नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (अजिल्द) चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)शिवानी
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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है
सचमुच ही उन चार महीनों में कुमुद को अपनी वह निरंकुश दिनचर्या अत्यन्त प्रिय
लगने लगी थी। धीरे-धीरे उसने उस रहस्यमय सिंहसदन की बारहखड़ी बड़ी सहजता से
कण्ठस्थ कर ली थी। असली गृहस्वामिनी को अपनी विलासपूर्ण पर्येवपरिधि से ही
लगाव था, दिन भर वह चुपचाप पलंग पर पसर, खुली खिड़की से एकटक देखती, कभी
मुस्कराती, कभी अपनी चूड़ियों को सहलाती रहती, कभी तन्न से उठकर बरामदे में
चहलकदमी करने लगती। उसके उन अस्वाभाविक क्षणों में उसके पीछे-पीछे छाया-सी
डोलती कुमद की उपस्थिति को अब मालती ने बड़ी सहजता से स्वीकार कर लिया था। एक
दिन वह ऐसे ही तेज कदमों से चहलकदमी करती छज्जे तक चली गई और तब ही नारीकंठ
की दबी हँसी के स्वर से चौंककर कुमुद की दृष्टि दूसरे छज्जे पर खड़ी, वर्जित
सीमा की गृहस्वामिनियों पर पड़ी थी-ओह तो ये ही थीं मालती की जिठानियाँ!
उनमें से एक अपने मेद-बहुल शरीर के कारण ठीक से खड़ी भी नहीं हो पा रही
थी-गोरा भभूका रंग, किन्तु भयावह मोटापा जैसे थक्कों में झूल रहा था। दूसरी,
साँवली और बेहद चुलबुली लग रही थी, वही हँस-हँसकर कह रही थी-लो अब ये आई हैं
पगलिया को देखने, देवरजी हमारे खूब छाँट-छाँटकर लाते हैं, 'क्यों जी, तुम
कहाँ लटकोगी पंखे पर या...'
“क्या हो रहा है यहाँ अम्मा, खाना नहीं लगेगा क्या आज? हमें अभी लखनऊ जाना
है..." जो खीझे स्वर में भुनभुनाता उन दोनों के बीच आकर खड़ा हुआ था, उसे देख
कुमुद एक पल को आँखें नहीं हटा पाई। वह भी उसे अपनी नीली आँखों से अवाक् होकर
देख रहा था-लग रहा था कोई विदेशी पर्यटक ही धोती-कुर्ता पहने खड़ा है।
इतने ही में शान्त मालती ने एक बड़ी-सी ईंट उठा ली, उन तीनों को देख वह न
जाने क्या बड़बड़ाती ईंट मारने दौड़ी और तीनों हवा के वेग से भीतर चले गए।
उत्तेजित मालती को भीतर लाने में फिर कुमुद पसीना-पसीना हो गई। राजकमल सिंह
की चेतावनी उसे पद-पद पर त्रस्त करने लगी-मैं चाहता हूँ आप इन सबसे दूर
रहें-इसका एक ही उपाय है कि इनसे गज-भर की दूरी बरती जाए, पर जैसे अनजाने में
वह उस परिवार से आज टकरा गई थी, क्या यह सम्भावना सदा बनी नहीं रहेगी?
मालती का उठना-बैठना, खाना-पीना, सोना सब उसकी इच्छा पर निर्भर रहता था, यह
अभिज्ञता कुमुद को गृहस्वामी ने उसकी नियुक्ति के दिन ही थमा दी थी-"डाक्टर
का कहना है, इन्हें कभी छेडिएगा मत, जो करना चाहें, जैसे करना चाहें, करने
दीजिए-आपको कभी कोई परेशानी नहीं होगी।" किन्तु कभी-कभी कुमुद को सनकी
स्वामिनी रुला-रुला देती थी, इधर वह प्रायः ही छज्जे पर भागकर टहलने चली
जाती, कभी-कभी तो नाश्ते की ट्रे लिये-लिये कुमुद को भी उसके पीछे-पीछे भाग
उसे किसी अबोध बालक की भाँति खिलाना पड़ता। एक दिन वह खुले छज्जे पर बड़े
धैर्य से उसे मना-मनाकर अंडा खिला रही थी कि समवेत राशिभूत खिलखिलाहट सुनकर
चौंक उठी-छज्जे से ही लगा छज्जा शत्रुपक्ष की परिधि में आता है, यह वह जानती
थी। आज सहसा वहाँ उस मेम-सी गोरी स्थूलांगी महिला को देख वह स्वामिनी को अंडा
खिलाना भी भूल गई। कैसा अमानवीय मुटापा था, छाती, पेट का सौष्ठव, उस पर गौर
अंगों पर झलमलाते आभूषणों की आभा, विराट वपु को और भी विभ्राट बनाकर प्रस्तुत
कर रही थी। उसके पीछे एक उतनी ही साँवली, छरहरी दूसरी प्रौढ़ा खड़ी थी, और
उसके कन्धे पर हाथ धरकर खड़ा निर्लज्ज दृष्टि से उसे आँखों ही आँखों में लील
रहा, वह युवक! कैसा अद्भुत साम्य था राजकमल सिंह से। क्या विधाता ने इस
परिवार के सभी पुरुषों को मृत्तिका के एक ही साँचे में ढालकर गढ़ा था!
