नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (अजिल्द) चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)शिवानी
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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है
कुमुद जानती थी कि मन-ही-मन अम्मा सब सुख होने पर भी किस दुख में घुली जा रही
हैं। उमा का निर्वासन उन्हें एकदम ही तोड़कर रख गया था। जब से आई, वह
चार-पाँच दिन की छुट्टी लेकर, एक ही बार घर जा पाई थी। माँ की अवस्था देख फिर
वह रातभर नहीं सो पाई थी। ऐसी हालत तो उनकी बाबूजी की मृत्यु के बाद भी नहीं
हुई थी! आँखों के नीचे गहरे गड्ढों की कालिमा, उदास श्रीहीन चेहरे पर एक
भयत्रस्त स्थायी आतंक उतरकर झुर्रियों में घुलमिल गया था-"तुम क्या बीमार थीं
अम्मा? मुझे क्यों नहीं लिखा?" उसने पूछा और स्नेहविगलित प्रश्न के साथ-साथ
उसकी आँखें छलक गई थीं।
"दुर पगली, बीमार क्यों होने लगी मैं! कभी-कभी सोचती हूँ, क्या पाप किए थे
मैंने, जो आज तीन-तीन बच्चों के रहते भी अकेली हूँ। उमा को तीन-चार चिट्ठियाँ
लिख चुकी हूँ, एक का भी जवाब नहीं आया। पता नहीं लड़की बीमार है या मुझसे
रूठी है। लालू कुछ लड़कों के साथ किसी होटल में गाना गाने दिल्ली गया था,
वहीं से एक कार्ड आया है कि किसी मित्र के साथ काठमांडू जा रहा है।"
"तुम उसे ऐसे इधर-उधर क्यों जाने देती हो अम्मा!" कुमुद ने कठोर स्वर में माँ
को डपट दिया था-"तुम इतनी सीधी हो कि वह जब चाहे, जैसे चाहे, तुम्हें
समझा-बुझाकर, अपनी मनमानी कर लेता है। जानती हो नेपाल उस जैसे
गंजेड़ी-चरसियों का स्वर्ग है? सुना है दाढ़ी-बाढ़ी भी रख ली है..."
कैसा कार्तिकेय का-सा चेहरा था कुमु, अब तू देखेगी तो पहचान भी नहीं पाएगी!
औघड़ बना फिरता है, कंधे तक बाल बढ़ा लिये हैं, फकीरों की-सी दाढ़ी रख ली है,
महीनों तक नहीं नहाता, आँखें दिन-रात कपाल पर चढ़ी रहती हैं। मैंने ही दस मास
तक गरभ में रखा, पर जब कभी आधी रात को झूमता-झामता घर आता है, तब मैं माँ
होकर भी उसे देख सहम जाती हूँ-न अब उसे हमारी ममता है, न मोह!" कुमुद की बगल
में लेटी अम्मा फिर निःशब्द रोने लगी थी। अँधेरे कमरे में माँ-बेटी न जाने कब
तक चुपचाप पड़ी रहीं। कुमुद को लगा वह घर से दूर जाकर केवल प्रचुर धनराशि
भेजकर ही कर्तव्यभार से मुक्त नहीं हो सकती, जब वह हवेली में राजसी भोजन का
आनन्द ले रही थी, तब शायद इस अंधेरे कमरे में, अकेली भूखी पड़ी अम्मा
अकर्मण्य पुत्र की प्रतीक्षा में आधी-आधी रात तक अनिद्र करवटें बदल रही
होंगी। उमा का हृदयहीन निर्वासन भी तो उसी ने किया था।
"कुमुद, सो गई बेटी?"
अचकचाकर कुमुद ने आँखें पोंछ लीं, किन्तु माता-पुत्री की भीगी पलकों की करुण
आर्द्रता एक-दूसरे का कपोल स्पर्श कर चुकी थीं-
"नहीं अम्मा, जग रही हूँ।"
"कुमु बेटी, तू अब वहाँ की नौकरी छोड़कर फिर लखनऊ लौट आ, मुझसे अब कुछ नहीं
सँभलता। मुझे लगता है गौरी को उमा वाली बात कहीं से पता लग गई है, न जाने
कैसी-कैसी बातें पूछती रहती है। तू तो जानती ही है बेटी, मैं कभी झूठ नहीं
बोल पाती।"
"तो क्या, तुमने गौरी चाची को सब कुछ बता दिया है, अम्मा?" कुमुद घबराकर पलंग
पर बैठ गई थी।
"नहीं बेटी, पर पता नहीं कब अनजाने में मुँह से कुछ निकल जाए। फिर गौरी को तू
जानती है, उसके पेट में पानी भी नहीं पचता। कहीं बिरादरी को भनक भी लग गई तो
हमारा सब करा-कराया मिट्टी में मिल जाएगा-इसी से तू अब जल्दी घर चली आ और सब
कुछ वहीं से निबटा दे..."
"कहाँ से क्या निबटा दूं।"
"क्यों, उमा की शादी और कौन निबटाएगा-तेरे मामा से अकेले क्या हो
पाएगा-उन्होंने उमा के लिए लड़का देख लिया है..."
“लड़का देख लिया है और तुमने मुझे कभी कुछ लिखा भी नहीं..." कुमुद का आहत
स्वर सुन, माँ ने अँधेरे में ही टटोलकर उसका हाथ कसकर दबा लिया था-"परसों ही
तो चिट्ठी आई है, अभी बात पक्की नहीं की, पर लगभग पक्की ही है।"
"लड़का क्या करता है?"
"रेलवे में मालबाबू है, उमा को उसी ने देखकर पसन्द किया है, बस बात पक्की
करने के लिए तेरी ही हाँ के लिए रुकी थी कुमु..."
"मेरी ही हाँ के लिए क्यों रुकी थी अम्मा? शादी क्या मेरी हो रही है!" बड़ी
पुत्री की करुण उक्ति ने, जैसे माँ के कलेजे में भाला चुभो दिया, उसे लगा,
बड़ी पुत्री के कौमार्य को बड़ी उदासी से लाँघ, वह छोटी के विवाह की योजना,
बड़े उत्साह से बनाने लगी थी, यह उसका अन्याय नहीं तो और क्या था! कुमुद का
खिन्न होना स्वाभाविक ही तो था-
"मेरा भगवान् ही जानता है बेटी, तेरे विवाह से पहले उमा को निबटाने की बात
करने लगती हूँ तो जी में आता है जीभ काटकर दूर फेंक दूं। पर तेरी ओर से मैं
निश्चिन्त हूँ मैं जानती हूँ तू कभी कोई ऐसा काम नहीं करेगी, जिससे हमारे कुल
पर आँच आए..."
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