नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द) भैरवी (अजिल्द)शिवानी
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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास
सोनिया और चन्दन, सामान से लदी-फंदी लौटीं और लंच-बास्केट के साथ आई अंडे की
सैंडविच भुने काजू और सोहन हलवे के रंगीन डिब्बे निकालकर, रुक्मिणी ने अपने
शाही दस्तरखान पर सजा लिए।
“ये चार डिब्बे तो मैं आप ही के लिए लाई हूँ, चखिए न एक टुकड़ा।" उसने एक
टुकड़ा तोड़कर, राजेश्वरी के मुँह में लूंस दिया, और वह बड़ी अनिच्छा से
चबाने लगी। सोहन हलुवे का टुकड़ा गरिष्ठ अतिथियों की ही भाँति, उसके कंठ में
अटका जा रहा था। घी से लथपथ, ऐसे मिष्ठान खाने का न उसे अभ्यास था, न रुचि।
"यह क्या? आप तो खड़ी ही रह गईं, क्या हमारा साथ भी नहीं देंगी?" रुक्मिणी,
साथ लाए स्वच्छ नैपकिन से प्लेट पोंछने लगी।
राजेश्वरी, संकोच से पहले कुछ कह नहीं पाई, फिर दबी आवाज में हाथ जोड़कर कहने
लगी, “आप खाएँ-चन्दन आपका साथ देगी-मैं तो बिना जप किए वैसे ही नहीं खाती, वह
तो आपने इतने प्रेम से मिठाई खिला दी, इसी से खा गई..." फिर वाक्य अधूरा
छोड़, बिना और कुछ कहे अंडे की सैंडविच को अर्थपूर्ण दृष्टि से देख, उसने नजर
झुका ली।
रुक्मिणी ने शायद देख लिया। “ओह, कैसी मूर्ख हूँ मैं!" वह क्षुब्ध स्वर से
कहने लगी, “अंडा भी यहीं धर दिया मैंने, हमें तो बड़ी भूख लगी है भाई, उस पर
आपने ऐसी बढ़िया सुगन्ध उठा दी है कि अब हम रुक नहीं सकतीं।" वह सचमुच ही
अपने सारे अदब-कायदे भूल, जिसी भूखे कंगले की ही भाँति लार टपकाने लगी थी। उन
गर्म-गर्म पूड़ियों में क्या वनस्पति घृत की मरीचिका थी! शुद्ध पहाड़ी घी की
सुगन्ध, कुंडे का दानेदार खोए-सा स्वादिष्ट दही, और नित्य ली गई फ्रिज से
नकली हिमशीतल जल की घूट को फीकी करती, मीठे पहाड़ी सोते के स्वच्छ जल की ठंडी
घुट प्रतिवेशियों के यहाँ से 'चंग' भरकर, राजेश्वरी 'च्याक्ती' ले आई "इसे
पिएँ, खूब बढ़िया नींद आएगी इसे पीकर।" और देश-विदेश के आसव की गुणी जौहरी
जिह्वा, एक ही घूट में तृप्त हो गई। रात को, दीवानखाने ही में अतिथियों के
सोने की व्यवस्था कर, राजेश्वरी स्वयं सोने जाने लगी तो रुक्मिणी ने बड़े
आग्रह से चन्दन को अपने ही कमरे में सुलाने के लिए रोक लिया।
अपने कमरे में अकेली पड़ी राजेश्वरी, रात-भर गहरे सोच-विचार में डूबती-उतराती
रही। यह भी सम्भव था कि यह रिश्ता, वास्तव में उतना ही वांछनीय हो, जितना
रुक्मिणी बतला रही थी, और एक सम्भावना यह भी थी, कि बहुत ऊँची उस दुकान का
पकवान एकदम ही फीका निकल पड़े।
उसके अतिथि, थककर ऐसे चूर हुए सो रहे थे कि सुबह आठ बजे से पूर्व उनके जगने
की कोई सम्भावना नहीं थी। इस बीच, वह रात ही को अपने मामा का अनुभवी परामर्श
लेकर लौट सकती थी। वह दबे पैरों उठी, मोटी गर्म पंखी से अपना शरीर तम्बू-सा
बनाती, पिछवाड़े के द्वार से चुपचाप निकल गई।
मामा को लेकर वह जब लौटी, तब माँ-बेटी बेखबर सो रही थीं। अकेली चन्दन ही न
