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नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3736
आईएसबीएन :9788183616621

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


क्या अम्मा जानती थी कि उसे आदर्श की उस सर्वोच्च बेदी पर बिठाकर बचपन से ही उसके साथ कैसा अन्याय किया गया है? उमा जो भी कर ले, हमेशा ही उसके सौ खून माफ रहे। बार-बार यही सुनती थी-कुमुद ऐसा कभी नहीं करेगी-कुमुद को तो कपड़ों की भी कोई चिन्ता नहीं रहती, उमा ही थी जो सदा हवा से लड़ती थी, मजाल है उसकी थाली में कद्दू-लौकी या मूली की सब्जी अम्मा परस तो दे-कुमुद भी इन सब्जियों को देखते ही भड़क उठती थी, किन्तु उसकी अनिच्छा, कभी अधरों तक नहीं आती। बचपन से ही सुनती आई थी कि वह तो गऊ है, थाली में गोबर का लौंदा भी रख दो तो खा लेगी। धीरे-धीरे उसकी निरंतर दबाई गई तृष्णा अब विद्रोह का रूप लेने लगी थी। क्या जीवन-भर उसे दूसरे ही के लिए जीना होगा? उमा, लालू के प्रत्येक अन्याय को चुपचाप सहना होगा? कभी-कभी अपने समाज के बहुरूपी ढोंग की धज्जियाँ उड़ाने को वह विह्वल हो उठती, एक ओर पुरानी जीर्ण मान्यताओं को छाती से लगाकर जीने की व्यर्थ चेष्टा, दूसरी ओर लुक-छिपकर उन्हीं मान्यताओं को रौंदने की ललक! एक वर्ष पूर्व, एक सम्भ्रान्त कायस्थ परिवार से उमा के रिश्ते के लिए सन्देश लेकर उसके पिता के एक मित्र अम्मा के पास आए थे--"तुम्हारी लड़की को उन्होंने कालेज के किसी जलसे में देखा है-उनका लड़का विदेश में है, अच्छी नौकरी है, वहीं ग्रीन कार्ड ले लिया है, अपना फ्लैट है, एक ही पुत्र है, चाहती हैं चुपचाप विवाह कर उमा को पुत्र के साथ विदेश भेज दें।"

प्रस्ताव सुनकर अम्मा ऐसी तिलमिला गई थी, जैसे जलते-दहकते अंगारों पर पैर पड़ गया हो-

"उनकी हिम्मत कैसे हुई जी! और फिर क्या आप नहीं जानते, हम कहाँ के जोशी हैं! दीवान कुल की बेटी को ब्याह कर क्या कथौड़े ले जाएँगे, लला! कह देना ऐसे जात-बेजात में लड़की देने से, उसे गले में पत्थर बाँधकर गोमती में डुबो दूंगी..." किन्तु गले में पत्थर बाँधकर माँ को ही डुबो गई थी उमा।

और आज उमा के लिए अम्मा को मिला है मालगोदाम का बाबू!

छि-छि और कोई नहीं मिला क्या अम्मा को। वही उमा जो हमेशा बड़े गर्व से कहा करती थी, "देख लेना दीदी, या किसी इंजीनियर से शादी करूँगी या किसी आई.ए.एस. से। तुमसे चौगुनी साड़ियाँ खरीदकर न दिखा दूं तो नाम बदल देना मेरा!"

उस दिन किस बेरहमी से मारा था उसने उमा को। बेचारी आधी रात तक सिसकती रही थी। तब से फिर उसे देखा ही कहाँ था। बिछुड़ी निर्वासिता छोटी बहन की स्मृति ने कुमुद का कलेजा सहसा मरोड़ दिया। रात को अम्मा कभी कहीं सत्संग में चली जाती और लौटने में देर होती, तब उमा भागकर उससे लिपटकर सो जाती थी-"थोड़ी जगह दो दीदी, उधर खिसको, हमें उस कमरे में अकेले डर लगता है।" रात कभी गुसलखाने भी अकेली जाने का साहस नहीं होता था, वह इतना बड़ा दुस्साहस कैसे कर गई?

"अम्मा, अभी मैं नहीं रुक सकती, न मेरा ऐसे नौकरी छोड़ना ही उचित होगा। तुम देख रही हो, इन छह महीनों में मैं तुम्हें जितना भेज सकी हूँ, उसका एक-तिहाई भी शायद यहाँ की नौकरी में नहीं बचा पाती। फिर उतने भले लोग हैं, जब चाहूँ घर आ सकती हूँ, वहाँ भी जैसे चाहूँ रह सकती हूँ-मुझे इतना सुख पहले कभी नहीं मिला अम्मा..."

