आचार्य श्रीराम शर्मा >> आकृति देखकर मनुष्य की पहिचान आकृति देखकर मनुष्य की पहिचानश्रीराम शर्मा आचार्य
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लोगो की आकृति देखकर उनका स्वभाव पहचानना मनोरंजक तो होता ही है, परंतु इससे अधिक यह अनुभव आपको अन्य लोगों से सही व्यवहार करने में काम आता है।
इस पुस्तक में बताया गया है कि कोई दो प्राणी एक-सी आकृति के नहीं होते, सबकी आकृति में कुछ न कुछ अन्तर अवश्य पाया जाता है, कुदरत ने अपनी कारीगरी हर एक प्राणी पर अलग-अलग दर्साई है। एक साँचे में सबको ढालने की बेगार नहीं भुगती है वरन् हर एक मूर्ति को निराले तर्ज तरीके के साथ गढ़ा है। इस विभिन्नता के कारण यह उदाहरण तो नहीं बताया जा सकता कि इस प्रकार के अंग-प्रत्यंगों वाले इस प्रकार के होते हैं, क्योंकि जिस आदमी की आकृति का उदाहरण दिया जायगा उसकी जोड़ी का दूसरा आदमी सृष्टि में मिल सकना कठिन है। फिर भी कुछ मोटी-मोटी रूप रेखाऐं बताई जा सकती हैं, कुछ ऐसा श्रेणी विभाजन किया जा सकता है कि अमुक ढाँचे की अमुक आकृति हो तो उसका वह परिणाम होगा।
केवल अंग-प्रत्यंगों की बनावट से ही ठीक और अन्तिम निर्णय पर नहीं पहुँचा जा सकता। किसी व्यक्ति का लाक्षणिक परीक्षण करने के लिए उसकी चाल-ढाल, भाव-भंगिमा, तौर-तरीका, मुख-मुद्रा, बात करने, उठने-बैठने का ढंग आदि बातों पर विचार करना होगा। जिस प्रकार गंध सूँघ कर आप थैले में बन्द रखी हुई मिर्च, हींग, कपूर, इलायची अदि को बिना देखे भी जान लेते हैं उसी प्रकार शरीर के बाहरी भागों पर जो लक्षण बिखरे पड़े हैं उन्हें देखकर यह भी जान सकते हैं कि इस मनुष्य के विचार, स्वभाव तथा कार्य किस प्रकार के होंगे। यहाँ भ्रम में पड़ने की कोई बात नहीं है।
आकृति की बनावट के कारण स्वभाव नहीं बनता, वरन् स्वभाव के कारण आकृति का निर्माण होता है। स्थूल शरीर के एक धुंधली-सी छाया हर वक्त साथ-साथ फिरा करती है, सूक्ष्म शरीर की भी एक छाया है जो जरा गहराई के साथ दृष्टि डालने से लोगों की आकृति पर उड़ती हुई दिखाई देती है। पेट में जो कुछ भरा है वह बाह्य लक्षणों से प्रकट हुए बिना नहीं रहता। प्याज पेट में भीतर पहुँच जाय तो भी उसकी गंध मुँह में आती रहती है, इसी प्रकार आन्तरिक विचार और व्यवहारों की छाया चेहरे पर दिखाई देने लगती है। यही कारण है कि आम तौर पर भले बुरे की पहचान आसानी से हो सकती है, धोखा खाने या भ्रम में पड़ने के अवसर तो कभी-कभी ही सामने आते हैं।
मनुष्य के कार्य आमतौर से उसके विचारों के परिणाम होते हैं। यह विचार आन्तरिक विश्वासों का परिणाम होते हैं। दूसरे शब्दों में इसी बात को यों कहा जा सकता है कि आन्तरिक भावनाओं की प्रेरणा से ही विचार और कार्यों की उत्पत्ति होती है, जिसका हृदय जैसा होगा वह वैसे ही विचार करेगा और वैसे कार्यों में प्रवृत्त रहेगा। सम्पूर्ण शरीर और भावनाओं के चित्र बहुत कुछ झलक आते हैं, अन्य अंगों की अपेक्षा चेहरे का निर्माण अधिक कोमल तत्वों से हुआ है, मैले पानी की अपेक्षा साफ पानी में परछाई अधिक साफ दिखाई पड़ती है, इसी प्रकार अन्य अंगों की अपेक्षा चेहरे पर आन्तरिक भावनाओं का प्रदर्शन अधिक स्पष्टता के साथ होता है ! यह विचार और विश्वास जब तक निर्बल और डगमंग होते हैं तब तक तो बाद दूसरी है पर जब उग आते हैं।
आपने देखा होगा कि यदि कोई आदमी चिन्ता, शोक, क्लेश या वेदना के विचारों में डूबा हुआ बैठा होता है तो उसके चेहरे की पेशियाँ दूसरी स्थिति में होती हैं किन्तु जब वह आनन्द से प्रफुलित होता है तो होठ, पलक, गाल, कनपटी, मस्तक की चमड़ी में दूसरे ही तरह की सलवटें पड़ जाती हैं। हँसोड़ मनुष्यों की आँखों की बगल में पतली रेखाएँ पड़ जाती हैं, इसी प्रकार क्रोधी व्यक्ति की भवों में बल पड़ने की, माथे पर खिंचाव की लकीरे बन जाती हैं। इसी प्रकार अन्य प्रकार के विचारों के कारण आकृति के ऊपर जो असर पड़ता है उसके कारण कुछ खास तरह से चिह्न दाग रेखा आदि बन जाते हैं। जैसे-जैसे वे भले-बुरे विचार मजबूत और पुराने होते जाते हैं वैसे ही वैसे चिह्न भी स्पष्ट तथा गहरे बन जाते हैं।
दार्शनिक अरस्तू के समय के विद्वानों का मत था कि पशुओं के चेहरे से मनुष्य के चेहरे की तुलना करके उसके स्वभाव का पता लगाया जा सकता है। जिस आदमी की शकल सूरत जिस जानवर से मिलती जुलती होगी उसका स्वभाव भी उसके ही समान होगा। जैसे भेड़ की सी शक्ल मूर्ख होना
प्रकट करती है। इसी प्रकार सियार की चालाकी, शेर की बहादुरी, भेड़िए की क्रूरता, तेंदुए की चपलता, सुअर की मलीनता, कुत्ते की चापलूसी, भेंसे की आलसीपन, गधे की बुद्धिहीनता प्रकट करती है। यह मिलान आज कल भी ठीक बैठता है पर अब तो इस विद्या ने बहुत तरकी कर ली और अन्य बहुत सी बातें भी मालूम हो गई हैं।
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- चेहरा, आन्तरिक स्थिति का दर्पण है
- आकृति विज्ञान का यही आधार है
- बाल
- नेत्र
- भौंहें
- नाक
- दाँत
- होंठ
- गर्दन
- कान
- मस्तक
- गाल
- कंधे
- पीठ
- छाती
- पेट
- बाहें
- रहन-सहन