नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (अजिल्द) चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)शिवानी
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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है
“जी, मेरे परिवार का भार मुझ पर है, अभी छोटा भाई भी पढ़ रहा है..."
"ओह समझा, अपने इन सब कर्तव्यों से मुक्त होने पर ही आपका विवाह होगा क्यों?
मेरा स्वार्थ तो हमेशा यही मनाएगा मिस जोशी, कि आप कभी कर्तव्य से मुक्त न
हो..."
यदि इतना कहकर राजकमल सिंह हो-होकर न हँसते तो शायद कुमुद सशंकित न होती।
किन्तु एक अज्ञात भय की सुरसुरी उसकी रीढ़ को कँपा गई थी।
कैसा स्वार्थ? आजीवन उनकी उन्मादिनी पत्नी की वह दासी ही बनी रहे, यही
स्वार्थ था उनका या और कुछ? एक पल को ही उसकी दृष्टि उन आयत आँखों से टकराई
थी, और उस तृषार्त चावनी में क्या उस रहस्यमय व्यक्ति का स्वार्थ मात्र ही
दिखा था उसे?
'तुम बहुत शक्की हो दीदी, किसी के बारे में कुछ अच्छी बात सोच ही नहीं
सकती...' शायद ठीक ही कहती थी उमा-जिस उदार व्यक्ति ने उससे बिना कुछ पूछे ही
पाँच हजार का चेक लिख दिया था, उसी पर वह सन्देह कर रही थी। छिः छिः-यह ओछी
बात उसके दिमाग में आई ही कैसे! अपने अन्तर्मन की शंका को नकार कर भी, उसने
अपने व्यापार को पूर्वाचित संयम में ही बाँधकर रखा था। जब से मालती ने उससे
वह विचित्र प्रश्न पूछा था, तब से वह स्वयं सशंकित हो सचेत हो गई थी। वह समझ
गई थी कि घोर उन्माद के बीच भी मालती का हृदय कभी भी नारीसुलभ ईर्ष्या-द्वेष
से सुलग सकता है। उसका विश्वास प्राप्त करने के लिए उसे उसके पति से सदा गजभर
की दूरी ही बरतनी होगी। किन्तु अपने संकल्प पर वह दृढ़ रहती भी कैसे! राजकमल
सिंह पन्द्रह दिन बाद तेज बुखार लेकर लौटे तो चाँदी की मूठ की छड़ी का सहारा
लेकर, एक क्षण को खड़े ही रह गए, लग रहा था एक-एक कदम रखने में भी उन्हें
भीषण कष्ट हो रहा है। चुनी हुई शान्तिपुरी धोती के ऊपर रेशमी कुर्ता भी
मुड़ा-तुड़ा लग रहा था, आज तक कुमुद ने गृहस्वामी को कभी अपनी वेशभूषा के
प्रति ऐसा उदासीन नहीं देखा था। पन्द्रह ही दिन में शरीर शीर्ण हो गया था,
चेहरा भी ईषत् धूसर पड़ गया था। सुना जब से गए, तब से ही बुखार चढ़ा था और
उतरने का नाम नहीं ले रहा था। तीन-तीन डाक्टर आकर देख गए थे और तीनों ने ही
सन्निपात ज्वर की पुष्टि की थी। किन्तु राजकमल सिंह का स्वास्थ्य उनके प्रौढ़
होने पर भी पूर्ण वयस्क युवक का स्वास्थ्य था, इसी से दुश्चिन्ता का कोई कारण
नहीं है, ऐसा ही कहकर तीनों दवा लिखकर चले गए थे। चलते-चलते डॉक्टर चक्रवर्ती
ने राय दी थी कि वह किसी नर्स को देखभाल के लिए अवश्य नियुक्त करें, इस ज्वर
में परिचर्या ही रोग की एकमात्र औषधि है। कुमुद ने स्वेच्छा से पत्नी के
साथ-साथ पति का सेवाभार भी सहर्ष ग्रहण कर लिया। उन्हें समय से औषधि देना,
टेम्परेचर-चार्ट भरना, अपने हाथ से सूप बना उन्हें पिलाना, उनके बिस्तर पर
पड़े रहने पर भी अपूर्व कौशल से चादर बदलना. सब वह ऐसी कशलता से निःशब्द करती
जा रही थी कि एक दिन डाक्टर चक्रवर्ती भी प्रसन्न होकर बोले-“क्यों मिस जोशी,
किसी अस्पताल में नर्स रही हैं क्या?"