ठीक ही तो कह रही थी बेचारी, जब बाप थे तब भी दरिद्रता की मनहूस छाया इन बच्चों पर मँडराती रही, अच्छा खाने-पीने, अच्छा ओढ़ने-पहनने को तरसते ही रहे, बाप का साया उठा तो दोनों अनाथ भाई-बहन का बाप बनना पड़ा। अपना कौन-सा सुख किया बेचारी ने-जब कभी इधर-उधर से पैसा मिलता, कहीं उमा के लिए साड़ी खरीद लाती, कहीं लालू के लिए पैंट का कपड़ा ले आती और कभी माँ के लिए साड़ी।-एक दीर्घ श्वास लेकर वह चुपचाप पड़ी रही, फिर एक भी शब्द अपनी उस सर्वस्वत्यागिनी पुत्री से वह नहीं कर पाई।

कुमुद के आने का समाचार पाते ही गौरी चाची भागकर आ गई थीं-"क्यों री कुमुद, अपनी नौकरी में तू हम सबको भूल गई? अपनी अम्मा को देखने आ जाया कर-बेचारी अकेली पड़ी रहती है-तू नहीं आ सकती तो उमा ही को बुला ले..."

फिर एक ही साँस में उन्होंने सैकड़ों प्रश्न पूछ डाले थे-"क्या नौकरी है उसकी? क्या-क्या करना पड़ता है? अच्छा राजा साहब हैं-तब तो तेरी खूब मौज होगी री! खूब बढ़िया-बढ़िया माल मिलता होगा खाने को, पर कन्धे की हड्डियाँ तो तेरी अब भी वैसी ही निकली हैं क्या उम्र होगी राजा साहब की?" गौरी चाची की कुटिल आँखों में प्रश्न की रहस्यमय कुटिलता रह-रहकर जुगनू-सी चमकने लगी थी।

कुमुद चलने लगी तो अम्मा ने धीमे स्वर में कहा-“कुमुद वसन्तपंचमी को शायद लड़के वाले टीका करने आएँगे फिर तो हमें भी द्वारना पड़ेगा-कुछ रुपयों की प्रबन्ध करना होगा..."

"तुम चिन्ता मत करो अम्मा, मैं तुम्हें जाते ही अगले महीने की तनख्याह एडवांस लेकर भेज दूंगी, हो सका तो राजकमल सिंहजी से कुछ और रुपया लेकर भेज दूंगी।"

उसने जाते ही माँ को रुपये भेज दिए थे। बड़े संकोच के साथ, एक दिन डरते-डरते उसने उमा के विवाह का प्रसंग छेड़ राजकमल सिंह से कुछ रुपयों की याचना की थी-“मेरी छोटी बहन की शादी है, आप यदि कृपा कर कुछ रुपये मेरे वेतन से दे सकें सर, मैं सब चुकता कर दूंगी, एक-दो महीने में ही मेरे पिता के बीमे का रुपया शायद मिल जाएगा..."

“आपने मुझसे आज तक क्यों नहीं कहा मिस जोशी, बताइए, कितने का चेक लिख दूँ!"

मूर्ख कुमुद गूंगी बनी चुपचाप खड़ी ही रह गई थी। स्वयं उन्हीं ने अपनी चेकबुक निकाल पाँच हजार का चेक लिख दिया था-"आप इसे रखिए और रुपयों की जरूरत हो तो निस्संकोच मुझसे कहिए।"

"धन्यवाद सर, मैं आपका यह एहसान जीवनभर नहीं भूलूंगी।" उसका कंठ कृतज्ञता के गह्वर से सहसा अवरुद्ध हो गया था।

राजकमल सिंह ने शायद उन निरीह आँखों की छलछलाई कृतज्ञता को उड़ाने के लिए ही फिर एक ऐसा प्रश्न पूछ दिया था, जिसके लिए वह प्रस्तुत नहीं थी-

"पर एक बात बताइए मिस जोशी, आपकी शादी से पहले ही छोटी बहन की शादी हो रही है, क्या आपके यहाँ ऐसा ही होता है?" हाथ के सिगार की राख झाड़ते राजकमल सिंह बड़ी विनोदपूर्ण दुष्टता से मुसकरा रहे हैं, यह कुमुद ने देख लिया था। उसका पूरा चेहरा अबीरी हो गया :

"जी, ऐसा नहीं होता," वह घबराहट में बिना कुछ सोचे-समझे कह गई और अपने मूर्ख उत्तर की व्यर्थता, उसके चेहरे को और गहरे रंग में रंग गई।

"तब?"

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