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नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द)

भैरवी (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3737
आईएसबीएन :9788183610698

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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास


पूरे एक युग के बाद जैसे उसके होंठ खुले, स्फिक्स की चुप्पी के पट खुले, मुस्कुराकर वह बोली, “आपकी बड़ी कृपा है, पर मैं अपने मामा से पूछकर ही आपको उत्तर दे पाऊँगी। देखिए न, एक तो हम दोनों एक-दूसरे के बारे में कुछ भी नहीं जानतीं" इस बार शायद अपनी रुखाई से स्वयं ही संकुचित हो, उसने अन्तिम वाक्य को जोड़ अपने कथन की पुष्टि की।

पर दिन-रात ताश के देखे और अनदेखे पत्तों की स्थिति भाँपनेवाली चतरा रुक्मिणी ने राजेश्वरी के हाथ के फूहड़ ढंग से छिपाए गए अदृश्य पत्तों की चाल भाँप ली। उसने जन्म से ही दिल्ली देखी थी। वह समझ गई कि सामान्य गोलाबारी से ही कब दुर्ग ढहाया जा सकता था।

"ओफ ओह!" उसने विदेशी अन्दाज से कन्धे हिलाकर दोनों बाँहें शुन्य में फैला दीं, “आप भी कैसी बचकानी बातें कर रही हैं, बहन! स्त्री होकर भी क्या हम स्त्रियों के स्वभाव को आज तक नहीं परख पाईं? आप ही बताइए जरा, इस संसार में एक ही माँ की जाई कौन-सी ऐसी दो सगी बहनें हैं, जो एक-दूसरी के बारे में सबकुछ जानती हैं? जब हमारा रिश्ता हो जाएगा, तब ही तो हमें परखेंगी? आखिर आप अपने किस बुजुर्ग की राय लेना चाहती हैं? उन्हें बुला लीजिए न! जो चाहें, हमसे पूछ लें।" उसने ऐसे लहजे में कहा, जैसे कह रही हो-चलो, उनमें भी हो जाएँ दो-दो हाथ?

अब राजेश्वरी और फँसी। उसके आत्मीय स्वजनों में अब था ही कौन? ले-देकर एक पीताम्बर मामा ही ऐसे थे, जिनसे वह कुछ पूछ सकती थी। वैसे उपनाम देने में बेजोड़ कुमाऊँवासियों ने कभी उनकी अनुपम जानकारी के लिए उन्हें विभूषित किया था, 'गजट' की उपाधि देकर। कुमाऊँ की परम्परा आज भी वैसी ही चली आ रही थी, जिसमें किसी व्यक्ति को लोग उसके नाम से नहीं, उपनाम से चट पहचान लिया करते थे। गजट मामू शायद सचमुच ही उसकी जिज्ञासा को शांत कर उसे उचित दिशानिर्देश कर पाएँगे। पर उन्हें बुलाना भी तो टेढ़ी खीर था। दो मील की खड़ी चढ़ाई कर तब कहीं .वहाँ पहुँच पाएँगी और फिर बेकार बुड्ढों की किस महफिल को गजट मामू धन्य कर रहे होंगे, उसका कोई ठिकाना था?

“आप चिन्ता न करें, ऐसे काम उतावली में किए भी नहीं जाने चाहिए। मैं आपको शीघ्र उनसे पूछकर सूचित कर दूंगी।"

“पर मैं तो घर से यही संकल्प लेकर निकली हूँ कि बिना आपसे वरदान लिए यहाँ से नहीं टलूँगी।" और फिर वह बड़ी आत्मीयता से राजेश्वरी के गुदगुदे तिब्बती कालीन पर अधलेटी मुद्रा में लम्बी होकर मुस्कुराने लगी।

“आप आराम तो करें!' राजेश्वरी हँसकर भीतर चली गई। थोड़ी देर में सोनिया भी आकर माँ के पास लेट गई।

"क्यों कहाँ गई तेरी सहेली?" रुक्मिणी ने पूछा।

"उसकी माँ बुलाकर ले गई। क्यों मम्मी, कुछ मामला बना?"

"खाक बना!" रुक्मिणी बटुए से कंघा निकालकर, बालों पर फेरती बैठ गई, "बड़ी गहरी औरत है। आज पहली बार-आई डोंट नो हेअर आई स्टैंड!" उसने एक बार फिर कन्धे उठाकर, गिरा दिए-यह शायद उसकी प्रिय मुद्रा बन गई थी। सोनिया, कई बार सोचती थी कि मम्मी को इसके लिए टोक दे, उस मुद्रा को वह पहचान भी गई थी। राजधानी के किसी उत्सव में डेस्डीमोना बनी लीनादत्त की ही बहुचर्चित मुद्रा थी यह। पर मम्मी, बार-बार शायद यह भूल जाती थी कि जिन कन्धों के उठने-गिरने पर हॉल तालियों से गूंज उठा था, वे कन्धे थे अट्ठारह वर्ष के और मम्मी बेकार में ही अपने पैंतालीस वर्ष के कन्धों की बेसुरी कसरत किए जा रही थीं।

माँ-बेटी, फुसफुसा ही रही थीं कि राजेश्वरी चाय बनाकर ले आई, पीछे-पीछे तश्तरियों में मेवा-मिष्ठान, गर्म-गर्म पूड़ियाँ, आलू के खुशबूदार जम्बू-छौंके गुटके, पीला रायता लिए, दो हाथों में दो थाल, किसी होटल के दक्ष बैरा की ही भाँति साधे, चन्दन आकर खड़ी हो गई।

नित्य, बावर्ची-बैरा के हाथ के बने उलटे-सीधे खाने या फिर सौसेज और ब्रेड का डिनर खानेवाले फूहड़ नथुने, फड़कने लगे।

“अरे, यह क्या! यह सब कब तैयार कर लिया आपने? अरी सोनिया, हमारी लंच-बास्केट भी तो कार में धरी है, बेटी! जा, कैमरा, बैग, सबकुछ लिवा ला-क्यों बहन, जरा अपने नौकर को इसके साथ भेज देंगी?"

"नौकर?" राजेश्वरी ने हँसकर पूछा और खाने की सामग्री, नीचे लगा दी।

"नौकर तो मैं कभी रखती ही नहीं, बहन!"-रुक्मिणी जैसे आकाश से गिरी। कहती क्या हैं-नौकर ही नहीं रखती-मन-ही-मन, वह आनन्दित हो उठी थी, यह तो लड़की की एक और विशेषता बन उठेगी। माँ, नौकर नहीं रखती तो बेटी, निश्चय ही उसका हाथ बँटाती होगी। रंग-चूना लगाना, झाड़-पोंछ, खाना बनाना सब अलभ्य गुणों से युक्त, उस पर चेहरा-मोहरा, रंग-नक्शा, सब सवा लाख का!

“जाओ, चन्दन!" राजेश्वरी ने पुत्री से कहा, “सोनिया के साथ जाकर तुम्हीं सब सामान भीतर ले आओ।"

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