है ! स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का लाभ होता है, और जिसका शरीर और मस्तिष्क स्वस्थ हो उसके लिए असंभव क्या है ! उनकी भक्ति-शक्ति के आगे मद चूर-चूर हो जाता है। उनकी शरण पा लेने पर भला टेढ़ी नजर कौन कर सकता है !
शक्ति में, भक्ति में अग्रगण्य हैं श्री शनि। ज्ञानियों में ज्ञानी, विज्ञान के ज्ञाता शास्त्र कहता है। जो आत्मा सहित दसों वायुओं पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह योगी प्राण वायु को ब्रह्माण्ड में स्थापित कर सकने में समर्थ हो जाता है।

-पं. राधाकृष्ण श्रीमाली

प्रवेश


ज्योतिष में जितना महत्त्व गणित पक्ष का है उससे कहीं अधिक महत्त्व फलित पक्ष का है। ज्योतिष और ज्योतिषी का महत्त्व स्वयं फलित पर निर्भर है। जन-सामान्य व जातक को आवश्यकता ही फलित की होती है, गणित की नहीं। ज्योतिष को यश और प्रशंसा इससे ही मिलती है। यही उसके जीवन का निर्णायक बिंदु है। भारतीय ज्योतिष में फलादेश की अनेक विधियां हैं, वह चाहे जन्म-कुण्डली हो या प्रश्न-कुण्डली, हस्तरेखा हो या अंक-विज्ञान, पर इन सबका आधार गणित ही है।

नव ग्रहों में शनि का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। वह अपना अलग ही विशिष्ट स्थान रखता है। शनि का अपना अलग ही स्वरूप उसकी अपनी अलग ही शक्ति है। कोई भी दुर्घटना हो या कुछ भी अहित हो जाए व्यापार में हानि हो जाए या गृह-कलह का वातावरण बन जाए, दहेज के कारण लड़की मर जाए या मारी जाए, परीक्षा में असफलता हो या ऐक्सीडेंट, लड़का घर से भाग जाए या कोई असाध्य रोग हो जाए, आम व्यक्ति उसका सम्बन्ध शनि से जोड़ देते हैं। हर अहित का कारण शनि के पक्ष में ही जाएगा। भारतीय ज्योतिष विषयक ग्रन्थों का अध्ययन करें तो शनि का बड़ा भयानक व विक्रत रूप सामने आता है। शनि की दृष्टि सर्वथा क्रूर मानी गई है।

पर विडम्बना है कि हमारे साथियों ने शनि को इतना विकृत, इतना डरावना, इतना क्रूर बतला दिया है। यह एक भ्रामक तथ्य है। शनि अमंगलकारी ही नहीं, मंगलकारी भी है। यह दुःख कारक नहीं, सुखकारक भी है। अशान्ति कारक नहीं, शान्तिकारक भी है। यह बाधाकारक नहीं, बाधानाशक भी है। सामान्य, अल्पज्ञ एवं अधकचरे ज्योतिषी दो-चार श्लोक रटकर, दो-चार पुस्तकें पढ़कर, दो-चार टोटके जानकर ही जनमानस में अंधविश्वास को बढ़ावा दे रहे हैं। ढैय्या या साढ़े साती जैसे शब्दों से आगे नहीं बढ़ते। वे यह कहने से भी नहीं चूकते—‘अरे ! आपका शनि तो पैरों पर है अतः दौड़-धूप ज्यादा हो रही है।’ आपका शनि सिर पर है अतः निर्णयशक्ति समाप्त हो गई है। आपका शनि तो भाग्य को देख रहा है अतः भाग्यहीनता स्वाभाविक है। आपके शनि गृहस्थ भाव को देख रहे हैं। गृहस्थी चौपट हुई समझो। जब ज्योतिषी द्वारा ऐसी-ऐसी बात कही जाती है तो हारा हुआ व्यक्ति, दुःखी और परेशान व्यक्ति घबरा जाता है। दिल बैठ जाता है, घबराकर उलटे-सीधे कार्य कर बैठता है। जब सुन लें कि साढ़ेसाती चल रही है तो यह शब्द ही ‘एटम-बम’ का कार्य करने लगता है।
सोचें-विचारें जरा ! क्या है शनि का स्वरूप ? क्या अन्यान्य ग्रह कोई काम नहीं करते ? क्या कर्म निरर्थक है ? शनि इतना दुष्ट, इतना भयंकर, इतना प्रलयकारी, इतना दुःखकारक, मृत्यु, अपमान, असफलता, हानि, परेशानी का यही कारक है। क्या शनि ही मारक है ? क्या अन्यान्य ग्रह मारक नहीं हो सकते ? ये सभी प्रश्न मन-मस्तिष्क में उथल-पुथल मचा जाते हैं। उपर्युक्त एक-एक प्रश्न-चिह्न पर सोचना होगा, विचारना होगा तभी हम इस ग्रह के प्रति न्याय कर सकेंगे ! वास्तविक मूल्यांकन नहीं किया तो भावी पीढ़ी हम ज्योतिषियों को क्षमा नहीं करेगी।

भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अन्तर्गत सूर्य, चन्द्र, बुद्ध, बृहस्पति, शुक्र और शनि सात ग्रह प्रधान तथा राहु एवं केतु छाया ग्रह हैं। शनि इन सात प्रधान ग्रहों में अन्तिम ग्रह है। अर्थात् यह ग्रह माला का अन्तिम मनका है। राशियों के अन्तर्गत मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ मीन-बारह राशियां हैं। यही बारहों राशियां सात ग्रहों में निम्न प्रकार विभक्त हैं।

क्रं. सं. राशि नाम   स्वामी ग्रह

1.मेष                  मंगल
2.वृष                   शुक्र
3.मिथुन                बुद्ध
4.कर्क                  चन्द्र
5.सिंह                  सूर्य
6.कन्या                 बुद्ध
7.तुला                  शुक्र
8.वृश्चिक                मंगल
9.धनु                    गुरु
10.मकर                  शनि
11.कुंभ                    शनि
12.मीन                   गुरु

आप देखेंगे, कि सभी ग्रह सूर्य, चन्द्र को छोड़कर दो-दो राशियों के स्वामी हैं। मंगल, मेष, वृश्चिक, शुक्र, वृष, तुला, बुद्ध, मिथुन, व कन्या, गुरु, धनु, मीन, शनि, मकर, कुंभ तथा चन्द्र सूर्य क्रमशः कर्क व सिंह के स्वामी हैं।
इसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र में अश्विन से रेवती तक 27 नक्षत्र है और यही 7 प्रमुख, 2 छाया ग्रह इन नक्षत्रों के स्वामी भी हैं—

क्रं.सं.नाम नक्षत्र            स्वामी

1.अश्विनी                    केतु
2.भरणी                      शुक्र
3.कृत्तिका                    सूर्य
4.रोहिणी                    चंद्र
5.मृगशिरा                   मंगलवार
6.आर्द्रा                        राहु
7.पुनर्वसु                      बृहस्पति
8.पुष्य                         शनि
9.आश्लेषा                      बुध
10.मघा                        केतु
11.पूर्वाफाल्गुनी              शुक्र
12.उत्तरा फाल्गुनी            सूर्य
13.हस्त                          चंद्र
14.चित्रा                         मंगल
15.स्वाति                        राहु      

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