“जी नहीं," वह बिना कुछ कहे फिर खाली गिलास लेकर बाहर चली आई थी।
एक दिन वह रोगी के कमरे में गई तो देखा तीन तकियों का सहारा लिये राजकमल सिंह
अधलेटे डाक्टर चक्रवर्ती के साथ अपने रोग की आलोचना कर रहे हैं, बीच-बीच में
हास-परिहास भी चल रहा है। लगता था, बुखार उतर गया है। दोनों आँखें उज्ज्वल लग
रही थीं, पर चेहरा अभी भी सामान्य रूप से पांडुवर्णी ही लग रहा था-
"डाक्टर साहब, आप यदि अनुमति दें तो एक निवेदन करना चाहूँगा," राजकमल सिंह ने
दोनों तकिए हटा दिए और कुछ क्षण आँखें बंद कर चुपचाप लेटे रहे।
“कहिए-कहिए, कुछ खाने को मन कर रहा है क्या?" डाक्टर साहब रोगी की प्रगति से
अत्यन्त प्रसन्न लग रहे थे-
"नहीं, लग रहा है फिर बुखार चढ़ रहा है, सिर में फिर वही असह्य दर्द होने लगा
है...आप यदि एक बार किसी तरह कविराज गोस्वामीजी को लाकर मेरी रोग-परीक्षा
करवा दें...सुना है, वह अब कहीं जाते नहीं, पर शायद पिताजी का नाम स्मरण होगा
तो आ जाएँगे।"
"स्मरण कैसे नहीं होगा? आपके पिता के दिए मकान में ही तो अब भी रहते हैं
गोस्वामीजी, पर एक बार फिर सोच लीजिए, वह आते ही हमारी सब दवा बन्द कर
देंगे-यह क्या उचित होगा, मिस जोशी जरा बुखार नापिए तो..."
बुखार फिर तेज हो गया था, कविराज को बुलाने का अर्थ होगा, स्वयं अपनी
चिकित्सा की पराजय स्वीकार कर लेना, किन्तु राजकमल सिंह केवल धनी व्यक्ति ही
नहीं थे, उनके ख्यातिवान श्रद्धेय मित्र भी थे, इसी से अपना स्वार्थ ताक पर
रख डाक्टर चक्रवर्ती स्वयं कविराज गोस्वामी को लेने चले गए।
कविराज केवल चिकित्सक ही नहीं थे, कहा जाता था कि वह परम सिद्ध भक्त भी हैं,
स्पर्श मात्र से ही व्याधि दूर करने में समर्थ। चिकित्सा उनके लिए अर्थकारी
वृत्ति कभी नहीं रही। उनके पिता भी वैद्य थे, वैद्यक व्यवसाय उनके परिवार में
कुलक्रमागत चला आ रहा था। कभी उन्होंने राजा राजकमल सिंह के पिता के असाध्य
रोग की चिकित्सा कर उन्हें स्वस्थ बनाया था। इसी से उन्होंने अपनी कृतज्ञता
ज्ञापन करने अपनी ही हवेली के पास उनके लिए एक सुदर्शन भवन बनवा दिया था-"आप
जैसे अष्टांग आयुर्वेद में निपूण मृत्युंजय चिकित्सक मेरे प्रतिवेशी बनें,
इससे बड़ा सौभाग्य हमारा और क्या हो सकता है?" उन्होंने कहा था एवं
मृत्युपर्यन्त वार्धक्य से अशक्त होने पर भी नित्य स्नान कर उनके चरण छने के
बाद ही अपनी दिनचर्या आरम्भ करते थे। मृत्युपूर्व अपने तीनों पुत्रों को
बुलाकर राजा रामवदन सिंह ने उनसे कहा था-"ध्यान रखना कि गुरुवर को कभी कष्ट न
हो, उनके मकान का, भूमि का सब टैक्स तुम देते रहोगे। तुम्हारी ही जमींदारी से
उनके सब टैक्स अदा किए जाएंगे।"
उनका सर्वाधिक स्नेह कनिष्ठ पुत्र पर ही था, इसी से उन्हें एक बार फिर एकांत
में बुलाकर उन्होंने कहा था-"बेटा, तुम्हारे दोनों भाई जो भी करें, तुम
पंडितजी का ध्यान रखना-वैद्य का, वह भी कुशल वैद्य का प्रतिवेशी बनना बड़े
भाग्य से मिलता है। बराहमिहिर ने भी राजभवन के पास वैद्य, पुरोहित तथा दैवज्ञ
के निवास स्थान का विधान किया है।"
कविराज आए और रोगी की नाड़ी थामकर दीर्घ समय तक आँखें मूंदे, अस्फुट स्वर में
न जाने क्या बोलते रहे। दोनों चक्षु मुँदित थे, किन्तु अधर निरन्तर जैसे किसी
नामजप में हिल रहे थे। उधर रोगी तीव्र ज्वर की मनहूस तन्द्रा में पूर्ण रूप
से डूब चुका था, कुमुद को यह देखकर आश्चर्य हो रहा था कि जो राजकमल सिंह एक
ही घंटा पूर्व स्वयं बड़ी दीनता से डाक्टर चक्रवर्ती से कविराज को बुलाने का
आग्रह कर रहे थे, उन्होंने एक बार भी आँखें खोलकर नहीं देखा कि किसने आकर
उनकी नाड़ी थामी है! केवल एक क्षण को व्यथित अस्फट स्वर में उन्होंने कछ कहा-
"राजकमल, आँखें खोलो!" कैसा गम्भीर-मांसल कंठ स्वर था कविराज का! लग रहा था,
कंठ-स्वर मात्र ही, कठिन-से-कठिन व्याधि को भी लाठी लेकर दूर खदेड़ने में
समर्थ है।
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