"अजी मैं कहती हूँ सुनो तो मिस साहब, क्या नाम है तुम्हारा?" स्थूलांगी महिला
ने बड़ी विद्रूपपूर्ण हँसी के साथ अपने प्रश्न का ढेला फेंका-
"क्यों री मँझली, छुटके राजा की पसन्द आला है ना? एक-से-एक छाँटकर न जाने
कहाँ से ले आते हैं!"
ओह, तो ये ही थीं राजा राजकमल सिंह की दोनों भाभियाँ और पीछे खड़ा युवक
इन्हीं में से एक का पुत्र होगा "चलिए, नीचे चलें," कुमुद ने बड़ी अवज्ञा से
सामने खड़ी स्थूलांगी के प्रश्न को सुने का अनसुना कर स्वामिनी का हाथ पकड़
लिया, पर वह एकटक अपनी दोनों जिठानियों को ऐसे देख रही थी, जैसे वर्षों से
बिछुड़े चेहरों को पहचानने की चेष्टा कर रही हो, कुमुद का हाथ झटककर वह
उन्हीं की ओर बढ़ने लगी।
"क्यों री छुटकी, यह सौत अच्छी है, या पहले की अच्छी थी?" साँवली चुलबुली
मँझली ने पूछा और फिर आँचल मुँह में रख खी-खीकर हँसने लगी-
"ओह! चुप भी करो चाची," वह युवक अधैर्य से आगे बढ़ा--"क्षमा करें, आप मेरी
माँ और चाची के कहने का बुरा न मानें, वी फील सो सॉरी फार यू-जब भी आपका जी न
लगे..." वह अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाया था कि दोनों हाथों से बारजे पर
धरा तुलसी का गमला उठा मालती ने पूरी शक्ति से शत्रुपक्ष की ओर फेंक दिया।
हड़बड़ाकर तीनों के भीतर भागते ही मालती शान्त अविचलित मुद्रा में धीरे-धीरे
सीढ़ियाँ उतर अपने कमरे में जाकर ऐसे लेट गई जैसे कुछ हुआ ही न हो। उस दिन से
कुमुद उसे मना-फुसलाकर कमरे में ही रोककर नाश्ता खिला देती। सात-आठ दिन तक
मालती का उन्माद जैसे एकदम ही विलुप्त हो गया, न वह एकान्त में बड़बड़ाती, न
अकारण मुस्कराती, जो भी खाने के लिए कुमुद कहती वह आज्ञाकारिणी सुशिष्ट
बालिका की भाँति खा लेती। पहले उसे साड़ी पहनाने में कुमुद कभी पसीना-पसीना
हो जाती थी, बड़े यत्न से साड़ी पहनाकर कहती--देखिए, जरा आईने में, यह रंग आप
पर कैसा फब रहा है! और दूसरे ही क्षण उन्मादिनी साड़ी खोलकर दूर पटक देती।
जूड़ा बनाकर पाटी बिठा, कंघी, ब्रश ड्रेसिंग-टेबल पर रखकर लौटती, तो देखती
जूड़ा खोल-खाल, मालती ने भूतनी-से बाल पूरे चेहरे पर फैला लिए हैं। किन्तु
इधर वह स्वयं ही शृंगारप्रिया बन गई थी, यत्न से सज-सँवर वह कभी बड़ी देर तक
दर्पण में अपना सुन्दर प्रतिबिम्ब देखती, मुस्कराती रहती। स्वयं राजकमल सिंह
भी पत्नी की सहज स्वाभाविकता देखकर, एक दिन कुमुद से कहने लगे-"मिस जोशी, अब
मुझे पक्का विश्वास हो गया है कि आपकी उपस्थिति ने मालती को एकदम बदल दिया
है-देअर हैज बीन ए रिमार्केबल चेंज-सोच रहा हूँ इधर कुछ जरूरी काम निबटा
आऊँ-अब निश्चिन्त होकर जा सकता हूँ..."
किन्तु, दूसरे ही दिन मालती ने जो किया, उसके लिए कुमुद भी प्रस्तुत नहीं थी।
उस दिन, वह स्वयं अपने हाथों से उसके लिए नाश्ता बनाकर लाई थी-
"देखिए, मैं आज आपके लिए क्या बनाकर लाई हूँ चीज़-टोस्ट और मसाले की चाय।
काशी कह रही थी कि आपको बहुत पसंद है ऐसी चाय-क्यों है ना?"
शान्त, झील-सी आँखों में एक क्षण को जैसे शाठ्य की चिनगारी-सी कौंधी, लुभावने
स्मित में तिर्यक् अरुण-अधर, दृढ़ता से फिर भिंच गए।
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