जाने कब उठकर उसके पलंग पर हाथ-पाँव सिकोड़े गठरी बनी बैठी थी।
“हाय अम्माँ, इतनी सुबह-सुबह कहाँ से आ रही हो-अरे, गजट नानाजी आप!" वह एकदम
उठकर, चाय बनाने जाने लगी तो माँ ने रोक लिया।
"देख चन्दन, खटर-पटर मत होने देना, दो गिलास चाय बनाकर हमें यहीं दे जा, अभी
माँ-बेटी को मत जगाना, समझी?" मार्ग-भर राजेश्वरी मामा से परामर्श कस्ती आई
थी। मामा ने कहा था कि वे स्वयं आकर उसकी भावी समधिन के अजाने कुलगोत्र का
ठीक-ठिकाना ढूँढ़ लेंगे। प्रवासी पर्वतीय परिवार, चाहे वे अंडमान, जापान ही
में जाकर क्यों न बस गए हों, सबको गजट मामा, हथेली पर चल रही हुँओं की ही
भाँति बीन सकते थे।
सुबह चाय-नाश्ता निबटाकर, सोनिया चन्दन को लेकर घूमने चली गई और इधर गजट मामा
ने रुक्मिणी के साथ शास्त्रार्थ आरम्भ कर दिया। फिर तो उन्होंने किसी वाचाल
पंडे की ही भाँति, एक-एक कर, रुक्मिणी के पितृकुल, श्वसुर-कुल यहाँ तक कि
पितामह के भी भाई-भतीजों के नाम एक-एक कर, ऐसे सुना दिए कि वह दंग रह गई। उधर
मामा के कसकर लिए गए 'वायवा' में, रुक्मिणी ने भी सर्वोच्च स्थान पाया।
"आँख बन्द कर, कन्यादान कर दे, भानजी!" पीताम्बरजी ने एकान्त में भानजी की
पीठ थपथपाकर कहा, “खबरदार, देरी मत करना। अपनी सरलता के बावजूद हमारा समाज,
भाँजी मारने में अनूठी योग्यता रखता है, यह मत भूलना।" यही नहीं, गाँव जाने
से पहले गजट मामा ने स्वयं ही भानजी की सुन्दरी पुत्री का हाथ पकड़, रुक्मिणी
के पास बैठा दिया-फिर हाथ जोड़कर कहने लगे, "हमारी भानजी की किस्मत खुल गई
समधिन, जो ऐसा घर-वर मिला। वैसे हमारी बिटिया भी साक्षात् हिमालय-कन्या गौरी
है-जब आपका हुक्म होगा, तभी इसे आपकी चरण-सेवा के लिए भेज दिया जाएगा।"
"हाय-हाय, ऐसी लक्ष्मी से मैं चरण-सेवा कराऊँगी?" लपककर उसने लजाती चन्दन को
खींचकर छाती से लगा लिया और बहुत दिनों बाद, निखालिस अश्रुजल से, उसकी आँखें
छलछला उठी थीं-यह भोला प्यारा मुखड़ा यदि उसके अकस्मात खो गए पुत्र को, उसकी
माँ के पास लौटा सके, तो क्या वह स्वयं उसकी चरण-सेवा करने नहीं झुक पड़ेगी?
चलने से पूर्व, रुक्मिणी ने भावी पुत्रवधू की विभिन्न वेषभूषा और भंगिमा में,
न जाने कितनी तसवीरें खींच डालीं। कभी माँ के विवाह के पहाड़ी लहँगे-दुपट्टे
में और कभी उस गुलाबी चूड़ीदार कुर्ते में, दुपट्टा उसी फेंटे की भाँति सिर
पर बाँध, हाथ में चूने की बाल्टी-झाड़ थमा, वह उसे सीढ़ी पर खड़ी कर, खट
कैमरा खटका देती। उसके उत्साह की छूत, जैसे राजेश्वरी को भी लग गई। उसने बहुत
पहले अपने हाथ से कात-बुनकर, अपने लिए 'शौक' पोशाक तैयार की थी। वह भागकर उसे
निकाल लाई और जब उसने पुत्री को, उस अनोखी वेशभूषा में सजाकर, रुक्मिणी के
कैमरे के सम्मुख खड़ी किया, तो चपला सोनिया, किसी मनचले छोकरे की ही भाँति
सीटी बजाने लगी। “मम्मी, हियर इज ए रियल ग्लैमर गर्ल!" एक पल को, कंठ में झूल
रहे कैमरे को नीचे लटका, रुक्मिणी भी सम्मुख खड़ी उस अनुपम किशोरी के चेहरे
को, अपनी आँखों के ही फोकस में बाँधकर देखती रही।
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